लखनऊ। वर्ष 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर केंद्र की सत्ता में 'बैलेंस ऑफ पॉवर' के लिए संसद में सर्वाधिक 80 सांसद भेजने वाले उत्तरप्रदेश में वर्षभर राजनीतिक घमासान चलता रहा। संसद में सर्वाधिक सांसद भेजने वाले उत्तरप्रदेश को देश की राजनीति की दिशा तय करने वाला राज्य माना जाता है।
इस राज्य से ही सर्वाधिक प्रधानमंत्री चुने गए हैं। केंद्र में विपक्ष की अहम भूमिका निभाने वाली पार्टी के अध्यक्ष तथा प्रधानमंत्री इसी राज्य से सांसद हैं। इसमें से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वाराणसी सीट से, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) अध्यक्ष सोनिया गांधी रायबरेली से, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अमेठी से तथा समाजवादी पार्टी (सपा) के संरक्षक आजमगढ़ सीट से सांसद हैं। इसके अलावा बहुजन समाज पार्टी (बसपा) अध्यक्ष मायावती, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) अध्यक्ष जयंत चौधरी भी इसी राज्य से ताल्लुक रखते हैं।
वर्ष 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के बाद बैलेंस ऑफ पॉवर बनने के लिए भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), कांग्रेस, सपा, बसपा और रालोद ने वर्ष 2018 से अपनी-अपनी गोटियां बिछानी शुरू कर दी हैं। राज्य में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाना शुरू कर दिया है। राजनीतिक दलों ने क्षेत्रीय मुद्दे उठाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी।
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर प्रचार के मामले में भाजपा ने वर्ष 2018 से तैयारियां शुरू कर दी हैं जबकि विपक्षी दल अभी महागठबंधन पर नजर गड़ाए है। राज्य में मुख्य विपक्षी दल अभी कांग्रेस के साथ गठबंधन को लेकर संशय में है। केंद्र की सत्ता को अपने हाथ में रखने को लेकर गठबंधन में पेंच फंस रहा है। मुख्य विपक्षी दलों सपा, बसपा और रालोद का अन्य राज्यों में प्रभाव कम होने के कारण केंद्र की सत्ता में बैलेंस आफ पॉवर बनने के लिए अधिक से अधिक सांसद इस राज्य से भेजना चाहते हैं।
उत्तरप्रदेश में लोकसभा की 3 सीटों- गोरखपुर, फूलपुर और कैराना पर हुए उपचुनाव में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन को मिली जीत से विपक्षी दलों के हौसले बुलंद हैं। गोरखपुर सीट से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, फूलपुर सीट से उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के त्यागपत्र देने के बाद जबकि कैराना सीट हुकुम सिंह के अचानक निधन हो जाने से खाली हुई थी।
उपचुनाव में विपक्ष को मिली सफलता के बाद सपा-बसपा-रालोद ने महागंठबधन की तैयारियां शुरू की हैं, हालांकि कांग्रेस का मामला अभी अधर में लटका है। कांग्रेस ने सपा-बसपा की पहुंच वाले राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अकेले चुनाव लड़ा था। चुनाव के बाद सपा-बसपा ने राजस्थान और मध्यप्रदेश में सरकार बनाने के लिए कांग्रेस को समर्थन देने का ऐलान किया था।
इसी साल शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने पहली बार अयोध्या पहुंचकर प्रदेश की राजनीति में अपनी पहुंच बनाने के लिए प्रयास शुरू किए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के प्रमुख मोहन भागवत तथा संगठन के अन्य नेताओं के समय-समय पर राज्य में अपनी बैठकें कीं। विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) समेत तमाम हिन्दूवादी संगठनों ने ऐन चुनाव से पहले मंदिर मुद्दा जोर-शोर से उठाया है।
राज्य में इस साल चुनाव की तैयारियों के मद्देनजर भाजपा की केंद्र तथा राज्य सरकार ने प्रदेश के विकास पर जोर दिया है, वहीं विपक्षी दल कानून व्यवस्था को लेकर सरकार को घेरने की कोशिश में लग रहे। इसी साल भाजपा ने अनेक कार्यक्रमों का आयोजन किया। मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्रियों समेत केंद्र सरकार के कई मंत्री तथा भाजपा के बड़े नेता मोटरसाइकल रैलियों में शामिल हुए।
सपा-बसपा दोनों वैसे तो गठबंधन के लिए राजी हैं लेकिन अंदरखाने यह समीकरण क्या होगा, यह अभी तक तय नहीं हो पा रहा है। इस मामले में बसपा मुखिया मायावती ने अभी चुप्पी साधी है। बसपा अध्यक्ष यह कहती रही हैं कि गठबंधन तभी होगा जब उन्हें 'सम्मानजनक' सीटें मिलेंगी। अब सियासी जानकार इस 'सम्मानजनक' की गुत्थी को अपने-अपने तरीके से सुलझाने में जुटे हैं।
एक ओर तो 'सम्मानजनक' सीटों का पेंच है, तो दूसरी ओर कांग्रेस को साथ लेने पर सपा और बसपा में अतीत के अपने-अपने संशय हैं। बसपा को यह संशय रहता है कि वर्ष 1996 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस से गठबंधन का उसे लाभ नहीं हुआ, वहीं दलित कांग्रेस के पराभव से पहले उसका वोट बैंक रहे हैं। बसपा को दलितों के कांग्रेस की झोली में जाने का संशय भी सताता है।
दूसरे सपा भी वर्ष 2017 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस से गठबंधन कर कटु अनुभव कर चुकी है, वहीं बसपा को संशय है कि क्या यादव वोट उसकी झोली में जाएंगे? 3 राज्यों के चुनाव नतीजे आने के बाद बसपा एक बार फिर पूरी तरह विश्वास से परिपूर्ण दिख रही है वहीं कांग्रेस भी पूरे जोश में है। ऐसे में राज्य में अकेले चुनाव लड़ने की संभावनाओं पर वह कदम बढ़ाती दिख रही है।
उत्तरप्रदेश से संसद में 80 सांसद भेजने वाले देश के सबसे राज्य में भाजपा ने इसी साल से तैयारियां शुरू कर दी हैं। गत 17 नवंबर को कमल संदेश बाइक रैली आयोजित की। इस रैली को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वाराणसी, उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य ने फूलपुर और उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा ने लखनऊ में हरी झंडी दिखाई। इसके अलावा प्रदेश प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 5 से अधिक रैलियों को संबोधित कर चुके हैं।
इसके अलावा सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा अध्यक्ष मायावती प्रदेश में कानून-व्यवस्था को लेकर सरकार को घेरने में जुटे हैं। उत्तरप्रदेश की राजनीति में वर्ष 2018 के दौरान राजनीतिक परिदृश्य में दूरगामी बदलाव हुए हैं। इनमें एक बदलाव तो ऐसा रहा जिससे भाजपा सकते में है। 2 जून 1995 को सपा के कार्यकर्ताओं द्वारा एक गेस्ट हाउस में जानलेवा हमले का शिकार बनने के बाद बसपा कट्टर दुश्मन बन गई थी लेकिन वर्ष 2018 आते-आते दोनों पार्टियों ने उपचुनाव में हाथ मिलाया और प्रयोग सफल रहा।
भाजपा को दोनों पार्टियों के बीच मतभेदों का हमेशा फायदा मिलता रहा था। भाजपा उत्तरप्रदेश के पिछड़ों और अनुसूचित जातियों में मजबूत पकड़ रखने वाली दोनों पार्टियों को एकसाथ नहीं चाहती है। इसी वजह से भाजपा की सीट में चुनाव-दर-चुनाव इजाफा होता चला गया। इनके साथ आने के साथ ही गोरखपुर, कैराना और फूलपुर की संसदीय सीटें उपचुनाव में भाजपा के हाथ से निकल गईं। बसपा अध्यक्ष मायावती और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से अपनी राजनीतिक दूरी की वजह से एक-दूसरे से जुड़े हैं। दोनों वर्ष 2019 में होने वाले लोकसभा चुनाव के बाद मोदी के दोबारा सत्ता में वापसी को लेकर भी आशंकित हैं।
लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अखिलेश सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे शिवपाल यादव ने अलग होकर प्रगतिशील समाजवादी पार्टी का गठन किया, वहीं निर्दलीय विधायक रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया ने नया दल जनसत्ता पार्टी बनाई है।
उन्होंने सवर्णों के पक्ष में एससी-एसटी कानून का विरोध किया है। गोरखपुर और फूलपुर उपचुनाव में विपक्ष को मिली जीत से उत्साहित सपा, बसपा ने कैराना सीट पर राष्ट्रीय लोकदल को समर्थन दिया। कैराना लोकसभा उपचुनाव में तबस्सुम बेगम ने जीत दर्ज की थी। तब से माना जा रहा है कि सपा-बसपा और रालोद का गठबंधन होगा।
भाजपा की सहयोगी सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) के अध्यक्ष और उत्तरप्रदेश के काबीना मंत्री ओमप्रकाश राजभर भी अपने बयानों से सरकार को असहज करते रहे हैं। इस बीच भगवान हनुमान भी खूब चर्चा में रहे। किसी ने उनको दलित, तो किसी ने जाट और किसी ने भगवान हनुमान को मुसलमान भी बताया जिससे वोट के लिए सियासी हलकों में उन्हें अपना बताने की होड़ मच गई। (वार्ता)