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Last Updated : बुधवार, 25 सितम्बर 2019 (13:43 IST)

पितरों के अतृप्त रहने के 5 कारण, जानिए रहस्यमयी ज्ञान

पितरों के अतृप्त रहने के 5 कारण, जानिए रहस्यमयी ज्ञान | Pitru Paksha
कर्मों के अनुसार किसी भी आत्मा को गति मिलती है। देह छोड़ गए लोगों में से बहुत से अतृप्त होते हैं। कहते हैं कि अतृप्त आत्मा को सद्गति नहीं मिलती है और वह भटकता रहता है। जानिए अतृप्त रहने के 5 कारण।
 

 
1.इच्छाओं का रह जाना : व्यक्ति किसी भी उम्र या अवस्था में मरा हो उसकी इच्छाएं यदि बलवती है तो वह अपनी इच्छाओं को लेकर मृत्यु के बाद भी दुखी ही रहेगा और मुक्त नहीं हो पाएगा। यही अतृप्तता है। यह कोई नहीं समझता है कि इच्‍छाओं का कोई अंत नहीं। जो व्यक्ति भूखा, प्यासा, संभोगसुख से विरक्त, राग, क्रोध, द्वेष, लोभ, वासना आदि इच्छाएं और भावनाएं लेकर मरा है अवश्य ही वह अतृप्त होकर भटकता रहेगा। सभी को ययाति की कथा पढ़नी चाहिए या गीता का छठा व सातवां अध्याय पढ़ना चाहिए।

 
2.अकाल मृत्यु : अकाल का अर्थ होता है असमय मर जाना। पूर्ण उम्र जिए बगैर मर जाना। अर्थात जिन्होंने आत्महत्या की है या जो किसी बीमारी या दुर्घटना में मारा गया है। वेदों के अनुसार आत्मघाती मनुष्य मृत्यु के बाद अज्ञान और अंधकार से परिपूर्ण, सूर्य के प्रकाश से हीन, असूर्य नामक लोक को गमन कहते हैं और तब तक अतृत होकर भटकते हैं जब तक की उनके जीवन का चक्र पूर्ण नहीं हो जाता।
3.बुरे लोग : हर कोई अपनी जिंदगी में अनजाने में अपराध या बुरे कर्म करता रहता है। लेकिन वे लोग सचमुच ही बुरे हैं जो जानबुझकर किसी की हत्या करते, बलात्कार करते, हर समय किसी न किसी का अहित करते रहते हैं या किसी भी निर्दोष मनुष्‍य या प्राणियों को सताते रहते हैं। चोर, डकैत, अपराधी, धूर्त, क्रोधी, नशेड़ी और कामी आदि लोग मरने के बाद बहुत ज्यादा दुख और संकट में रहते हैं।

 
4.ज्ञान शून्य लोग : धर्म को नहीं जानना ही सबसे बड़ा अधर्म व अतृप्तता का कारण है। जिन्होंने उपनिषद और गीता का अध्ययन अच्छे से नहीं किया वे ज्ञान शून्य और बेहोशी में जीने वाले लोग अतृप्त होकर ही मरते हैं क्योंकि वे अपने मन से आत्मा, ईश्‍वर या ब्रह्मांड के संबंध में धारणाएं बना लेते हैं। ऐसे लोगों की भी कर्म गति तय करती है कि वे किस तरह का जन्म लेंगे। लेकिन इनमें जो अज्ञानी भक्त हैं वे बचे रहते हैं।

 
5.गलत धारणा या मान्यता : शास्त्र कहते हैं कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप क्या सोचते, क्या समझते, क्या बोलते और क्या सुनते हैं। फर्क इससे पड़ता है कि आप क्या करते, क्या मानते और क्या धारणा पालते हैं। क्योंकि यह चित्त का हिस्सा बन जाती है जो कि आपकी गति तय करती है। यदि आपने यह पक्का मान रखा है कि मरने के बाद व्यक्ति को चीरनिंद्रा में सोना है तो आपके साथ ऐसा ही होगा। हमारी चित्त की गति प्रारब्ध और वर्तमान के कर्मों पर आधारित होती है।
अंत में ज्ञान की बात : तीन अवस्थाएं हैं- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। उक्त 3 तरह की अवस्थाओं के अलावा आपने और किसी प्रकार की अवस्था को नहीं जाना है (ध्यान से चौथी अवस्था तुरिया प्राप्त की जाती है)। मरने के बाद आप सुषुप्ति से भी गहरी अवस्था में पहुंच जाएंगे फिर कुछ समय बाद स्वप्न शुरु होंगे और जब तक नया जन्म नहीं मिलता है तब तक स्वप्न चलता रहेगा। लेकिन यदि आप जाग्रत हो गए तो समझ पाएंगे कि आप मर गए। तब समस्याएं प्रारंभ होगी।
 
 
जगत 3 स्तरों वाला है- एक स्थूल जगत जिसकी अनुभूति जाग्रत अवस्था में होती है। दूसरा, सूक्ष्म जगत जिसका स्वप्न में अनुभव करते हैं तथा तीसरा, कारण जगत जिसकी अनुभूति सुषुप्ति में होती है।
 
आत्मा के तीन स्वरुप माने गए हैं- जीवात्मा, प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा। जो भौतिक शरीर में वास करती है उसे जीवात्मा कहते हैं। जब इस जीवात्मा का वासना और कामनामय शरीर में निवास होता है तब उसे प्रेतात्मा कहते हैं। यह आत्मा जब मरने के बाद सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेश करता है, तब उसे सूक्ष्मात्मा कहते हैं। मरने के पहले भी इस शरीर में प्रवेश किया जा सकता है।
 
 
पं. श्रीराम शर्मा 'आचार्य' कहते हैं कि मरने के उपरांत नया जन्म मिलने से पूर्व जीवधारी को कुछ समय सूक्ष्म शरीरों में रहना पड़ता है। उनमें से जो अशांत होते हैं, उन्हें प्रेत और जो निर्मल होते हैं उन्हें पितर प्रकृति का निस्पृह उदारचेता, सहज सेवा, सहायता में रुचि लेते हुए देखा गया है।
 
पंडितजी का मानना है कि मरणोपरांत की थकान दूर करने के उपरांत संचित संस्कारों के अनुरूप उन्हें धारण करने के लिए उपयुक्त वातावरण तलाशना पड़ता है, इसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वह समय भी सूक्ष्म शरीर में रहते हुए ही व्यतीत करना पड़ता है। ऐसी आत्माएं अपने मित्रों, शत्रुओं, परिवारीजनों एवं परिचितों के मध्य ही अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं। प्रेतों की अशांति संबद्ध लोगों को भी हैरान करती हैं।
 
 
ऐसे व्यक्तियों की आत्मा को तृप्त करने के लिए श्राद्ध और तर्पण किया जाता है। मान्यता है कि जो लोग अपने स्वजनों और पितरों का श्राद्ध और तर्पण नहीं करते वे उन अतृप्त आत्माओं द्वारा परेशान होते हैं।