अगर साल 2017 का राजनीतिक लेखा-जोखा करने बैठें तो ऐसा लगता है जैसे पिछले तीन सालों के घटनाक्रम को ही रिपीट कर रहे हैं। भाजपा की ताकत लगातार बढ़ती जा रही है और विपक्ष कमजोर होता जा रहा है। 2017 में भी राज्य विधानसभाओं के चुनावों में भाजपा का परचम लहराया और बाकी सभी धराशायी रहे। 
				  																	
									  
	 
	उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड से शुरू हुआ यह सिलसिला साल के समापन में गुजरात, हिमाचल प्रदेश में विजय तक जारी रहा। विपक्ष के लिए आशा की एक हलकी किरण के रूप में साल के अंत में राहुल गांधी की कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में ताजपोशी को देखा जा सकता है। आशा की किरण इसलिए क्योंकि राहुल के व्यक्तित्व में नया निखार दिखाई दे रहा है। वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह द्वारा रचे गए संजाल से निकलकर अपने लिए नई लकीर खींचते दिखाई दे रहे हैं। अगर राहुल अपनी इस नई बनती छवि से संप्रग में जान फूंक सके तो विपक्ष को मजबूती मिल सकती है और वह 2019 के आम चुनावों में भाजपा को चुनौती दे सकेगा।
	 
				  
	 
	भाजपा का परचम लहराता रहा : देश में जब से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी है, तभी से लगातार कांग्रेस की जमीन खिसकती जा रही है। कभी देश के लगभग सभी राज्यों में शासन करने वाली कांग्रेस आज सिमटकर कर्नाटक, पंजाब और दो पूर्वी राज्यों मिजोरम व नागालैंड पर ही शासन कर पा रही है। हालत यह है कि कोई भी भरोसे के साथ यह कहने की स्थिति में नहीं है कि आगामी चुनावों में कांग्रेस इन राज्यों में अपनी सत्ता बचा लेगी।
	 
				  						
						
																							
									  
	 
	पिछले लोकसभा चुनावों के बाद 18 राज्यों में चुनाव हुए हैं और बिहार, केरल तथा पश्चिम बंगाल को छोड़कर अधिकांश में भाजपा ने ही सत्ता हासिल की है। इनमें से केवल बिहार में कांग्रेस अन्य दलों के साथ सत्ता में मामूली साझेदारी पा सकी थी, वह भी 2017 में नितीश-लालू के झगडे में हाथ से जाती रही। 
				  																													
								 
 
 
  
														
																		 							
																		
									  
	 
	राहुल को ताज, क्या बचेगी लाज : वैसे तो राहुल गांधी पिछले तेरह वर्षों से राजनीति में सक्रिय हैं, लेकिन माना जा सकता है कि साल 2017 में जाकर वे परिपक्व हो पाए हैं। इसके साथ ही उनकी कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में ताजपोशी हुई और सोनिया गांधी ने करीब दो दशक के अपने नेतृत्व से निवृत्ति ले ली। अब कांग्रेस दावा कर सकती है कि सर्वाधिक युवाओं वाले देश भारत में उसका अध्यक्ष सबसे युवा है। साल के अंत में हुए गुजरात विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल का जो ऍपेरिएन्स रहा वह चकित करने वाला था। उनके भाषणों में बौद्धिकता और समझदारी की झलक दिखाई दी। इस बार उन्होंने कथित मोदी भक्तों को अपना मज़ाक उड़ाने का एक भी मौका नहीं दिया।
	 
				  																	
									  
	 
	गुजरात विधानसभा चुनाव में राहुल की रणनीति का लाभ कांग्रेस को मिलता दिखाई दिया। पार्टी के ही वयोवृद्ध नेता मणिशंकर अय्यर अगर वोटिंग के ठीक पहले प्रधानमंत्री मोदी को नीच नहीं कहते तो शायद कांग्रेस और बेहतर स्थिति में आ सकती थी। यानी भविष्य में राहुल को बाहरी तत्वों के साथ साथ आंतरिक नेताओं को भी समझदारी का पाठ पढ़ाना होगा।
				  																	
									  
	 
	आपको याद होगा पिछले आम चुनाव में भी अय्यर के चाय वाले बयान और दिग्विजयसिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं के ऊटपटांग बयानों ने कांग्रेस को भारी नुकसान पहुंचाया था और वह अभी तक की सबसे कम सीटों पर सिमटकर रह गई। इन सब बातों से सबक लेते हुए राहुल अब सतर्क और सधे कदमों से चलना चाहते हैं। पार्टी अध्यक्ष पद संभालते वक्त का उनका भाषण भी इस बात की तस्दीक करता है।
	 
				  																	
									  
	 
	वे सोनिया की तरह सलाहकारों के चक्कर में न पड़कर तेजी से फैसले लेने की ओर अग्रसर हैं और मोदी की तरह ज्यादा से ज्यादा भ्रमण कर जनता के संपर्क में बने रहना चाहते हैं। ऐसे संकेत भी मिल रहे हैं कि राहुल अपनी टीम में युवाओं को ज्यादा प्रतिनिधित्व देंगे, लेकिन मोदी की तरह युवाओं को बाहर नहीं बिठाएंगे।
				  																	
									  
	 
	विवादों में वंशवाद : इस वर्ष की चर्चित राजनीतिक घटनाओं में वंशवाद भी शामिल है। नेहरू गांधी परिवार को तो विरोधी वंशवाद के लिए प्रायः आड़े हाथों लेते रहे हैं। राहुल की ताजपोशी को लेकर भी कटु टिप्पणियां हुईं, लेकिन इस बार ज्यादा खामियाजा लालू यादव और मुलायम यादव परिवार को भरना पड़ा।
	 
				  																	
									  
	 
	उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान मुलायम परिवार में बिखराव आया। अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते चाचा शिवपाल तत्कालीन मुख्यमंत्री और मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव से उलझ पड़े और समाजवादी पार्टी समेत मुलायम की नैया डुबा बैठे। भाई और बेटे के बीच झूलते मुलायम न घर के रहे न घाट के। चुनाव में पार्टी बुरी तरह हारी और पार्टी के साथ साथ राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की कुर्सी भी बेटे अखिलेश ने हथिया ली।
	 
				  																	
									  
	 
	तीसरा विवादित वंश लालू यादव का है, जो पूरे साल विवादों में घिरा रहा। लालू की तरह ही उनके बेटे और बेटी घोटालों में फंसे, इस वजह से बिहार सरकार से राजद का पत्ता साफ हुआ और लालू पुत्रों के घटिया बयानों तथा हरकतों से नीतीश कुमार को मुक्ति मिली। इसके साथ ही नीतीश ने एक बार फिर भाजपा का हाथ थामकर अपनी सरकार को बचाए रखा। लालू के बच्चे अब अपने पिता की तरह कानूनी दांवपेंच में उलझकर रह गए हैं। उन्हें अब जांच एजेंसियों के दफ्तरों के चक्कर काटने पड़ रहे हैं।
	 
				  																	
									  
	 
	शरद माया संसद से बाहर : बिहार और उत्तरप्रदेश के घटनाक्रम का असर दो अन्य बड़बोले नेताओं शरद यादव व मायावती पर भी पड़ा। इन दोनों की राज्यसभा सदस्यता जाती रही। शरद यादव को तो नीतीश ने पार्टी को अपने कब्जे में लेकर बाहर का रास्ता दिखलाया। अब वे सदस्यता वापसी के लिए जुगत भिड़ाने में जुटे है। 
				  																	
									  
	 
	मायावती ने उप्र में अपनी पार्टी बसपा की बुरी तरह हार से खीजकर स्वयं ही बहानेबाजी कर राज्यसभा से इस्तीफ़ा दे दिया। उनकी सदस्यता समाप्ति का समय भी करीब था और उनके पास इतने सदस्य भी नहीं थे कि वे अगली बार चुनकर आ सकें। 
				  																	
									  
	 
	राष्ट्रपति चुनाव और जीएसटी : यह साल राष्ट्रपति चुनाव और जीएसटी जैसे कारणों के लिए भी याद किया जाएगा। देश में यह पहला अवसर था जबकि भाजपा पूरी तरह से अपने कैडर के प्रत्याशी को राष्ट्रपति पद पर चुनवा सकी। इसके पूर्व अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार के समय ऐसा अवसर आया था, लेकिन तब अल्पमत वाली सरकार थी और सर्वमान्य प्रत्याशी के रूप में एपीजे अब्दुल कलाम को राष्ट्रपति चुना गया था। इस वर्ष आरएसएस कैडर के रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति बनने में सफल रहे।
	 
				  																	
									  
	 
	जीएसटी लागू होना भी एक महत्वपूर्ण घटना है। इसके लिए अनेक वर्षों से कांग्रेस भी प्रयास कर रही थी। हालांकि इसके अर्थव्यवस्था पर परिणामों का पूरा आकलन अभी शेष है, लेकिन व्यापारियों के कुछ वर्ग जीएसटी के विरोध में हैं, खासतौर से गुजरात के सूरत में बड़ा विरोध प्रदर्शन भी हुआ। गुजरात के विधानसभा चुनावों में भी इसके असर की आशंका रही, लेकिन लगता नहीं कि परिणामों पर जीएसटी के विरोध का कोई असर पड़ा हो।
	 
				  																	
									  
	 
	कुल मिलाकर मोदी और भाजपा के लिए यह एक अच्छा साल रहा तथा राहुल और कांग्रेस इसे अपने लिए आशा का धरातल मान सकते हैं। दोनों पार्टियों के लिए साल 2018 भी चुनौतियों से परिपूर्ण रहने वाला है, क्योंकि इस साल में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में चुनाव होने हैं। भाजपा के लिए अपनी सत्ता बचाए रखने की चुनौती होगी तो कांग्रेस अपने खोए अस्तित्व की तलाश में रहेगी।