अमरनाथ यात्रा के प्रति कश्मीरियों का द्वेष अयोध्या के प्रति मुस्लिमों के द्वेष से कम नहीं है, ऐसी धारणा अगर बन गई है, तो यह निर्मूल नहीं है। अमरनाथ इधर पिछले नौ सालों से कश्मीर का "अयोध्या" जो बन गया है।
और यही कारण है कि अमरनाथ यात्रियों पर हमला करने के अनेक मायने होते हैं। आतंकी कहीं भी हमला कर सकते थे, लेकिन अमरनाथ यात्रियों को मारने का अपना एक कुत्सित सुख और संतोष होता है।
हम बहुत जल्दी अपने निकट-अतीत को भूल जाते हैं और तात्कालिक संदर्भों में ही चीज़ों को देखने की कोशिश करते हैं, जबकि मेरा अनुभव यह रहा है कि इतिहास अपनी निरंतरता और पर्यवेक्षण के अपने परिप्रेक्ष्य के कारण हमें किन्हीं नीयतों के बारे में हमेशा ज़रूरी सबक़ देता है। अस्तु।
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नौ साल पुरानी बात है! वर्ष 2008 के ये ही दिन थे, जब अमरनाथ यात्रा विवाद ने जम्मू-कश्मीर में एक सरकार गिरवा दी थी, संघर्षों में 38 लोगों की मौत हो गई थी और 1989 के उग्रवाद के बाद का सबसे बड़ा वैमनस्य कश्मीर घाटी में देखा गया था।
कश्मीर शैवों की धरती रही है। द्रविड़ों के शैववादी कश्मीर तक आकर अद्वैतवादी हो जाते हैं, वह तो ख़ैर एक अधिभौतिक प्रवर्तन है, किंतु अमरनाथ में बर्फानी बाबा का पिंड जमते ही आषाढ़ पूर्णिमा से रक्षाबंधन तक श्रद्धालुओं का जत्था एक दूसरी ही भावना के वशीभूत होकर दर्शन करने चला आता है। भारत-देश में होने वाले अनेक मेलों-खेलों, जत्रा-जत्थों का वह भी एक हिस्सा सदियों से रहा है।
लेकिन 26 मई 2008 को जम्मू कश्मीर सरकार ने "श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड" को तीर्थयात्रियों के लिए अस्थायी आवास के निर्माण के लिए कोई सौ एकड़ ज़मीन देने का निर्णय लिया, और तब शुरू हुआ तमाशा।
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सबसे पहले पर्यावरणविद् आए, जिन्होंने इससे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को क्षति पहुंचने की बात कही, जबकि उसी दौरान पुंछ से शोपियान तक जो सड़क बनाई जा रही थी, उससे सैकड़ों एकड़ वनभूमि के सर्वसम्मति से नाश पर किसी को ऐतराज़ ना था।
फिर आए "हुर्रियत" के लीडरान। सैयद अली शाह गिलानी और मीरवाइज़ फ़ारूक़ ने बलताल से अमरनाथ तक "प्रोटेस्ट मार्च" निकालने का ऐलान किया और यासिन मलिक ने धौंस दी कि वह तब तक कोई निवाला हलक़ के नीचे नहीं उतारेगा, जब तक कि यह सौ एकड़ ज़मीन अमरनाथ यात्रियों को देने का निर्णय वापस नहीं ले लिया जाता। यासिन मलिक ने कहा : "आप लोग तो पूरी कश्मीर घाटी को ही एक हिंदू तीर्थस्थल बनाने पर आमादा हैं!"
सुलगने के लिए हमेशा तत्पर रहने वाली वादी फिर कहां पीछे रहने वाली थी? जल्द ही कश्मीर घाटी में प्रदर्शन शुरू हुए। एक-एक रैली में पांच-पांच लाख लोग उमड़े।
तालीम, तरक़्क़ी, रोज़गार के लिए यह क़ौम कभी सड़कों पर उतरकर आई हो, किसी को याद आता है? भ्रष्टाचार या बलात्कार के विरोध में कभी वैसा हुआ हो? इस्लामिक हिंसा की किसी घटना, जो कि दुनिया के किसी ना किसी कोने में रोज़ ही होती है, के विरोध में "नॉट इन माय नेम" जैसा कोई शगूफ़ा लेकर ये सड़कों पर उतरे हों? याद करके बताइए। और फिर इसके सामने यह याद कीजिए कि जहां जहां ये सड़कों पर जत्था बनाकर हुजूम में उतरेंगे, वहां या तो पथराव करेंगे, या दंगा करेंगे, या किसी आतंकवादी की लाश को सलाम ठोंकेंगे, वैसे कितने वाक़ये अभी आपको फ़ौरन याद आ रहे हैं?
समाज की संरचनाओं में नीयत का बड़ा महत्व होता है। नेकनीयत अलग तरह से काम करती है और बदनीयत अलग तरह से काम करती है। और मेरा ऐसा मानना है कि हिंदुस्तान के लोगों का अंतहीन डर, अविश्वास, घृणा और अंदेशा जीतने के लिए आपको बदनीयती का एक बड़ा-सा पहाड़ खड़ा करना होता है। उस पहाड़ को अनेक सालों के उद्यम से बहुत मेहनत से खड़ा किया गया है।
यह कोई फ़िरकापरस्त अफ़वाह नहीं, यह ज़मीनी हक़ीक़त है!
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अमरनाथ श्राइन बोर्ड ने तीर्थयात्रियों को सौ एकड़ ज़मीन दी, उसमें इतने बवाल का क्या मतलब था? किंतु दुर्भावना! किंतु बदनीयत! अयोध्या में जैसी बदनीयत दिखाई गई, वैसा ही मन का मैल!
तब कश्मीर घाटी से आवाज़ गूंजी : "यह हमारी स्वायत्तता पर हमला है!"
"स्वायत्तता", हम्म्म। यानी "ऑटोनमी"। ये "ऑटोनमी" बहुत मज़ेदार लफ़्ज़ है, जो आपकी इंसानी फ़ितरत के बारे में बहुत तफ़सीलों से जानकारियां देता है।
मसलन, हमें अपने लिए एक "ऑटोनमस" पाकिस्तान चाहिए, हमें अपने लिए एक "ऑटोनमस" बांग्लादेश चाहिए। कश्मीर इंडिया में रहेगा, लेकिन इंडिया में रहकर भी वह "ऑटोनमस" रहेगा। धारा 370 इस अलगाव का क़ायदा होगा। अलग निशान, अलग विधान, अलग प्रधान होगा। देश के नियम उस पर लागू नहीं होंगे और "जीएसटी" को जम्मू-कश्मीर में कैसे लागू किया जाए, उस पर कुछ इस अंदाज़ में फ़िक्रमंदियों के साथ मगजपच्ची की जाएगी, मानो ये जम्मू-कश्मीर कोई पड़ोसी मुल्क़ हो!
ये जो अपनी थाली, अपना लोटा, अपना चौका अलग लेकर भाईचारे का मुज़ाहिरा करने की दोमुंही फ़ितरत है, उससे केवल भोले-भाले सेकुलरान को ही भुलावा दिया जा सकता है, पूरी दुनिया को नहीं।
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2008 के विवादों ने तब कांग्रेस-पीडीपी की ग़ुलाम नबी आज़ाद सरकार गिरवा दी थी, राज्यपाल बदल गए थे और गवर्नर रूल लागू हो गया था, "हिंदू बहुल जम्मू" और "मुस्लिम बहुल कश्मीर" का द्वैत अपने सबसे वीभत्स रूप में सामने आ गया था, और मौक़ा देखकर पाकिस्तान की "सीनेट" ने भी सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित करवा दिया था कि कश्मीर में मुसलमानों की संपत्तियों पर जो ग़ैरजायज़ क़ब्ज़ा हिंदुओं के द्वारा किया जा रहा है, उसकी अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा भर्त्सना की जाए!
"मुसलमानों की संपत्तियों पर हिंदुओं का ग़ैरजायज़ क़ब्ज़ा", आर यू किडिंग मी! श्राइन बोर्ड को सौ एकड़ ज़मीन देना संपत्तियों का अनैतिक अधिग्रहण हो गया, जैसे कश्मीर के जंगलों का एक-एक पत्ता मुसलमानों की जायदाद हो, जबकि सच तो ये है कि हज़ारों सालों से वहां हिंदुओं का आना-जाना रहा, दाना-पानी रहा, नाते-रिश्ते रहे, और पहाड़ों पर हमेशा उनके देवता विराजित रहे!
दुर्भावनाओं की भला कितनी मिसालें गिनाई जाएं?
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यह सच नहीं है कि अमरनाथ यात्री कश्मीरियों की आंखों में खटकते हैं, अब यह संदेश देने का ज़िम्मा कश्मीरियों का ही है।
कल से सुन रहा हूं कि मुसलमानों ने अमरनाथ गुफा खोजी, मुसलमान यात्रियों की सेवा करते हैं, इतना भाईचारा है, कितना सौहार्द है। लेकिन मुझे ये कल्पनाएं और प्रवंचनाएं नहीं, दिन की रौशनी की तरह साफ़ सच्चाइयां चाहिए।
जिस कश्मीर घाटी में लाखों लोग दहशतगर्दों के मजमों में उमड़ते हैं, उतने ही लोग मुझे अमरनाथ यात्रियों के समर्थन में भी सड़कों पर चाहिए। आप कहते हैं कि अमन है और भाईचारा है! चलिए मान लेते हैं। अब आप दिखाइए कि कहां पर है! और अगर आप नहीं दिखा सकते, तो जिस दुर्भावना के तर्क हम निरंतर दे रहे हैं, उस पर सहमति में सिर हिलाइए, क्योंकि ख़ामख़यालियों और ख़ुशफ़हमियों से हक़ीक़तें नहीं बदल जाती हैं।
अमरनाथ यात्रियों पर आक्रमण करके आतंकवाद ने अपनी नीयत का परिचय दिया है और सद्भावना की ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है। कमबख़्त, "गंगा-जमुनी" में भी एक "युग्म" है, वह कोई एकल अवधारणा नहीं है। इतिहास ने एक और मौक़ा तथाकथित सौहार्द की पुष्टि का दिया है, सरकारी बयानों जैसी निंदा से काम नहीं चलने वाला है। अपनी बेदाग़ नीयत का बेधड़क परिचय दीजिए! आइए, हम देख रहे हैं!
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क्योंकि आतंकवाद का भले ही हो, लाशों का कोई मज़हब नहीं होता है।
लाशें केवल लाशें होती हैं, अधखुली आंखों से शून्य में ताकती हुईं। (यह लेखक के निजी विचार हैं)