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Written By Author श्रवण गर्ग
Last Updated : गुरुवार, 13 अगस्त 2020 (21:19 IST)

सरकार तो बच गई, ‘सरदार’ कमज़ोर हो गए?

सरकार तो बच गई, ‘सरदार’ कमज़ोर हो गए? - Rajasthan political crisis
सत्ता की राजनीति के विद्रूप चेहरे एक-एक कर उजागर होते जा रहे हैं। हाल के महीनों में पहले महाराष्ट्र फिर मध्य प्रदेश और अब राजस्थान। जनता जिन्हें युद्ध समझकर उनकी हार-जीत पर करोड़ों-अरबों का सट्टा खेलती है, उनके बारे में अंत में यही पता चलता है कि वह तो बस एक रिहर्सल थी।

रणभूमि राजस्थान की घटनाओं के बारे में अभी ठीक से पता चलना बाक़ी है कि जो हुआ है वह रिहर्सल का विराम है या फिर युद्ध का विराम! युद्ध की समाप्ति तो निश्चित ही नहीं है। यह एक ऐसा युद्ध है जिसमें एक सेना के ही दो पक्ष आपस में लड़ रहे ‘थे’। अब एक थकी हुई सेना को अपने उसी दुश्मन से अगला युद्ध लड़ना है जिससे कि पिछली बार जीत हुई थी। सत्ता प्राप्त करने और बचाने की समस्त लड़ाइयां आदर्शों की रक्षा के नाम पर लड़ी जाती हैं और सबसे ज़्यादा हनन भी उन्हीं आदर्शों का ही होता है।

लोग थोड़ा यह भी जानने को उत्सुक हैं कि अतृप्त राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के सारे मसान हर बार कांग्रेस में ही क्यों जागृत होते रहते हैं, भाजपा (या पूर्व की जनसंघ) में क्यों नहीं? उस पार्टी में भी कुछ तो पायलट (या सिंधिया) होते होंगे! या सभी आडवाणी आदि की ओर देखकर ही विनम्र हो जाते हैं? क्या इस धुर दक्षिणपंथी हिंदुत्व की राष्ट्रवादी पार्टी और उससे जुड़े संगठनों के करोड़ों कार्यकर्ताओं की महत्वाकांक्षाओं का बंदीकरण कर दिया गया है? या इनके अनुशासन में मांगकर प्राप्त किए जाने वाले पुरस्कारों के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं रखी गई है? तब तो इसे कांग्रेस की ही खूबी माना जाना चाहिए कि जब-जब भी पार्टी बीमार होकर मरणासन्न होने लगती है, उत्तराधिकार और पदों के बंटवारे की मांग और तेज हो जाती है।

कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई जबसे यह पार्टी बनी है कभी ख़त्म ही नहीं होती। और इस बीच बाहर की चुनौतियां उतनी ही और बढ़ जाती हैं। पार्टी इसे अपने आंतरिक प्रजातंत्र की खूबी बताती है, राजनीतिक अराजकता नहीं! विशेषता यह भी है कि इतना सब होने के बाद भी घोषित तौर पर पार्टी कभी डिप्रेशन में नहीं जाती।

कांग्रेस में ही यह सम्भव है कि एक मुख्यमंत्री और उनके (पूर्व) उप-मुख्यमंत्री दोनों ही आदर्शों के नाम पर अपनी-अपनी आकांक्षाओं को लेकर कम-से-कम बाहर से स्वस्थ नज़र आती सरकार को भी वेंटिलेटर पर चढ़ाने के लिए तैयार हो गए। अंत में हुआ यही कि जांच रिपोर्ट में तो बीमारी को मात दे दी गई पर कोई प्लाज़्मा प्राप्त नहीं हुआ।

सचिन पायलट ने कांग्रेस छोड़ भी दी थी और नहीं भी छोड़ी थी। वे उसमें न होते हुए भी बने हुए थे। वे अपना एक पैर गरम और दूसरा ठंडे पानी में रखकर बैठे-बैठे गुरुग्राम के रिज़ॉर्ट की खिड़की से अपने समर्थकों की गिनती भी कर रहे थे और दस जनपथ के सम्पर्क में भी बने हुए थे। सिंधिया की तरह इस्तीफ़ा भी नहीं दिया और मनाने-बुलाने के बाद भी घर वापसी नहीं की। और अंत में उन्हीं लोगों के ‘वार रूम’ में मिलने को राज़ी हो गए जिनके कि प्रति सारी नाराज़गी थी।

कांग्रेस के लिए बहुत ही नाज़ुक वक्त में एक और सरकार स्वाहा होने से बच गई पर राजस्थान की सात करोड़ जनता और देश के लिए अब कुछ ही बचे हुए नेताओं में से भी कुछ और नज़रों से गिर गए। लोगों से अब कहा जाएगा कि वे प्रदेश के व्यापक हित और संकट की घड़ी को देखते हुए चौराहों पर खड़े होकर जिस तरह की ‘निकम्मी’ और ‘नकारा’ भाषा का इस्तेमाल किया गया था उसे भूल जाएं। उन्हें लोगों की कमज़ोर याददाश्त पर पूरा यक़ीन भी है। कोई भी पक्ष स्वीकार नहीं करेगा कि सब कुछ समाप्त हो भी गया है और नहीं भी हुआ है। दिल्ली दरबार भी नहीं मानेगा कि एक कमज़ोर सरकार तो बचा ली गई पर एक मज़बूत मुख्यमंत्री को कमज़ोर कर दिया गया। समझौते की क़ीमत ऊपर से जितनी छोटी दिखाई जा रही है, अंदर से उतनी है नहीं।

अब बारी शायद अशोक गहलोत की है। उन्होंने कहा बताते हैं कि राजनीति में कई बार छाती पर पत्थर रखकर ज़हर का घूंट भी पीना पड़ता है। वे यह नहीं बताते कि ज़हर का असर कितने समय में ख़त्म हो जाएगा। गांधी परिवार के ‘वार रूम’ में उनकी बैठक होना अभी बाक़ी है। हो सकता है वह बैठक विधानसभा की बैठक के बाद हो। गहलोत ने कहा था कि सोने की छुरी को पेट में नहीं घुसेड़ सकते। दूसरी कहावत जो उन्होंने अभी नहीं कही वह यह है कि एक ही म्यान में दो तलवारें नहीं रह सकतीं। राजस्थान का असली राजनीतिक संकट तो शायद अब चालू हुआ है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)