- निखिल रंजन
तीन तलाक़ के मामले में सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पूरी होने के बाद और फैसला सुनाए जाने के पहले ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने एक हलफ़नामा दायर किया है। हलफ़नामे में पर्सनल लॉ बोर्ड ने कहा है कि निकाहनामे में इस बात का ज़िक्र किया जाएगा कि तीन तलाक़ ना दिया जाए और सभी काज़ियों को इसके लिए जरूरी निर्देश दिए जाएंगे।
अदालत में तीन तलाक़ के खिलाफ़ क़ानून बनाने की मांग कर रहे संगठनों में शामिल भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की ज़किया सोमन ने सीधे बोर्ड पर सवाल उठाया और कहा कि उसे इस मामले में हलफ़नामा देने का कोई हक़ नहीं है।
ज़किया सोमन का कहना है, "हम कोई खैरात नहीं मांग रहे हैं हम कोर्ट से अपना अधिकार मांग रहे हैं, संसद से अधिकार मांग रहे हैं। बोर्ड एक प्राइवेट इदारा है और इन्हें ये जताने की जरूरत नहीं कि भारत के सभी मुस्लिमों के रहनुमा यही हैं और सारे काज़ी इनके ताबे में हैं। दूसरी बात ये है कि ज़्यादातर महिलाओँ के पास तो निकाहनामे की कॉपी भी नहीं होती।"
ज़किया कहती हैं कि निकाहनामे में तो नाम पते के अलावा और कोई जानकारी नहीं रहती और फिर सारे काज़ी बोर्ड की बात मानेंगे इसकी क्या गारंटी है?
भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन का ये भी कहना है कि अपना अस्तित्व खतरे में देख पर्सनल लॉ बोर्ड ये हलफनामा ले कर आया है। ज़किया सोमन का कहना है कि भारत में मुसलमानों के लिए भी दूसरे धर्मों की तरह ही शादी ब्याह के क़ानून बनाए जाने चाहिए।
संसद का दायित्व : उन्होंने कहा, "हमारे देश में जैसे हिंदू मैरिज एक्ट है, क्रिश्चियन मैरिज एंड सक्सेशन एक्ट है, उसी तर्ज पर मुसलमानों का भी एक फैमिली लॉ होना चाहिए, ये पार्लियामेंट का दायित्व है कि वो ये क़ानून पास करे।" उधर मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का कहना है कि हलफ़नामे में कोई नई बात नहीं कही है इसका प्रावधान पहले से ही मौजूद था। बोर्ड के सदस्य कमाल फारुक़ी ने बीबीसी से बातचीत में कहा कि कोर्ट से कोई बात कहने का यही एक तरीक़ा है इसलिए हलफ़नामा दिया गया। उनका ये भी कहना है कि पर्सनल लॉ बोर्ड खुद ही इस बारे में कदम बढ़ा रहा है और अदालत को इसमें दख़ल नहीं देना चाहिए।
कमाल फारुक़ी का कहना है, "हमने पहले ही ये बात उठाई है। कोर्ट ने हमसे हमारी कार्रवाई का दस्तावेज़ी सबूत मांगा तो हमने उसे हलफ़नामे की शक्ल में उसका उर्दू और अंग्रेज़ी तर्ज़ुमा कोर्ट में दाखिल किया है। कोई नई बात नहीं की।"
कमाल फारुक़ी ने इस बात से भी इनकार किया कि बोर्ड मुसलमानों में किनारे हो गया है उन्होंने याद दिलाया कि बोर्ड की एक आवाज़ पर चार करोड़ से ज़्यादा लोगों ने दस्तखत कर शरीया के प्रति आस्था जताई और इसमें दखलंदाज़ी का विरोध किया। फारुक़ी ने कहा, "मुझे तो समझ में नहीं आता कि किनारे कौन है?"
हलफ़नामा क्यों? : हालांकि सुप्रीम कोर्ट के वकील सैफ महमूद भी मानते हैं कि हलफ़नामा भले ही सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर दिया गया हो, लेकिन बोर्ड ने ये क़दम इस मुद्दे पर मचे बवाल को देख कर ही उठाया है। सैफ़ महमूद ने बीबीसी से कहा, "अगर इस क़दर हंगामा ना होता और संविधान पीठ इस पर छुट्टियों में सुनवाई ना कर रही तो मुझे नहीं लगता कि बोर्ड ये हलफ़नामा देता। इससे साफ ये लगता है कि उनकी स्थिति कमज़ोर है।"
मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड खुद भी ये मान चुका है कि तीन तलाक़ की प्रथा उचित नहीं कही जा सकती और इस पर अमल करने वालों का सामाजिक बहिष्कार करने की सलाह देता है। सैफ महमूद सवाल उठाते हैं अगर इस पर अदालत क़ानून के जरिए रोक लगाती है तो बोर्ड इसका समर्थन क्यों नहीं करता।
सैफ़ महमूद ने कहा, "ये तो सत्तर बरस से सुन रहे हैं कि मुस्लिम बोर्ड कुछ कर रही है लेकिन हमें तो अब तक नज़र नहीं आया। मुझे ये समझ में नहीं आता कि अगर बोर्ड खुद उसे ग़ैरइस्लामी मानता है, उसके खिलाफ प्रस्ताव पास करता है, हलफ़नामा देता है तो फिर कोर्ट अगर उसे असंवैधानिक करार दे दे तो उसमें आपको समस्या क्या है?"
मुस्लिम महिलाएं, सुप्रीम कोर्ट और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड इन सबका लक्ष्य तो एक ही है कि महिलाओँ के साथ ज़्यादाती ना हो। रिवाज़ों में सुधार के तरीकों पर सहमति शायद इस तकलीफ़ से महिलाओँ को निज़ात दिला सके।