पुतिन की भारत यात्रा पर दुनिया भर की नजरें है। इस यात्रा में भारत और रूस की बीच व्यापारिक और सामरिक समझौते भी होंगे। लेकिन मान लीजिये दोनों देशों के बीच यह समझौते अमेरिकी डॉलर में न होकर रूसी रूबल,भारतीय रुपया या युआ में हो जाएं,तो फिर क्या होगा। दरअसल अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प इस संभावना को लेकर चिंतित बताए जाते हैं कि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और भारत के बीच भविष्य में ऐसे आर्थिक समझौते हो सकते हैं,जिनमें अमेरिकी डॉलर को दरकिनार कर दिया जाएं। यह आशंका इसलिए भी बढ़ी है क्योंकि यूक्रेन युद्ध के बाद रूस पर पश्चिमी प्रतिबंध सख्त हुए,जिसके चलते रूस ने कई देशों के साथ डॉलर-रहित व्यापार मॉडल अपनाने की कोशिश तेज की है।
भारत और रूस के बीच ऊर्जा,रक्षा और व्यापारिक सहयोग पहले से मजबूत है। दोनों देश कई बार स्थानीय मुद्रा में व्यापार पर चर्चा कर चुके हैं। यदि यह व्यवस्था व्यापक रूप लेती है तो यह अमेरिकी आर्थिक प्रभाव के लिए चुनौती मानी जाएगी,क्योंकि डॉलर की वैश्विक पकड़ अमेरिकी शक्ति की आधारशिला है। ट्रम्प की चिंता का कि यदि भारत जैसा दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश और रूस जैसे ऊर्जा-संपन्न राष्ट्र साझा रूप से डॉलर के विकल्प की दिशा में आगे बढ़ते हैं तो इससे दीर्घकाल में अमेरिकी प्रभुत्व कमजोर हो सकता है।
संयुक्त राज्य अमेरिका के सत्ताईसवें राष्ट्रपति विलियम हॉवर्ड टैफ्ट ने करीब एक सौ दस साल पहले डॉलर कूटनीति का आगाज करते हुए कहा था इस नीति को गोलियों की जगह डॉलर का इस्तेमाल करने के रूप में वर्णित किया गया है। यह नीति आदर्शवादी मानवीय भावनाओं,ठोस नीति और रणनीति के निर्देशों और वैध वाणिज्यिक उद्देश्यों दोनों को समान रूप से आकर्षित करती है। टैफ्ट की यहीं डॉलर कूटनीति बाद में दुनिया भर में अमेरिकी कॉर्पोरेट हितों का रक्षा कवच बन गई। आज दुनिया की अर्थव्यवस्था में अमेरिकी डॉलर की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अंतरराष्ट्रीय व्यापार,वित्तीय लेन-देन और विदेशी मुद्रा भंडार में सबसे अधिक इस्तेमाल की जाने वाली मुद्रा है। वैश्विक तेल व्यापार से लेकर अंतरराष्ट्रीय ऋण तक,अधिकांश सौदे डॉलर में ही तय होते हैं। डॉलर की स्थिरता,अमेरिकी अर्थव्यवस्था का आकार,विश्वसनीय वित्तीय संस्थाएँ और अमेरिकी सैन्य,राजनीतिक प्रभाव जैसे सभी कारण इसे विश्व रिज़र्व मुद्रा बनाते हैं।
इस समय ट्रम्प के तेवर भारत और रूस को लेकर बेहद सख्त है। वहीं न तो पुतिन समझौते के मूड में है और न ही प्रधानमंत्री मोदी ट्रम्प को लेकर सहज है। कई देशों ने अमेरिकी प्रतिबंधों और डॉलर-निर्भर वैश्विक व्यवस्था पर सवाल उठाए हैं। इसका विकल्प यूरो,चीनी युआन और स्थानीय मुद्राएँ मानी जा रही हैं। ब्रिक्स समूह भी एक साझा मुद्रा पर विचार कर रहा है जिससे व्यापार में डॉलर पर निर्भरता कम हो सके। अमेरिका के साथ बढ़ते तनाव के बीच चीन अंतरराष्ट्रीय व्यापार में अपनी मुद्रा को अधिक बढ़ावा देना चाहता है और लैटिन अमेरिकी मुल्कों का उसके साथ युआन में व्यापार करना इसी की झलक है। बीते एक दशक में लैटिन अमेरिका के कुछ मुल्कों के साथ अपने व्यापारिक रिश्ते बढ़ाने और कुछ को आर्थिक मदद देने के बाद से चीन की कोशिश रही है कि यहां उसकी मुद्रा का इस्तेमाल बढ़े। चीन लातिन अमेरिका में अपने सबसे बड़े व्यापार सहयोगी ब्राज़ील के साथ ऐसा समझौता भी कर चूका है। चीन की रणनीति है कि उसके सहयोगी देशों में उसकी मुद्रा को आसानी से कन्वर्ट कर सकें और उसका इस्तेमाल बढ़े।
ब्रिक्स के अहम सदस्यों रूस और दक्षिण अफ्रीका से चीन की मजबूत आर्थिक साझेदारी है,वहीं ब्राजील को युआन पर पूर्ण भरोसा है। ब्रिक्स को बड़े देशों का व्यापारिक समूह माना जाता है और अभी तक यह विश्व की 41 फीसदी आबादी, 24 फीसदी वैश्विक जीडीपी और 16 फीसदी वैश्विक कारोबार का प्रतिनिधित्व करता आया है। नए सदस्य देशों के शामिल होने से निश्चित ही ब्रिक्स मजबूत हुआ है। मध्यपूर्व और इस्लामिक दुनिया की प्रभावी शक्ति सऊदी अरब और चीन के बीच सुरक्षा और तकनीक के क्षेत्र में भी सहयोग लगातार बढ़ रहा है। सऊदी अरब चीन को कच्चे तेल की सबसे अधिक सप्लाई कर रहा है तथा चीन की यह कोशिश है की सऊदी अरब व्यापार के लिए भुगतान की मुद्रा डॉलर की जगह चीनी करेंसी युआन हो।
पुतिन की यात्रा को भारत की विदेश नीति के लिए महत्वपूर्ण माना जा रहा है क्योंकि यह मॉस्को और वाशिंगटन के बीच संबंधों को संतुलित करती है। यह भारत की रणनीतिक स्वायत्तता और रूस के साथ दीर्घकालिक,भरोसेमंद संबंधों के लिए उसकी प्रतिबद्धता का एक मजबूत संकेत है। भारत और रूस ने 2030 तक द्विपक्षीय व्यापार को 100 अरब डॉलर तक बढ़ाने और पश्चिमी प्रतिबंधों से बचने के लिए वैकल्पिक भुगतान समाधानों की खोज करने की प्रतिबद्धता जताई है।
तेल अन्वेषण और आपूर्ति, परमाणु ऊर्जा और हीरे की सीधी बिक्री जैसे प्रमुख सौदों को अंतिम रूप दिए जाने की उम्मीद है। दोनों नेता स्थानीय या तीसरे देशों की मुद्राओं का उपयोग करके रसद और भुगतान तंत्र जैसे संबंधित मुद्दों को सुलझाने पर ध्यान केंद्रित करेंगे। यदि भारत और रूस के बीच ऐसा आर्थिक समझौता हो जाए जिसमें अमेरिकी डॉलर के स्थान पर किसी अन्य मुद्रा का उपयोग हो,तो यह अमेरिका की आर्थिक प्रभुता के लिए एक बड़ा संकेत होगा। इससे बाज़ार धड़ाम से गिरेगा,अमेरिकी डॉलर की कीमतें गिरेगी और वैश्विक बाज़ार में डॉलर की विश्वसनीयता का संकट बढ़ जायेगा । हालांकि भारत अपनी संतुलित कूटनीति के कारण किसी बड़े डॉलर विरोधी ब्लॉक का हिस्सा नहीं बनता,फिर भी कूटनीति में मनोवैज्ञानिक बढ़त हासिल करने के लिए ट्रम्प की नींद तो उड़ाई ही जा सकती है।