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Last Modified: रविवार, 6 फ़रवरी 2022 (20:00 IST)

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 : निकल सकता है नल से पानी और दौड़ सकती है साइकल...

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 : निकल सकता है नल से पानी और दौड़ सकती है साइकल... - Uttar pradesh assembly election 2022
उत्तर प्रदेश में प्रथम चरण का चुनाव अब अंतिम दौर में पहुंच चुका है। सभी दलों ने अपनी पूरी ताकत जनसंपर्क और प्रचार में झोंक दी है। 10 फरवरी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 58 सीटों पर मतदान होगा और प्रत्याशियों की किस्मत ईवीएम मशीन में बंद हो जाएगी। पहले चरण में 10 फरवरी को 11 जिलों की 58 सीटों पर मतदान होना है, जिनमें शामली, मुजफ्फरनगर, बागपत, मेरठ, गाजियाबाद, गौतमबुद्ध नगर, हापुड़, बुलंदशहर जिले प्रमुख हैं। चुनाव प्रचार समाप्त होने से पहले हर राजनीतिक दल अपनी-अपनी बिसात बिछाने में अपना सारा कौशल लगा रहा है।

इस बार मुकाबला दिलचस्प है और परिस्थितियां किसी के एकदम पक्ष में नहीं हैं। कुछ विधानसभा सीटों को छोड़कर अधिकांश जगह कांटे की टक्कर है। हालांकि सभी दल अपनी-अपनी जीत का दावा कर रहे हैं लेकिन जनता के मूड को भांपना हर बार की तरह इस बार भी आसान नहीं है।

भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी गठबंधन, कांग्रेस और बसपा मुख्य रूप से चुनावी मैदान में हैं, जिनमें सेंधमारी करने के लिए कुछ और दल भी हैं जैसे ओवैसी की पार्टी और चंद्रशेखर आजाद की पार्टी। पर मुकाबला मुख्य रूप से भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी गठबंधन में होता नजर आ रहा है। बाजी किसके हाथ लगेगी यह तो चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा।

भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी के गठबंधन, जिसमें पश्चिमी उत्तर प्रदेश का प्रमुख राजनीतिक दल आरएलडी शामिल है, के बीच है; वहीं कांग्रेस और बसपा या तो इन दोनों का गणित बिगाड़ रही हैं या फिर अपनी जीत के रास्ते निकालने में जुटी हैं।

कुछ गुत्थियां ऐसी हैं जिन्हें समझ पाना या सुलझा पाना किसी भी राजनीतिक समीक्षक या दल के लिए बहुत जटिल है। आइए सबसे पहले हम 10 फरवरी को होने वाले पहले चरण के 58 सीटों के गणित को समझने की कोशिश करते हैं।

किसानों, जाटों और दलितों के साथ ही पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुसलमानों की आबादी अच्छी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इस इलाके को यूं तो जाटलैंड के नाम से जाना जाता है लेकिन यहां मुस्लिम और दलितों की आबादी भी काफी अधिक है। अगर यहां धार्मिक ध्रुवीकरण होता है तो भारतीय जनता पार्टी आसानी से अपनी विजय पताका लहरा सकती है जैसे उसने पिछले तीन लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत हासिल कर तमाम राजनीतिक विश्लेषकों को चौंका दिया था।

अगर धार्मिक और जातिगत आंकड़ों पर गौर करें तो यहां 27 फ़ीसदी मुस्लिम, 25 फ़ीसदी दलित, 17 फ़ीसदी जाट, 8 फीसदी राजपूत, 7 फीसदी यादव और 4 फीसदी गुर्जर हैं, लेकिन कुछ सीटें ऐसी हैं जहां या तो मुस्लिम आबादी का बाहुल्य है अथवा जाट बिरादरी वहां अत्यंत प्रभावशाली है।

ऐसे में पश्चिमी उत्तर प्रदेश की अधिकांश सीटों पर जीत का समीकरण या तो जाट-मुस्लिम कॉम्बिनेशन से बनता है या धार्मिक आधार पर वोटों के विभाजन होने पर निर्भर करता है, पर यहां एक और गणित है, जिसे बहुजन समाज पार्टी ने सोशल इंजीनियरिंग नाम दिया था। 25 फीसदी दलित वोटों के साथ मुस्लिम या कुछ अन्य हिंदू जातियों के साथ गणित बिठाकर मायावती प्रदेश में अपना परचम लहरा चुकी हैं।

गौरतलब है कि यहां दलितों की आबादी 25 फीसदी है लेकिन दलितों में भी बसपा के कट्टर समर्थक सिर्फ 12 से 16 फीसदी माने जाते हैं, शेष पिछले चुनावों में भाजपा के साथ खिसक चुके हैं और यह सिलसिला अगर कायम रहता है तो बसपा के अस्तित्व पर ही खतरा हो सकता है। उनके वोट बैंक में सहारनपुर के दलित नेता चंद्रशेखर आजाद की पार्टी भी सेंध लगाने में जुटी हुई है।

ऐसे में राजनीतिक विश्लेषकों ने उसे प्रदेश की चुनावी राजनीति में तीसरे-चौथे नंबर पर धकेल दिया है। असलियत तो चुनाव परिणाम आने पर ही पता चलेगी लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर मुकाबला गठबंधन और भाजपा के बीच ही माना जा रहा है।

कांग्रेस का प्रदर्शन निश्चित तौर पर इस बार बेहतर होगा और कुछ हद तक चौंकाने वाला भी संभव है लेकिन अभी देश की बड़ी पार्टी कांग्रेस अपने नवनिर्माण में जुटी है जिसके परिणाम इन चुनावों में आने वाली राजनीति की दिशा बदलने के संकेत भर दे सकते हैं।

इस तरह प्रत्यक्ष तौर पर फिलहाल भाजपा और गठबंधन के बीच मुकाबला है जिसमें पहले चरण की 58 सीटों पर जाटों का महत्व बढ़ जाता है। यूं तो पश्चिमी यूपी में जाट क़रीब 17 फीसदी हैं लेकिन 45 से 50 सीटों पर जाट वोटर ही जीत-हार तय करते हैं। यहां यह गौरतलब है कि 2014 के लोकसभा चुनावों में 77 फीसदी जाट, 2017 के चुनावों में 39 फीसदी और 2019 के चुनावों में 91 फीसदी जाट भाजपा के साथ गए थे।

हालांकि इन आंकड़ों को 100 फीसदी सच नहीं माना जा सकता क्योंकि यह अनुमान ही है जो विभिन्न एजेंसियों के सर्वे में सामने आता रहा है। अगर इस बार भी ऐसा होता है तो भाजपा को यहां एक बार फिर बंपर जीत मिलेगी। कहा जाता है कि मुजफ्फरनगर में 2013 के दंगों के बाद हुए धार्मिक ध्रुवीकरण में यह इलाका भगवा रंग में रंग गया था और इस बार भी भाजपा 80-20 के फार्मूले को आजमा रही है।

साफतौर पर कानून-व्यवस्था का सवाल हर नागरिक के लिए चिंता का विषय है लेकिन भाजपा का प्रचार इसी मुद्दे पर केंद्रित है। इसे यूं भी कहा जा सकता है कि 20 फीसदी मुस्लिमों के खिलाफ यह धारणा विकसित की जाती रही है कि अल्पसंख्यकों पर अंकुश न रखा गया तो यह बहुसंख्यक आबादी की सुरक्षा और सुकून के लिए खतरा है।

इस तरह बुनियादी समस्याओं को हाइजैक कर चुनावी युद्ध में विजय की रणनीति का यह फार्मूला इस बार कितना कारगर होगा, कहना मुश्किल है। लेकिन उससे पहले यह भी समझने की कोशिश करते हैं कि इन 58 सीटों पर गठबंधन की जीत का फार्मूला क्या है और किस तरह वे इसे अप्लाई कर रहे हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश चौधरी चरण सिंह की कर्मस्थली है जिन्होंने किसानों में राजनीतिक चेतना का संचार किया और उसके सहारे राजनीति के शिखर पुरुष बनने तक की यात्रा तय की। उनकी राजनीति में मुस्लिम और जाट दो प्रमुख स्तंभ थे। यह कॉम्बिनेशन जब तक रहा तब तक कोई दूसरा राजनीतिक दल सेंध नहीं लगा पाया। हालांकि चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजित सिंह के विरासत संभालने के बाद उनका आधार वोटर ही उनसे खिन्न हो गया था जिसमें 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे ने लोकदल को हाशिए पर फेंक दिया।

सांप्रदायिक दंगे ने जाट-मुस्लिम एकता को रेत के किले की तरह दरका दिया। उसके बाद हुए तीन चुनावों में रालोद को बैसाखियां भी नहीं मिलीं और अब एक बार फिर चौधरी चरण सिंह की विरासत संभाल रहे जयंत चौधरी के सामने चुनौती है कि वे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को रोककर एक बार फिर 'किसान धर्म' को स्थापित करें। इसलिए इस बार उन्होंने समाजवादी पार्टी से गठबंधन कर चुनावी दंगल में ताल ठोकी है।

पश्चिमी यूपी के लिए यह कहावत प्रचलित है- जिसके जाट, उसी के ठाठ। पर सवाल है कि इस बार क्या जाट बीजेपी के ठाठ कराएंगे या उसकी खाट खड़ी कर देंगे। नए कृषि कानून के बाद किसानों ने लंबा आंदोलन चलाया जिसमें करीब 700 किसानों ने अपनी जान गंवाई। भले ही केंद्र सरकार ने उन कानूनों को वापस ले लिया हो लेकिन किसानों का गुस्सा अभी शांत नहीं हुआ है।

खास बात यह भी है कि किसानों के आंदोलन में सभी बिरादरी एकजुट हुईं और अरसे बाद एक मंच से सांप्रदायिक सौहार्द के नारे लगे। जाट और मुस्लिमों का एकजुट होने का अर्थ है भाजपा का राजनीतिक नुकसान। इसलिए भाजपा जहां इस खाई को बरकरार रखने और हिंदुओं को चेताने में कोई कसर नहीं छोड़ रही, वहीं सपा-आरएलडी गठबंधन का प्रयास है कि धर्म के आधार पर मतों में कोई विभाजन न हो।

इस बार चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा यह साफतौर पर कहना फिलहाल मर्यादित नहीं होगा लेकिन इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि क़रीब एक साल तक चले किसान आंदोलन की वजह से इस बार जाट बीजेपी का साथ छोड़ दें।

ऐसे में यदि गठबंधन के नेताओं ने कोई सेल्फ गोल नहीं किया तो विधानसभा चुनावों में नल से पानी भी निकल सकता है और साइकल भी दौड़ सकती है। अभी इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि सांप्रदायिक विभाजन के अलावा भाजपा के पास मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए पर्याप्त वजह नहीं है।
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