प्रात:काल का समय मंगल का, शुभ का माना जाता है। हम में से लगभग हर दूसरे घर में सुबह स्नान कर भगवान की पूजा या नाम स्मरण अवश्य किया जाता है। अगरबत्ती की सुगंध से सुवासित और मंत्र या श्लोक के पवित्र वचनों से गुंजित घर और मंदिर सवेरे का एक नित्य दिखाई देने वाला दृश्य है।
प्राय: हम सभी इतने धार्मिक तो संस्कारवश होते ही हैं कि घर में पूजा भले ही कोई और करे किंतु स्नान करने के बाद भगवान के समक्ष शीश तो नवा ही देते हैं। मंदिर भले ही यदा-कदा जाना हो लेकिन उसके सामने से गुजरते हुए सिर आदतन झुक ही जाता है।
वस्तुत: पुण्य कमाने की अवधारणा हमारे चेतन-अवचेतन में इतनी दृढ़ता से जड़ जमाए बैठी है कि भगवान की मूर्तियों को स्नान, चंदन-तिलक, पुष्पार्पण धूप, दीप, अगरबत्ती, मंदिर में देव-दर्शन, फूल, भोग, प्रसाद आदि हमारी नित्य दिनचर्या में शामिल रहता है।
इसके अतिरिक्त मन में कहीं-न-कहीं उस अनदेखे ईश्वर का भय भी समाया रहता है जिसमें आस्थाविहीन या नास्तिक को नर्क प्राप्ति जैसी निराधार मान्यताएं शामिल रहती हैं। धार्मिकता के ये स्वरूप गलत नहीं हैं। ये कई जगह आस्था और विश्वास से जुड़े होते हैं और कई स्थानों पर पाखंड से। आस्था प्रणम्य है, लेकिन पाखंड निंदनीय।
ईश्वर भक्ति बहुत पवित्र भाव है जिसमें श्रद्धा और समर्पण का सुंदर संयोग समाया रहता है। लेकिन क्या कभी ये सोचकर देखा है कि सच्ची धार्मिकता में मात्र ईश्वर भक्ति ही नहीं है बल्कि वो अपने विस्तार में मानवीयता के समूचे सार को समाहित किए बैठी है। हम जो भी सोचें, सत् हो। जो भी कहें, शुभ हो। जो भी करें, मंगलकारी हो तभी हम सच्चे धार्मिक हैं।
सोचकर देखिए कि एक तरफ हम नित्य स्नान कर भगवान की पूजा करते हैं और दूसरी ओर पूजा से उठते ही पत्नी की छोटी-सी बात पर ही क्रोधित हो अपशब्दों की बौछार कर देते हैं। एक तरफ देव मूर्तियों को साष्टांग दंडवत करते हैं और दूसरी ओर अपने अभिभावकों का यथोचित सम्मान नहीं करते। एक ओर ईश्वर का पुष्प, कंकू, चंदन, धूप, दीप, अगरबत्ती से सांगोपांग पूजन करते हैं, दूसरी तरफ बीमार माता-पिता को दवा व इलाज तक से महरूम रखते हैं।
एक तरफ प्रसाद का सभक्ति ईशार्पण और दूसरी ओर भूखे निर्धनों को दुत्कार, एक ओर घर और बाहर के मंदिरों में दीप-दीपन, दूसरी तरफ स्वयं का आंतर क्रोध, ईर्ष्या, कुटिलता, लोभ, अहंकार से अंधकारग्रस्त, एक ओर भगवान के नाम पर व्रत-उपवास, दूसरी तरफ सामान्य नैतिकता के पालन में भी चूक जाना, एक ओर धार्मिक आयोजनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना और दूसरी तरफ अपने दैनिक आचरण में मानवीयता की अनुपस्थिति की अनदेखी।
स्पष्ट रूप से ये सब कुछ धार्मिकता के अंतर्गत तो नहीं आता। ईश्वर ने जब मानव को बनाया, तो उसमें मानवीयता भरी। मानवीयता अर्थात प्रेम, दया, क्षमा, सौहार्द, सहभाव का संकुल। हम स्वयं अपना आकलन करें कि मानवीयता के कितने अंश को हम अपने आचरण जीते हैं? उक्त विधानगत थोथी धार्मिकता के अलावा हम कितने धार्मिक हैं? जबकि सच्ची धार्मिकता तो वही है।
ईश्वर स्वयं जिन गुणों से वेष्ठित है, लगभग वे ही गुण उसने मानव को दिए। अब ये मानव के हाथ में है कि वो उन्हें अपनाकर अपने अस्तित्व को सार्थक कर सच्चा धार्मिक बनना चाहता है या उनसे दूर होकर अपने मानव होने पर प्रश्नचिन्ह लगाने का इच्छुक है?