गुरुवार, 21 नवंबर 2024
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Written By अनिरुद्ध जोशी

किसके पास था कौन-सा दिव्य धनुष, जानिए

किसके पास था कौन-सा दिव्य धनुष, जानिए - Ancient Indian divine bow
विश्व के प्राचीनतम साहित्य संहिता और अरण्य ग्रंथों में इंद्र के वज्र और धनुष-बाण का उल्लेख मिलता है। भारत में धनुष-बाण का सबसे ज्यादा महत्व था इसीलिए विद्या के संबंध में एक उपवेद धनुर्वेद है। नीतिप्रकाशिका में मुक्त वर्ग के अंतर्गत 12 प्रकार के शस्त्रों का वर्णन है जिनमें धनुष का स्थान सर्वोपरि माना गया है।
 
भारत में महाभारत काल और उससे पूर्व के काल में एक से एक बढ़कर धनुर्धर हुए हैं। एक ऐसा भी धनुर्धर था जिसको लेकर द्रोणाचार्य चिंतित हो गए थे और एक ऐसा भी धनुर्धर था, जो अपने एक ही बाण से दुश्मन सेना के रथ को कई गज दूर फेंक देता था। धनुर्धर तो बहुत हुए हैं, लेकिन एक ऐसा भी धनुर्धर था जिसकी विद्या से भगवान कृष्ण भी सतर्क हो गए थे। फिर भी इन इन सभी के तीर में था दम लेकिन सर्वश्रेष्ठ तो सर्वश्रेष्ठ ही होता है।
 
 
आखिर भारत में किस तरह धनुष-बाण की शुरुआत हुई और किस तरह एक से एक चमत्कारिक धनुष- बाण के आविष्कार हुए, यह एक रहस्य ही है। महाभारत काल के सभी योद्धाओं के पास विशेष प्रकार के धनुष हुआ करते थे और इनके धनुष-बाण के नाम भी होते हैं। हर एक धनुष के बाण की अपनी एक अलग ही शक्ति होती थी। आओ जानते हैं ऐसे ही 10 धनुष और बाणों के बारे में।
 
अगले पन्ने पर पहला धनुष और बाण...
 

पिनाक (Pinaka) : यह सबसे शक्तिशाली धनुष था। संपूर्ण धर्म, योग और विद्याओं की शुरुआत भगवान शंकर से होती है और उसका अंत भी उन्हीं पर होता है। भगवान शंकर ने इस धनुष से त्रिपुरासुर को मारा था। त्रिपुरासुर अर्थात तीन महाशक्तिशाली और ब्रह्मा से अमरता का वरदान प्राप्त असुर।
 
शिव ने जिस धनुष को बनाया था उसकी टंकार से ही बादल फट जाते थे और पर्वत हिलने लगते थे। ऐसा लगता था मानो भूकंप आ गया हो। यह धनुष बहुत ही शक्तिशाली था। इसी के एक तीर से त्रिपुरासुर की तीनों नगरियों को ध्वस्त कर दिया गया था। इस धनुष का नाम पिनाक था। देवी और देवताओं के काल की समाप्ति के बाद इस धनुष को देवराज इन्द्र को सौंप दिया गया था।
 
उल्लेखनीय है कि राजा दक्ष के यज्ञ में यज्ञ का भाग शिव को नहीं देने के कारण भगवान शंकर बहुत क्रोधित हो गए थे और उन्होंने सभी देवताओं को अपने पिनाक धनुष से नष्ट करने की ठानी। एक टंकार से धरती का वातावरण भयानक हो गया। बड़ी मुश्किल से उनका क्रोध शांत किया गया, तब उन्होंने यह धनुष देवताओं को दे दिया।
 
देवताओं ने राजा जनक के पूर्वज देवराज इन्द्र को दे दिया। राजा जनक के पूर्वजों में निमि के ज्येष्ठ पुत्र देवराज थे। शिव-धनुष उन्हीं की धरोहरस्वरूप राजा जनक के पास सुरक्षित था। इस धनुष को भगवान शंकर ने स्वयं अपने हाथों से बनाया था। उनके इस विशालकाय धनुष को कोई भी उठाने की क्षमता नहीं रखता था, लेकिन भगवान राम ने इसे उठाकर इसकी प्रत्यंचा चढ़ाई और इसे एक झटके में तोड़ दिया।
 
अगले पन्ने पर दूसरा धनुष...
 

कोदंड (Kodanda) : एक बार समुद्र पार करने का जब कोई मार्ग नहीं समझ में आया तो भगवान श्रीराम ने समुद्र को अपने तीर से सुखाने की सोची और उन्होंने तरकश से अपना तीर निकाला ही था और प्रत्यंचा पर चढ़ाया ही था कि समुद्र के देवता प्रकट हो गए और उनसे प्रार्थना करने लगे थे। भगवान श्रीराम को सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माना जाता है। हालांकि उन्होंने अपने धनुष और बाण का उपयोग बहुत ‍मुश्किल वक्त में ही किया।
 
देखि राम रिपु दल चलि आवा। बिहसी कठिन कोदण्ड चढ़ावा।।
अर्थात शत्रुओं की सेना को निकट आते देखकर श्रीरामचंद्रजी ने हंसकर कठिन धनुष कोदंड को चढ़ाया। 
 
बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि भगवान राम के धनुष का नाम कोदंड था इसीलिए प्रभु श्रीराम को कोदंड कहा जाता था। 'कोदंड' का अर्थ होता है बांस से निर्मित। कोदंड एक चमत्कारिक धनुष था जिसे हर कोई धारण नहीं कर सकता था। कोदंड नाम से भिलाई में एक राम मंदिर भी है जिसे 'कोदंड रामालयम मंदिर' कहा जाता है। भगवान श्रीराम दंडकारण्य में 10 वर्ष तक भील और आदिवासियों के बीच रहे थे।
 
कोदंड एक ऐसा धनुष था जिसका छोड़ा गया बाण लक्ष्य को भेदकर ही वापस आता था। एक बार की बात है कि देवराज इन्द्र के पुत्र जयंत ने श्रीराम की शक्ति को चुनौती देने के उद्देश्य से अहंकारवश कौवे का रूप धारण किया व सीताजी को पैर में चोंच मारकर लहू बहाकर भागने लगा। 
 
तुलसीदासजी लिखते हैं कि जैसे मंदबुद्धि चींटी समुद्र की थाह पाना चाहती हो उसी प्रकार से उसका अहंकार बढ़ गया था और इस अहंकार के कारण वह-
 
।।सीता चरण चोंच हतिभागा। मूढ़ मंद मति कारन कागा।। 
।।चला रुधिर रघुनायक जाना। सीक धनुष सायक संधाना।।
 
वह मूढ़ मंदबुद्धि जयंत कौवे के रूप में सीताजी के चरणों में चोंच मारकर भाग गया। जब रक्त बह चला तो रघुनाथजी ने जाना और धनुष पर तीर चढ़ाकर संधान किया। अब तो जयंत जान बचाने के लिए भागने लगा। वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्र के पास गया, पर इन्द्र ने भी उसे श्रीराम का विरोधी जानकर अपने पास नहीं रखा। तब उसके हृदय में निराशा से भय उत्पन्न हो गया और वह भयभीत होकर भागता फिरा, लेकिन किसी ने भी उसको शरण नहीं दी, क्योंकि रामजी के द्रोही को कौन हाथ लगाए? जब नारदजी ने जयंत को भयभीत और व्याकुल देखा तो उन्होंने कहा कि अब तो तुम्हें प्रभु श्रीराम ही बचा सकते हैं। उन्हीं की शरण में जाओ। तब जयंत ने पुकारकर कहा- 'हे शरणागत के हितकारी, मेरी रक्षा कीजिए प्रभु श्रीराम।'
 
अगले पन्ने पर तीसरा धनुष...
 

शारंग (sarang) : भगवान श्रीकृष्ण सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर भी थे यह बात तब पता चली, जब उन्होंने लक्ष्मणा को प्राप्त करने के लिए स्वयंवर की धनुष प्रतियोगिता में भाग लिया था। इस प्रतियोगिता में कर्ण, अर्जुन और अन्य कई सर्वश्रेष्ठ धनुर्धरों ने भाग लिया था। 
द्रौपदी स्वयंवर से कहीं अधिक कठिन थी लक्ष्मणा स्वयंवर की प्रतियोगिता। भगवान श्रीकृष्ण ने सभी धनुर्धरों को पछाड़कर लक्ष्मणा से विवाह किया था। हालांकि लक्ष्मणा पहले से ही श्रीकृष्ण को अपना पति मान चुकी थी इसीलिए श्रीकृष्ण को इस प्रतियोगिता में भाग लेना पड़ा। श्रीकृष्ण के धनुष का नाम 'शारंग' था। 
 
शारंग का अर्थ होता है रंगा हुआ, रंगदार, सभी रंगोंवाला और सुंदर। कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण का यह धनुष सींग से बना हुआ था। हालांकि कुछ मानते हैं कि यह वही सारंग है जिसे कण्व की तपस्यास्थली के बांस से बनाया गया था।
 
अगले पन्ने पर चौथा धनुष...
 

गाण्डीव (gandiva) : पांच पांडवों में से एक अर्जुन की धनुष विद्या भी जगप्रसिद्ध थी। गुरु द्रोण के श्रेष्ठ शिष्यों में से एक थे अर्जुन। द्रोण ने अर्जुन को धनुष सिखाते वक्त वचन दिया था कि तुमसे श्रेष्ठ इस संसार में कोई धनुर्धर नहीं होगा। अर्जुन के धनुष की टंकार से पूरा युद्ध क्षेत्र गूंज उठता था। रथ पर सवार कृष्ण और अर्जुन को देखने के लिए देवता भी स्वर्ग से उतर गए थे। अर्जुन के धनुष का नाम गाण्डीव था।
 
कहते हैं कि कण्व ऋषि कठोर तप कर रहे थे। तपस्या के दौरान उनका शरीर दीमक द्वारा बांबी बना दिया गया था। बांबी और उसके आसपास की मिट्टी के ढेर पर सुंदर गठीले बांस उग आए थे। जब कण्व ऋषि की तपस्या पूर्ण हुई, तब तब ब्रह्माजी प्रकट हुए। उन्होंने उन्हें अनेक वरदान दिए और जब जाने लगे तो ध्यान आया कि कण्व की मूर्धा पर उगे हुए बांस कोई सामान्य नहीं हो सकते तथा इसका सदुपयोग करना चाहिए। 
 
तब ब्रह्माजी ने उसे काटकर विश्वकर्मा को दे दिया और विश्वकर्मा ने उससे 3 धनुष बनाए- 1. पिनाक, शार्ङग और गाण्डीव। इन तीनों धनुषों को ब्रह्माजी ने भगवान शंकर को समर्पित कर दिया। इसे भगवान शंकर ने इन्द्र को दे दिया। इस तरह इंद्र के पास पिनाक धनुष फिर परशुराम और फिर बाद में राजा जनक के पास पहुंच गया लेकिन गा‍ण्डीव वरुणदेव के पास पहुंच गया। वरुणदेव से यह धनुष अग्निदेव के पास और ‍अग्निदेव से यह धनुष अर्जुन ने ले लिया था।
 
अगले पन्ने पर पांचवां धनुष...
 

विजय : वैसे तो महाभारत काल में सैकड़ों योद्धा हुए हैं, लेकिन कहते हैं कि युद्ध में कर्ण जैसा कोई धनुर्धर नहीं था। कवच और कुंडल नहीं उतरवाते तो कर्ण को मारना असंभव था। कर्ण के अर्जुन और एकलव्य से श्रेष्ठ धनुर्धर होने का प्रमाण यह है कि कर्ण के तीर में इतनी ताकत थी कि जब वे तीर चलाते थे और उनका तीर अर्जुन के रथ पर लग जाता था तो रथ पीछे कुछ दूरी तक खिसक जाता था। कृष्ण अर्जुन से कहते थे कि जिस रथ पर मैं और हनुमान विराजमान हैं उसके इस तरह पीछे धकेले जाने से पता चलता है कि कर्ण की धनुर्विद्या में बहुत बल है।
कर्ण के धनुष का नाम विजय था। भगवान परशुराम ने कर्ण को अपना विजय नामक धनुष प्रदान किया था और उसे ये आशीर्वाद दिया था कि तुम्हारी अमिट प्रसिद्धि रहेगी। विजय एक ऐसा धनुष था कि किसी भी प्रकार के अस्त्र या शस्त्र से खंडित नहीं हो सकता था। इससे तीर छुटते ही भयानक ध्वनि उत्पन्न होती थी।
 
अगले पन्ने पर छठा धनुष...
 

शार्ङग : यह धनुष भगवान विष्णु के पास था। इस धनुष की उत्पत्ति का जिक्र हम ऊपर कर आए हैं। इसके अलावा अजगव और वैष्णव नामक धनुष भी दिव्य थे। कौटिल्य ने 4 प्रकार के धनुषों का वर्णन किया है- 1. पनई से निर्मित कार्मुक, 2. बांस से निर्मित कोदंड, 3. डार्नवुड का बना द्रुण और 4. हड्डी या सींग से बना धनुष।
vishnu
बाण को धनुष द्वारा चलाया जाता है। जिसमें बाण रखा जाता है उसे तुणीक कहा जाता है, ‍जो पीछे कंधे पर बंधा होता है जबकि धनुष को कंधे पर धारण करते हैं।
 
परशुराम इस धरती पर ऐसे महापुरुष हुए हैं, जो पूर्ण रूप से धनुर्विद्या में पारंगत थे और जिनकी जोड़ का कोई दूसरा नहीं था। पितामह भीष्म, द्रोणाचार्य और खुद कर्ण ने भी परशुराम से ही धनुर्विद्या की शिक्षा ली थी। 
 
शास्त्रों के अनुसार 4 वेद हैं और तरह 4 उपवेद हैं। इन उपवेदों में पहला आयुर्वेद है। दूसरा शिल्प वेद है। तीसरा गंधर्व वेद और चौथा धनुर्वेद है। इस धनुर्वेद में धनुर्विद्या का सारा रहस्य मौजूद है।