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Last Modified: गुरुवार, 18 अप्रैल 2024 (15:37 IST)

LSD 1 और LSD 2 में क्या है अंतर? निर्देशक दिबाकर बनर्जी ने किया खुलासा

Director Dibakar Banerjee revealed What is the difference between LSD 1 and LSD 2 - Director Dibakar Banerjee revealed What is the difference between LSD 1 and LSD 2
Dibakar Banerjee Interview : 'लव सेक्स और धोखा 2' बनाने का मेरा तो कोई आइडिया था नहीं। मैं तो सोच रहा था कि एलएसडी 1 के बाद अब कोई नया भाग नहीं बनाने वाला हूं। लेकिन यह आइडिया एकता कपूर के दिमाग में आया था। उन्होंने एक बार ऐसे ही फोन लगाया और मुझे कहा कि LSD 2 बनाते हैं। मैंने कहा, अब इतना टाइम हो गया है। 2012 एलएसडी 1 बनाई थी तो उसके बाद 2013 या 14 या 16 तक ऐसा कुछ हुआ नहीं था जिसे लेकर हम अपनी बातें लोगों के सामने ला सकते थे। 
 
लेकिन अब देखिए 2024 हो गया है। यदि इतना पूरा समय बीत चुका है। 10 साल से ज्यादा का समय हो गया है और हमारे पास कई सारी ऐसी बातें आ गई हैं जिनके बारे में अलग से बैठकर सोचने और उसे दर्शकों तक लाने की जरूरत हो गई थी। मैंने कहा चलिए भाई अब बना ही देते हैं। यह कहना एलएसडी 2 के निर्देशक दिबाकर बनर्जी का जिन्हें 2012 में एलएसडी 1 जैसी फिल्म बनाकर अपना नाम कमाया फिल्म ने भी खूब वाहवाही बटोरी। 
 
दिबाकर बनर्जी का है कि तब से लेकर अब तक के दर्शक बहुत बदल चुके हैं। 2012 में जो बच्चा 4 साल रहा होगा या फिर घर के बाहर फुटबॉल खेल रहा होगा। अब वही मेरा दर्शक बड़ा होकर सिनेमा हॉल आने वाला है। शायद वह भी 25 साल का भी हो गया होगा। 
अब हुआ यूं कि एकता कपूर ने मुझे कहा, LSD 2 बनाते हैं तब मैं किसी और फिल्म में लगा हुआ था। मैंने कहा ठीक है बना लेंगे। उसके बाद कोविड-19 समय निकल गया। उसके बाद हम दोनों बैठे हैं और इस आइडिया पर काम करना शुरू किया कि ऐसा क्या है जो 2010 के भारत में था। और 2020 के भारत में आ गया है?
 
एलएसडी वन और एलएसडी टू में क्या अंतर है और क्या समानता है
समानता है तो उसे इतना मानकर चलें कि वह भी LSD 1 में भी तीन अलग-अलग कहानियां थी और इस बार की तीन अलग-अलग कहानियां मैं कह रहा हूं। इसके अलावा कोई समानता नहीं है। अंतर बहुत सारे हैं। अब एक कहानी ट्रांसजेंडर की है। एक कहानी इसमें एक गेम्स की है और एक कहानी रियलिटी शो की है। ऐसा नहीं है कि मैं फिल्में देखता हूं और बाद में फिर इन तीनों के बारे में सोचता हूं बल्कि होता ही है कि जब भी कोई ट्रांसजेंडर की कहानियां या रियलिटी शो की कहानी मेरे सामने आती है तब मैं सोचना शुरु कर देता हूं और फिर वही सोचते-सोचते मेरी फिल्म का हिस्सा बन जाती है मेरी सोच।
 
पहले से यानी LSD 1 से लेकर LSD 2 में अंतर इतना आया है कि हम अब थोड़ी नकली जिंदगी जीने लगे हैं। सोशल मीडिया पर हमारी एक जिंदगी होती है जो कि वर्चुअल जिंदगी है। असल जिंदगी एक हम अपनी ही जिंदगी के रियलिटी शो को लोगों के सामने लाते हैं इन सोशल मीडिया के जरिए जाने कि हम अपनी ही जिंदगी का बायोपिक बना रहे होते हैं। उसमें कई सारे लोग जुड़ जाते हैं तो ऐसा ही लोग हट जाते हैं यानी हम अपनी ही बायोपिक लिख रहे हैं हर दिन हर पल।
 
यानी हमारी जिंदगी के बायोपिक के निर्देशक भी हम निर्माता भी हम लेखक भी हम और एक्टिंग करने वाले भी हम। जहां तक बात है LSD1 और एलएसडी 2 में कितना अंतर है तो इसमें टेक्निकल या तकनीकी तौर पर बहुत अंतर है। हमने इसमें डीप फेक का इस्तेमाल किया है। हमने मोशन पिक्चर का इस्तेमाल किया है। हमने एनिमेशन का इस्तेमाल किया है। ऐसा अभी तक तो मेरी देखने में नहीं आया है कि भारत में किसी फिल्म में इतनी सारी तकनीकी का इस्तेमाल किया गया होगा। 
 
फिल्म की कास्टिंग के बारे में कुछ बताएं कैसे आप टैलेंट को चुनते हैं? 
आप स्क्रीन पर देखते हैं और आपको टैलेंट समझ में आ जाता है। हमने लगभग 6000 लोगों की स्क्रीन टेस्ट किए हैं। हम एक ऐसा गेमर चाहिए था जो पूरा अपना स्वैग में रहता है। सारा समय गाली गलौज करता और अपने आप को पता नहीं क्या समझता है। बहुत सारे लड़कों को देखा तब जाके हमें अभिनव मिला। उसके बाद हमने कुल्लू को ढूंढने की कोशिश की तो उस समय एक ऐसा व्यक्ति चाहिए था। इस रोल को निभाने के लिए ट्रांसजेंडर की हर बात को समझता हो जानता हो और उसके अंदर भी कहीं ट्रांसजेंडर होने का एक अंश मौजूद हो। ऐसे में फर्स्ट ट्रांसजेंडर के रूप में हमें बोनिता मिली। उसे समझाना पड़ा लेकिन उसने अच्छे से रोल निभा लिया। 
 
अब बात करते हैं तीसरे रोल की जिसमें कि हमें एक और ट्रांसजेंडर ही दिखाना था जो रियालिटी शो में है। यानी नूर का किरदार। हमने सोचा एक और ट्रांसजेंडर ले लेंगे। तो हो सकता है कि जो ट्रांस्फोबिया हम दिखाना चाहते हैं, उसे हम जस्टिफाई ना कर सके क्योंकि हम बनाने के लिए तो ठीक है फिल्मकार के तौर पर बना लेंगे। देखने के लिए तो वही लोग आएंगे जिन्हें कहीं शायद ट्रांस्फोबिया होता हो। तो एक साथ दो-दो ट्रांसजेंडर ले लिए तो बात ही हो जाएगी कि यह बहुत ही नीश ऑडियंस के लिए यह बहुत ही खास वर्ग के लिए फिल्म बन कर रह जाएगी और आम लोग नहीं देखना चाहेंगे। 
 
फिर हमने निर्णय लिया कि क्यों ना किसी और को ले लिया जाए। बात आई कि किसी लड़की को ट्रांसजेंडर बनाते हैं और फिर मेरे सोचना है कि हम एलएसडी में मार्केटिंग में तो यह कर रहे हैं कि यह पहली बार ऐसा हो रहा है कि ट्रांसजेंडर की भूमिका ट्रांसजेंडर ही निभा रहा है और फिर हमें कह दे कि जो दूसरा ट्रांसजेंडर है, वह लड़की है तो फिर तो बात ही उल्टी हो जाएगी ना? ऐसे में हमने सोचा कि इस बार दूसरे रोल को मजेदार बनाने के लिए क्यों ना एक लड़के को ट्रांसजेंडर का रोल दे दिया जाए और इस तरीके से नूर का किरदार बनाया गया और उसके लिए हमने पारितोष को चुना।
 
आप एलएसडी वन की बात करें या एलएसडी टू की बात करें। इसमें आप हमेशा नए कलाकारों को ही क्यों चुनते हैं। 
बहुत वाजिब सा कारण है कि जैसे कि यह दोनों फिल्में रही है, उसमें कोई पुराना मंझा हुआ कलाकार तो काम नहीं करेगा। वह 10 बार सोचेगा कि ऐसे विषय को मुझे करना चाहिए या नहीं करना चाहिए। क्या मैं इस तरीके के रोल में फिट बैठ लूंगा या नहीं बैठूंगा क्योंकि मेरे पुराने रोल में मैंने ऐसा कोई काम नहीं किया है। जहां तक नए एक्टर्स की बात आती है तो वह किसी भी तरीके से काम करने में कोई नानुकु नहीं करते हैं। जल्दी से मान जाते हैं। 
 
अब सोचिए मुझे एक गेम और एक इनफ्लुएंशल चाहिए था। इनफ्लुएंसर को बहुत सारी मां बहनों की गालियां भी देनी है तब कोई भी पुराना कलाकार होगा तो बोलेगा कि नहीं सर मैं यह सब कैसे कर लूंगा। मेरा ब्रांड खराब हो जाएगा। जबकि किसी नए कलाकारों में ऐसी कोई सोच नहीं होती है। वह सामने जो भी काम आया है उससे अच्छे तरीके से निभाने की कोशिश करते हैं। 
अगर कई बार यह भी हो जाता है कि एक या दो फिल्म पुराने किसी कलाकार को ले लो तब भी अलग तरीके की परेशानी सामने आ जाती है। 
 
जो भी उन एक्टर की कास्टिंग एजेंसी होगी या उनकी मैनेजिंग एजेंसी होगी या उनके माता-पिता हों,  उनकी तरफ से फोन आ जाता है कि हमारे बच्चे से यह सब काम मत करवाओ तो फिर इतनी झंझट में पढ़ा जाए। इससे अच्छा क्यों न किसी नए कलाकार को ले लिया जाए। 
 
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