हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड पर फिर कुदरत का कहर बरपा है। वहां पिछले दिनों बादल फटने और भूस्खलन से जानमाल का भारी नुकसान हुआ है। वैसे भी अब तो बरसात के मौसम में भारतीय उपमहाद्वीप के पहाड़ी इलाकों खासकर हिमालय की गोद में बसे राज्यों में बादल फटने, पहाड़ धंसने, जमीन दरकने और कभी भूकंप के झटकों की वजह से भारी जानमाल का नुकसान अब आम बात हो गई है।
अभी मानसून अपने शुरुआती दौर में ही है और उत्तराखंड को कुदरत के प्रकोप से दो-चार होना पड़ा, जिसके चलते बड़ी संख्या में लोग बेघर हो गए। इस तरह की तबाही को हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्य भी अक्सर भुगतते रहते हैं। पिछली बार जब केदारनाथ और कश्मीर में भीषण तबाही हुई थी, तब तमाम अध्ययनों के बाद चेतावनी दी गई थी कि अगर पहाडों की अंधाधुंध कटाई और नदियों के बहाव से अतार्किक छेडछाड या उसके दोहन पर रोक नहीं लगाई गई तो नतीजे भयावह होंगे। कुछ समय पहले पूर्वोत्तर में आए भूकंप के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय के आपदा प्रबंधन विभाग से जुडे वैज्ञानिकों ने भी चेतावनी दी थी कि पहाडों और नदियों से छेडछाड का सिलसिला रोका नहीं गया तो आने वाले समय में समूचे उत्तर भारत में भीषण तबाही मचाने वाला भूकंप आ सकता है।
तो इन सारी आपदाओं और उनके मद्देनजर दी गई चेतावनियों का एक ही केंद्रीय संकेत है कि हिमालय को लेकर अब हमें गंभीर हो जाना चाहिए। दुनिया के जलवायु चक्र में तेजी से हो रहे परिवर्तन के चलते हिमालय का मामला इसलिए भी बहुत ज्यादा संवेदनशील है कि यह दुनिया की ऐसी बड़ी पर्वतमाला है, जिसका अभी भी विस्तार हो रहा है। इस पर मंडराने वाला कोई भी खतरा सिर्फ भारत के लिए ही नहीं बल्कि चीन, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार आदि देशों के लिए भी संकट खड़ा कर सकता है।
हिमालय पर्वतमाला को भले ही दुनिया में सबसे नई पर्वतमाला माना जाता हो, लेकिन तथ्य यह भी है कि इसी हिमालय की गोद में दुनिया की कई महान सभ्यताओं का जन्म और विकास हुआ है। कॉकेशश से लेकर भारत के पूर्वी छोर से भी आगे म्यांमार में अराका नियोमा तक सगरमाथा यानी माउंट एवरेस्ट की अगुवाई में फैली हुई विभिन्न पर्वतमालाएं हजारों-लाखों वर्षों के दौरान विभिन्न सभ्यताओं के उत्थान और पतन की गवाह रही हैं। इन्हीं पर्वतमालाओं के तले सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर मोअन जोदड़ो की सभ्यता तक का जन्म हुआ। इन्हीं पर्वत श्रृंखलाओं की बर्फीली चट्टानों ने साइबेरिया की बर्फीली हवाओं के थपेड़ों से समूचे दक्षिण एशिया के वाशिंदों की रक्षा की और इस इलाके में दूर-दूर तक फैले हुए किसानों, वनवासियों और अन्य समूहों को फलने-फूलने में भी भरपूर मदद की।
इसी इलाके से जैन धर्म-दर्शन के विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ी और यहीं करुणा पर आधारित बौद्ध धर्म का जन्म हुआ, जिसने अफगानिस्तान के बामियान से लेकर कंपूचिया तक तथा नीचे की ओर श्रीलंका तक को अपने प्रभाव क्षेत्र में समेटा। इसी नगाधिराज हिमालय से निकली जीवनदायिनी नदियों के किनारे बैठकर तुलसी ने रामचरित जैसे महाकाव्य की रचना और कबीर ने लोक से जुड़े ज्ञान और दर्शन की गंगा बहाई। यहीं से नानक, रैदास आदि तमाम मनीषियों, भक्त कवियों और सूफी संतों ने समूची मानवता को उदात्त जीवन-मूल्यों से अनुप्राणित किया। इसी हिमालय की छांव में बिहार के चंपारण और उत्तराखंड के कौसानी से महात्मा गांधी ने समूचे विश्व को शांति, अहिंसा और भाईचारे की भावना पर आधारित जीवन दर्शन और विकास की नई सर्वसमावेशी अवधारणा से रूबरू कराया।
विडंबना यह है कि जिन पर्वतमालाओं की छांह तले यह सब संभव हो पाया, आज वही पर्वतमालाएं मनुष्य की खुदगर्जी और सर्वग्रासी विकास की विनाशकारी अवधारणा की शिकार होकर पर्यावरण के गंभीर खतरे से जूझ रही हैं। इस खतरे से न सिर्फ इन पहाड़ों का बल्कि इनके गर्भ में पलने वाले प्राकृतिक ऊर्जा और जैव संपदा के असीम स्रोतों और इन पहाड़ों से निकलने वाली नदियों का अस्तित्व भी संकट में पड़ गया है। पिछले तीन वर्षों के दौरान केदारनाथ और कश्मीर की बाढ़ तथा नेपाल और पूर्वोत्तर के भूकंप जैसी भीषण त्रासदियों और उसके बाद से लेकर अब तक जारी तमाम छोटी-बडी त्रासदियों की प्रकृति भले ही अलग-अलग किस्म की रही हों लेकिन ये सभी एक तरह से हिमालय के क्षेत्र में हुई हैं और इनका एक ही संकेत है कि हिमालय को लेकर अब हमें गंभीर हो जाना चाहिए।
दरअसल, भारतीय उपमहाद्वीप की विशिष्ट पारिस्थितिकी की कुंजी हिमालय का भूगोल है। लेकिन हिमालय की पर्वतमालाओं के बारे में पिछले दो-ढाई सौ बरसों में हमारे अज्ञान का लगातार विस्तार हुआ है। इनको जितना और जैसा बर्बाद अंग्रेजों ने दो सौ सालों में नहीं किया था उससे कई गुना ज्यादा इनका नाश हमने पिछले साठ-पैंसठ सालों में कर दिया है। इनकी भयावह बर्बादी को ही दक्षिण-पश्चिम एशिया के मौसम चक्र में बदलाव की वजह बताया जा रहा है, जिससे हमें कभी भीषण गरमी का कहर तो कभी जानलेवा सर्दी का सितम झेलना पड़ता है और कभी बादल फट पड़ते है तो कभी धरती दरकने या डोलने लगती है पहाड़ धंसने लगते हैं।
समूचे भारतीय उपमहाद्वीप को बुरी तरह हिला देने वाले नेपाल और पूर्वोत्तर के भूकंप और उससे पहले उत्तराखंड और कश्मीर में आई प्रलयंकारी बाढ़ को इसी रूप में देखा जा सकता है। हजारों-हजार जिंदगियों को लाशों में तब्दील कर गई तथा लाखों लोगों को बुरी तरह तबाह कर गई इन त्रासदियों को दैवीय आपदा कहा गया लेकिन हकीकत यह है कि यह मानव निर्मित आपदाएं ही थी जिसे विकास और आधुनिकता के नाम पर न्यौता जा रहा था और अभी भी यह सिलसिला जारी है।
दरअसल, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कभी भी हिमालय और इससे जुड़े मसलों पर कोई गंभीर विमर्श हुआ ही नहीं, क्योंकि हम इसकी भव्यता और इसके सौंदर्य में ही खो गए। जबकि हिमालय को इसकी विराटता, इसके सौंदर्य और इसकी आध्यात्मिकता से इतर इसकी सामाजिकता, इसके भूगोल, इसकी पारिस्थितिकी, इसके भू-गर्भ, इसकी जैव-विविधता आदि की दृष्टि से भी देखने और समझने की जरुरत है। हिमालय को हमेशा देश के किनारे पर रखकर इसके बारे में बड़े ही सतही तौर पर सोचा गया है, जबकि यह हमारे या अन्य एक-दो देशों का नहीं, बल्कि पूरे एशिया के केंद्र का मामला है। हिमालय एशिया का वॉटर टावर माना जाता है और यह बड़े भू-भाग का जलवायु निर्माण भी करता है। लिहाजा हिमालय क्षेत्र की प्राकृतिक संपदा से ज्यादा छेड़छाड़ घातक साबित हो सकती है।
पहाड़ी इलाकों में पर्यटन को बढ़ावा देना राजस्व के अलावा स्थानीय लोगों के रोजगार की दृष्टि से जरूरी माना जा सकता है। लेकिन इसकी आड़ में हिमालयी राज्यों की सरकारें होटल-मोटल, पिकनिक स्थल, शॉपिंग मॉल आदि विकसित करने, बिजली, खनन और दूसरी विकास परियोजनाओं और सड़कों के विस्तार के नाम पर निजी कंपनियों को मनमाने तरीके से पहाड़ों और पेड़ों को काटने की धड़ल्ले से अनुमति दे रही हैं।
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर राज्य, सबकी दास्तानें एक जैसी दर्दनाक हैं। ये सभी इलाके कई विशिष्ट कारणों से सैलानियों के आकर्षण के केंद्र हैं, इसलिए कई निजी कंपनियों ने यहां कारोबारी गतिविधियां शुरू कर दी हैं। हालांकि स्थानीय वाशिंदे और पर्यावरण के लिए काम करने वाले स्वयंसेवी संगठन इन इलाकों में पहाड़ों और वनों की कटाई के खिलाफ आवाज उठाते रहे हैं, लेकिन सरकारी सरपरस्ती हासिल होने के कारण ये आपराधिक कारोबारी गतिविधियां निर्बाध रूप से चलती रहती हैं।
पर्यावरण संरक्षण के मकसद से ज्यादातर पहाड़ी इलाकों में बाहरी लोगों के जमीन-जायदाद खरीदने पर कानूनन पाबंदी है, लेकिन ज्यादा से ज्यादा राजस्व कमाने के चक्कर में इन पहाड़ी राज्यों की सरकारों के लिए इस कानून का कोई मतलब नहीं रह गया है और कई कंस्ट्रक्शन कंपनियां पहाड़ों में अपना कारोबार फैला चुकी हैं। जिन इलाकों में दो मंजिल से ज्यादा ऊंची इमारतें बनाने पर रोक थी, वहां अब बहुमंजिला आवासीय और व्यावसायिक इमारतें खड़ी हो गई हैं।
बड़ी इमारतें बनाने और सड़कें चौड़ी करने के लिए जमीन को समतल बनाने के लिए विस्फोटकों के जरिए पहाड़ों की अंधाधुंध कटाई-छंटाई से पहाड़ इतने कमजोर हो गए हैं कि थोड़ी सी बारिश होने पर वे धंसने लगते हैं और पहाड़ों का जनजीवन कई-कई दिनों के लिए गड़बड़ा जाता है। पहाड़ी इलाकों में भवन निर्माण का कारोबार फैलने के साथ ही सीमेंट, बिजली आदि का उत्पादन करने वाली कंपनियों ने भी इन इलाकों में प्रवेश कर लिया है। कुछ अध्ययनों से यह भी जाहिर हो चुका है कि संचार सुविधाओं के लिए लगे टावरों से निकलने वाली तरंगों की वजह से बादलों का संतुलन बिगड़ता है और वे अचानक फट कर संकट पैदा कर देते हैं।
पर्यावरण संरक्षण संबंधी कानूनों के तहत पहाड़ी और वनीय इलाकों में कोई भी औद्योगिक या विकास परियोजनाशुरू करने के लिए स्थानीय पंचायतों की अनुमति जरुरी होती है, लेकिन राज्य सरकारें जमीन अधिग्रहण संबंधी अपने विशेषाधिकारों का इस्तेमाल करते हुए विकास के नाम पर आमतौर पर कंपनियों के साथ खड़ी नजर आती हैं। इन सबके खिलाफ जन-प्रतिरोध का किसी सरकार पर कोई असर नहीं होता देख अब लोगों ने अदालतों की शरण लेनी शुरू कर दी है। यह सच है कि सरकारों की मनमानी पर अदालतें ही अंकुश लगा सकती हैं, लेकिन सिर्फ अदालतों के भरोसे ही सब कुछ छोड़कर बेफिक्र नहीं हुआ जा सकता।
राजनीतिक नेतृत्व और स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ) का चाल-चलन भी उनसे यह उम्मीद करने की इजाजत नहीं देता कि वे हिमालय की हिफाजत के लिए कोई ईमानदार पहल करेंगे। पिछले एक-डेढ़ दशक में रियो से शुरू होकर पेरिस तक सालाना जलवायु वार्ताएं हुईं, जिनमें दक्षिण एशिया की सरकारों के नुमाइंदों ने भी शिरकत की। पांच साल पहले डरबन में हिमालय क्षेत्र के भविष्य के बारे में काफी गहरी चिंताएं उभरकर सामने आई थीं, लेकिन उस सम्मेलन में भी कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं तलाशा जा सका।
दरअसल, पहाड़ों को और पर्यावरण को बचाने के लिए जरूरत है एक व्यापक लोक चेतना अभियान की, जिसका सपना पचास के दशक में डॉ. राममनोहर लोहिया ने 'हिमालय बचाओ' का नारा देते हुए देखा था या जिसके लिए सुंदरलाल बहुगुणा ने 'चिपको आंदोलन' शुरू किया था। हालांकि संदर्भ और परिपेक्ष्य काफी बदल चुके हैं लेकिन उनमें वैकल्पिक सोच के आधार सूत्र तो मिल ही सकते हैं।