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Written By अनिरुद्ध जोशी

Shri Krishna 21 July Episode 80 : श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणी हरण और रुक्मी का अहंकार हुआ चूर चूर

Shri Krishna 21 July Episode 80 : श्रीकृष्ण द्वारा रुक्मिणी हरण और रुक्मी का अहंकार हुआ चूर चूर - Shri Krishna on DD National Episode 80
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 21 जुलाई के 80वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 80 ) में जब दुल्ला शिशुपाल, जरासंध, रुक्मी आदि बैठकर चर्चा कर रहे होते हैं तभी वहां पर गुरुदेव शतानंद पथार जाते हैं। सभी उनको प्रणाम करते हैं। गुरुदेव फिर सभी को आशीर्वाद देने की मुद्रा में चारों ओर गुप्तचर की नजरों से देखते हैं तभी उन्हें रुक्मिणी के महल के द्वार पर खड़ी एक दासी नजर आती है वे उसे संकेत से हाथ और गर्दन हिलाते हैं जैसे आशीर्वाद दे रहे हो। दासी यह देखकर प्रसन्न हो जाती है। अब आगे...
 
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
गुरुदेव शतानंद रुक्मिणी के महल में पहुंच जाते हैं। रुक्मिणी उन्हें देखकर कहती हैं गुरु के श्रीचरणों में दासी का प्रणाम। गुरुदेव उन्हें आशीर्वाद देकर कहते हैं कि सुखीभव: सौभाग्यवती भव:। यह सुनकर रुक्मिणी कहती हैं गुरुदेव आपने मुझे सौभाग्यवती भव: का आशीर्वाद दिया इसका अर्थ? तब गुरुदेव कहते हैं- सीधा अर्थ है पुत्री कि उन त्रिलोकीनाथ श्रीद्वारिकाधीश ने हमारी प्रार्थना स्वीकार कर ली है।...यह सुनकर रुक्मणी अति प्रसन्न हो जाती हैं।
 
तब गुरुदेव कहते हैं कि वे स्वयं तुम्हें ले जाने के लिए मेरे साथ आए हैं। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है वे स्वयं आए हैं, कहां हैं वो? गुरुदेव कहते हैं- नगर के बाहर, मैंने अपने नगर को रतक्तपात से बचाने के लिए उन्हें ये सुझाव दिया और प्रर्थना की है कि जब तुम आज शाम को गौरी पूजन के लिए नगर के बाहर स्थित दुर्गा मंदिर में जाओगी तब वहीं से वे अपने रथ में बिठाकर तुम्हें ले जाएं। उन्होंने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर ली है। वे तुम्हें वहीं मंदिर के द्वार पर मिलेंगे। तुम अब देरी न करो, मंदिर जाने के लिए प्रस्थान करो। इससे पहले कि रुक्मी को यादव सेना का पता चले तुम पूजा के बहाने निकल जाओ। यह सुनकर रुक्मिणी अति प्रसन्न हो जाती है।
 
उधर, बारात के ठहरने वाले स्थान पर वर शिशुपाल और अन्य बारातियों को बताया जाता है, जिनका जमकर स्वागत किया जा रहा होता है। तभी वहां पर एक महामंत्री आकर रुक्मी से कहता है राजकुमार! जिसका डर था वही हो गया। यह सुनकर रुक्मी पूछता है कि क्या हुआ? तब वह महामंत्री कहता है कि मेरे गुप्तचरों ने सूचना दी है कि यादवों की सेना हमारे नगर की ओर वेग से आ रही है। थोड़ी ही देर में वे पहुंचने वाले हैं। कृष्ण और बलराम दोनों के रथ साथ-साथ आ रहे हैं। यह सुनकर रुक्मी चौंक जाता है और कहता है अपनी सेना को नगर के चारों ओर फैला दो। राजमहल के चारों ओर और विशेष रूप से राजकुमारी के महल के चारों ओर कड़ा पहरा लगा दो जाओ। महामंत्री कहता है- जी राजकुमार।
 
फिर रुक्मी एक महिला से कहता है- रुपमति तुरंत जाकर महारानी से कहो कि रुक्मिणी को तुरंत तैयार करके विवाह मंडप में लाया जाए। पुरोहितजी प्रतीक्षा कर कर रहे हैं और हां मुझे आकर तुरंत ये समाचार दो कि राजकुमारी क्या कर रही है।..वह महिला कहती है जी। 
 
उधर, रुक्मिणी अपनी दासियों के साथ नगर के बाहर गौरी मंदिर पहुंच जाती है और आरती एवं पूजा के बहाने श्रीकृष्ण के आने का इंतजार करती हैं।...इधर श्रीकृष्‍ण को बलराम के साथ रथ पर सवार कुंडलपुर की ओर आते हुए बताया जाता है।
 
उधर, रुक्मी यह दुखद समाचार शिशुपाल को सुनाता है कि जिस बात की आशंका थी वही हो गई। शिशुपाल कहता है कि क्या हुआ मित्र? रुक्मी कहता है कि कृष्‍ण और बलराम अपनी सेना लेकर कुंडनीपुर पहुंच गए हैं। यह सुनकर शिशुपाल क्रोधित हो जाता है और कहता है तुम चिंता न करो मित्र आज उनकी मृत्यु मेरे हाथों निश्चित है। यह सुनकर रुक्मी कहता है कि तुम अपनी सेना और महाराज शल्य की सेना को भी तैयार कर लो। हम यादव सेना को नगर के बाहर ही रोक देंगे। तुम अपनी सेना को आज्ञा दो और मैं राजकुमारी रुक्मिणी की सुरक्षा की व्यवस्था करता हूं। यह सुनकर शिशुपाल कहता है ठीक है मित्र ठीक है।
 
फिर शिशुपाल यह समाचार जरासंध को सुनाता है तो जरासंध भड़क जाता है और शल्य से कहता है चलिये महाराज शल्य उन्हें हम रास्ते में ही रोकते हैं। फिर सभी वहां से चले जाते हैं।
 
उधर, रुक्मी को एक दासी रुपमति रोकती है राजकुमारजी राजकुमारजी..यह सुनकर रुक्मी कहता है क्या राजकुमारी तैयार हो गई? यह सुनकर दासी कहती हैं तैयार तो हो गई परंतु...यह सुनकर रुक्मी कहता है परंतु क्या? मैंने कहा था कि तैयार होते ही उन्हें विवाह मंडप में लाया जाए।...दासी कहती हैं परंतु वह महल में नहीं हैं। यह सुनकर रुक्मी भड़का जाता है तब वह दासी कहती है कि राजकुल की रीति के अनुसार वह भवानी मंदिर में गौरी पूजा के लिए गई है। यह सुनकर राजकुमार रुक्मी चीखकर कहता है- गौरी पूजा के लिए वह भी नगर के बाहर। 
 
उधर, रुक्मिणी भवानी मंदिर में श्रीकृष्‍ण के इंतजार में माता की आराधना कर रही होती है तो दूसरी ओर श्रीकृष्ण को रथ पर सवार आते हुए बताया जाता है।
 
इधर, रुक्मी अपनी मां पर भड़क कर कहता है कि आपने उसे नगर के बाहर अकेले जाने की आज्ञा कैसे दे दी? यह सुनकर उनकी माता कहती है- रुक्मी वह अकेली नहीं गई है। उसकी दासियां और उसके अंगरक्षक सैनिक भी उसके साथ गए हैं। यह सुनकर रुक्मी कहता है कि मुठ्ठीभर अंगरक्षक सेना के साथ क्या होता है। आप नहीं जानती कि कृष्ण अपनी यादव सेना के साथ कुंडलपुर पहुंच गया है। ये रुक्मिणी की रक्षा का प्रश्न है।
 
उधर, जरासंध, शल्य और शिशुपाल रथ पर सवार होकर युद्ध के लिए निकल ही रहे होते हैं तो रुक्मी रथ पर सवार होकर आता है और कहता है शिशुपाल रुको, पहले हमें भवानी मंदिर चलना होगा। शिशुपाल पूछता है क्यों? तब रुक्मी कहता है वह मूर्ख रुक्मिणी भवानी मंदिर चली गई है। यह सुनकर शल्य और जरासंध चौंक जाते हैं। यह सुनकर शिशुपाल कहता है वो मूर्ख है या इसमें कोई चाल है? तब रुक्मी कहता है कुछ भी हो सकता है। ये बातें करने का समय नहीं है चलो।...तभी सभी वहां से भवानी मंदिर की ओर सेना सहित चल पड़ते हैं।
 
इधर, रुक्मिणी श्रीकृष्ण के आने का बेसब्री से इंतजार करती हैं और उधर श्रीकृष्ण बलराम सहित कुंडलपुर की सीमा में प्रवेश कर जाते हैं तभी बलराम कहते हैं रुको, फिर वे श्रीकृष्ण से कहते हैं- कन्हैया लगता है कि उन्हें पता चल गया है। वो देखो शिशुपाल आदि की सेना आ रही है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि साथ में शल्य और रुक्मी भी है। तब बलराम कहते हैं कि अब एक ही तरीका है कन्हैया कि मैं इन्हें रोकता हूं और तुम निकल जाओ और मंदिर जाकर रुक्मिणी को लेकर सीधे द्वारिका के लिए प्रस्थान करो। मेरी प्रतीक्षा ना करना। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- दाऊ भैया परंतु आपको अकेले छोड़कर मैं चला जाऊं? तब बलरामजी कहते हैं- कन्हैया क्या तुम्हें अपने दाऊ भैया की शक्ति पर भरोसा नहीं रहा? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं- भैया ये बात नहीं है। यह सुनकर बलराम कहते हैं कि ये बात नहीं है तो बातों में समय मत गंवाओ, जाओ ये मेरी आज्ञा है। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं जी..दारुक रथ मोड़ो। दारुक रथ मोड़कर श्रीकृष्ण को दूसरी ओर ले जाता है, तब बलराम अक्रूरजी से कहते हैं कि अपनी सेना को शत्रु के सामने ले चलो। दोनों सेनाएं एक दूसरे की ओर तेजी से बढ़ती हैं और फिर दोनों सेनाओं में युद्ध प्रारंभ हो जाता है।
 
उधर, रुक्मिणी माता भवानी की अराधाना करती है और श्रीकृष्ण को मंदिर की ओर बढ़ते हुए दिखाया जाता है। रुक्मिणी अपनी पूजा समाप्त करके मंदिर के बाहर बेसब्री से श्रीकृष्ण का इंतजार करती है। उधर, श्रीकृष्ण दारुक से कहते हैं कि रथ को और तीव्र गति से चलाओ।
 
इधर, युद्ध में शिशुपाल बलराम को देखकर पूछता है कृष्ण कहां है वो सामने क्यों नहीं आ रहा? कृष्ण की सुरक्षा करने वाले अब तेरी सुरक्षा कौन करता है मैं देखता हूं। बलराम कहते हैं अरे! पहले मुझसे तो दो-दो हाथ कर ले फिर देखता हूं कि किसकी सुरक्षा कौन करता है। फिर दोनों में धनुष युद्ध होता है। 
 
उधर, रुक्मिणी विचलित होकर कहती है- मैनावती कोई दिखाई नहीं दे रहा। मुझसे कोई भूल हुई है क्या? प्रभु मुझसे रुष्ठ हो गए हैं क्या? तब मैनावती कहती हैं- धीरज रखिये राजकुमारीजी, प्रभु सर्वदा अपने वचन के पक्के हैं। जो उन्हें सच्चे हृदय से प्रेम करते हैं उससे वे कभी विमुख नहीं होते हैं। आप तनिक धीरज रखिये। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है अब धीरज का समय कहां रह गया है मैनावती। मैंने समझा था कि वो आरती के बीच ही मंदिर में आ जाएंगे। पर लगता है कि मुझसे कोई भूल हुई है।
 
तभी मैनावती देखती है कि प्रभु रथ पर सवार होकर आ रहे हैं तो वह प्रसन्न होकर कहती है राजकुमारीजी देखिये वे आ गए हैं। रुक्मिणी भी उन्हें देखकर प्रसन्न हो जाती हैं। हाथ में तलवार लिए प्रभु श्रीकृष्ण सैनिकों के बीच से निकलकर अपना रथ रुक्मिणी के सामने रोक देते हैं और फिर अपना हाथ बढ़ाकर कहते हैं- आओ प्रिये मैं तुम्हें लेने आया हूं...हां। रुक्मिणी एक हाथ में फूल पकड़े दूसरे हाथ से उनका हाथ पकड़कर रथ पर चढ़ जाती है। रथ पर चढ़कर श्रीकृष्ण भवानी के मंदिर की ओर देखकर हाथ जोड़कर कहते हैं मां दुर्गे हमें आशीर्वाद दो। दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करते हैं तब श्रीकृष्ण कहते हैं दारुक रथ आगे बढ़ाओ। 
 
यह देखकर रुक्मिणी के अंगरक्षकों का सेनापति कहता है पीछा करो इनका। 
 
उधर, युद्ध में बलराम हाहाकर मचा देते हैं। इस बीच रुक्मी कहता है शिशुपाल कृष्‍ण कहीं दिखाई नहीं दे रहा। तब शिशुपाल कहता है अरे चोर के पांव ही कहां होते हैं। अवश्य ही सेना के मध्यभाग में खड़ा होगा किसी सुरक्षित स्थान पर। तब रुक्मी कहता है- अरे आज तो उसकी सुरक्षा करने वाले स्वयं देवराज इंद्र ही क्यों न आ जाए। मेरे तलवार की धार उसका रक्तपान करने की मेरी म्यान में जाएगी। इस पर शिशुपाल कहता है- नहीं मित्र वह मेरा आखेट है तुम केवल मुझे ये दिखा दो कि वह है कहां?
 
तभी वहां पर एक सैनिक शिशुपाल को आकर बताता है कि राजकुमार रुक्मिणी का हरण हो गया है। श्रीकृष्ण उन्हें रथ में बिठाकर ले गए हैं। यह सुनकर शिशुपाल कहता है- क्या कहा हरण हो गया है? कृष्ण ने रुक्मिणी का हरण कर लिया? इस पर सैनिक कहता है जी, वो उन्हें पश्‍चिम दिशा की ओर लेकर गए हैं। यह सुनकर रुक्मी कहता है कि शिशुपाल मैं शपथ लेता हूं कि जब तक में कृष्ण को मारकर रुक्मिणी को नहीं ले आता तब तक मैं अपनी राजधानी इस कुंडलपुर को अपना मुंह नहीं दिखाऊंगा। फिर रुक्मी सारथी से कहता है चलो...
 
इधर, श्रीकृष्ण और रुक्मणी रथ पर सवार होकर तेज गति से द्वारिका की ओर बढ़ रहे होते हैं। श्रीकृष्ण मुस्कुरा रहे होते हैं जबकि रुक्मिणी के चेहरे पर प्रसन्नता के साथ भय भी रहता है। उनके पीछे रुक्मी का रथ भी तेज गति से आ रहा होता है। 
 
उधर, युद्ध में बलराम अपना हल चलाकर सेना का संहार करने लग जाते हैं। यह देखकर शिशुपाल भयभित हो जाता है।
 
इधर, श्रीकृष्ण और रुक्मणी रथ तेजी से आगे बढ़ रहा होता है जिनका रुक्मी पीछा कर रहा होता है। एक जगह श्रीकृष्ण और रुक्मिणी पीछे मुड़कर देखते हैं कि रुक्मी आ रहा है। फिर रुक्मी अपना रथ समानांतर लाकर चीखता है- रुक जा कृष्ण, रुक जा। ठहरजा दुष्ट, ठहरजा।....यह सुनकर श्रीकृष्ण दारुक से कहते हैं- रुको दारुक रथ रोक दो। रथ रुक जाता है।
 
रुक्मी भी रथ रुकवाकर कहता है ठहरजा, ठहरजा दुष्ट, ठहरजा। उसके क्रोध को देखकर रुक्मिणी श्रीकृष्ण का हाथ पकड़ लेती है। श्रीकृष्ण मुस्कुराते रहते हैं। रुक्मी कहता है तेरा काल तेरे सामने खड़ा है। धृष्टता की भी कोई सीमा होती है। एक अबला नारी को तू हरण करके मुस्कुरा रहा है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं क्योंकि यह मुस्कुराने का ही समय है। अभी-अभी हमारा पाणिग्रहण जो हुआ है। यह सुनकर रुक्मी कहता है कैसा पाणिग्रहण, किसका पाणिग्रहण? ये शास्त्रोक्त नहीं है। तुम अपहर्ता हो, तुमने अपहरण किया है।
 
इस पर, श्रीकृष्ण हंसते हुए कहते हैं- अपहरण तो उसे कहते हैं जो किसी की इच्छा के विपरित हो। तब यह सुनकर रुक्मी कहता है कि हम और हमारे परिवार के किसी भी सदस्य की यह इच्छा नहीं थी कि रुक्मिणी का विवाह तुम्हारे साथ किया जाए। यह सुनकर श्रीकृष्ण रुक्मिणी की ओर देखकर कहते हैं- किसी की नहीं थी पर एक की तो थी। इस पर रुक्मी कहता है- पर तुम्हें ये ज्ञात था कि रुक्मिणी शिशुपाल की वाग्दत्ता है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि और तुम्हें भी यह ज्ञात था कि तुम्हारी बहन मुझसे प्रेम करती थी शिशुपाल से नहीं। तुम बलात उसके प्रेम की हत्या करना चाहते थे। ये मत भूलो की नारी जिससे विवाह करना चाहती है इस बात का अधिकार शास्त्रों ने केवल नारी को ही दिया है।...दोनों में देर तक वाद-विवाद होता है। तब श्रीकृष्ण कहते हैं रुक्मी अपनी जिव्हा को संतुलित करो वर्ना जो बाते शास्त्र तय नहीं करते हैं, उन्हें शस्त्र करते हैं। 
 
यह सुनकर रुक्मी कहता है दंभी कृष्ण द्वारिका यहां से बहुत दूर है और यम का द्वार तुम्हारे सर पर है। फिर दोनों में धनुष युद्ध होता है। धनुष युद्ध में हारने के बाद रुक्मी गदा युद्ध करता है। श्रीकृष्ण 
उसे उसमें भी हरा देते हैं और फिर उसकी छाती पर पैर रखकर सुदर्शनचक्र का आह्‍वान करते हैं। तक्षण ही उनकी अंगुली पर चक्र आ जाता है। यह देखकर रुक्मी घबरा जाता है। रुक्मिणी भी घबराते हुए रथ से नीचे उतरकर दौड़कर आती है और श्रीकृष्ण का हाथ पकड़कर कहती हैं- नहीं स्वामी, ऐसा ना करो नाथ..ऐसा ना करो।
 
तब श्रीकृष्ण कहते हैं तुम इसे नहीं जानती देवी..ये इसी योग्य है। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- मगर एक बहन के सामने उसके भाई का वध हो तो कोई बहन कैसे देख सकती है? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि और ये धूर्त तुम्हारे ही सामने तुम्हें वैधव्य की सौगात दे रहा था ऐसा तुम देख सकती थी? तब रुक्मिणी कहती हैं- ऐसा ना कहो कन्हैया। मैं तुम्हारी आलौकिक शक्ति से परिचित थी इसीलिए मैं चुप थी। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- भद्रे! दुष्टों को दंड देने के लिए मैं इस संसार में विचरण कर रहा हूं और इसकी दुष्टता प्रमाणित हो चुकी है। 
 
तब रुक्मणी कहती है कुछ भी हो नाथ, मैंने मनसा, वाचा और कर्मणा से आपका वरण किया है। क्या आप मेरी पहली विनय को ही ठुकरा देंगे? यह सुनकर श्रीकृष्ण का क्रोध शांत हो जाता है और वे सुदर्शन से कहते हैं जाओ सुदर्शन इस समय के लिए तुम्हारा कार्य पूर्ण हुआ। सुदर्शन चला जाता है।
 
फिर श्रीकृष्ण कहते हैं- देवी मैं तुम्हें अपनी पत्नी से अधिक प्रेमिका मानता हूं और प्रेमिका के आदेश को कोई ठुकरा नहीं सकता। फिर वे रुक्मी की छाती से अपना पैर हटाकर कहते हैं- जाओ रुक्मी मैंने तुम्हें जीवन दान दिया। अगर तुम वीर हो तो अपनी बहन के इस अहसान को कभी मत भूलना और जाओ अपने पिता से कहना है कि आज सारे आर्यावर्त में यादवों से लोहा लेने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता। फिर वे रुक्मिणी से कहते हैं- चलो देवी। दोनों रथ पर सवार होकर चले जाते हैं। रुक्मी पराजित भाव से उन्हें पीछे से देखता ही रह जाता है। जय श्रीकृष्णा ।
 
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