मुठभेड़ स्थलों पर 'पत्थरबाजी' से परेशान हुए सुरक्षाबल
श्रीनगर। कश्मीर में फिर से तेजी से बढ़ती मुठभेड़ों में सुरक्षाबलों को दोहरे मोर्चे से जूझने का परिणाम यह है कि अगर आतंकी जनसमर्थन पाने में कामयाब होने लगे हैं तो वहीं दूसरी ओर जनता का गुस्सा सुरक्षाबलों पर निकलने लगा है। हालात को 1990 के दशक की परिस्थितियों जैसा भी निरूपित किया जा रहा है।
यह दोहरा मोर्चा पिछले साल जनवरी के आरंभ से ही देखने को मिला है। आतंकी फिर से घनी आबादी वाले इलाकों में शरण लेते हुए सुरक्षाबलों को मुकाबले के लिए मजबूर करने लगे हैं और पत्थरबाज इन अभियानों में पत्थरों की बरसात आरंभ कर रूकावटें पैदा कर रहे हैं।
सुरक्षाधिकारी मानते हैं कि पिछले एक साल में होने वाली करीब 132 से अधिक मुठभेड़ों में कम से कम 85 आतंकी भागने में इसलिए कामयाब हो गए क्योंकि पत्थरबाजों की पत्थरों की बरसात के कारण सुरक्षाबलों को दोहरे मोर्चे पर जूझना पड़ा था। दरअसल, इन घटनाओं में इतने सुरक्षकर्मी आतंकियों की गोली से जख्मी नहीं हुए थे, जितने कि पत्थर लगने से जख्मी हो गए थे।
अब हालांकि नागरिक प्रशासन के साथ मिलकर सुरक्षाबलों ने इसका हल तो निकाला है, पर वह भी कामयाब नहीं हो पा रहा है। नागरिक प्रशासन के निर्देश के मुताबिक, मुठभेड़ स्थलों के आसपास तत्काल धारा 144 लागू की जा रही है, पर यह फार्मूला कामयाब नहीं हो पा रहा है। अब मुठभेड़ स्थलों के आसपास के तीन किलोमीटर तक के इलाके में कर्फ्यू भी लगा दिए जाने के निर्देश दिए गए हैं।
नतीजा सामने है। पिछले हफ्ते दो नागरिकों की मौत इसी निर्देश का परिणाम इसलिए थी क्योंकि आतंकियों के साथ मुठभेड़ में सुरक्षाबल लिप्त थे तो पत्थरबाजों से भी उन्हें दोहरे मोर्चे से जूझना पड़ा था। पत्थरबाजी जब भयंकर रूप धारण कर गई तो सुरक्षाबलों को आत्मरक्षा में गोली चलानी पड़ी। नतीजतन दो नागरिकों की मौत हो गई।
इन मौतों का लाभ भी विघटनकारी तत्वों द्वारा उठाया जा रहा है। दरअसल, कश्मीर में 1990 के दशक में ऐसे प्रदर्शन आम थे, जब आतंकी विरोध प्रदर्शनों में घुसकर सुरक्षाबलों पर हमले करते थे और जवाबी कार्रवाई में मासूम नागरिक ही मारे जाते थे और आतंकियों की मौतों के बाद उनके जनाजों में जुटने वाली भीड़ यह जरूर दर्शा रही है कि आतंकी एक बार फिर नागरिकों का जनसमर्थन हासिल करने में कामयाब हो रहे हैं। इतना जरूर था कि सुरक्षाबल बढ़ते हुए जनसमर्थन से चिंता में जरूर हैं।