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Last Updated : गुरुवार, 9 जनवरी 2025 (14:34 IST)

मनमोहन सिंह के अंतिम संस्कार और स्मारक की मांग

Manmohan Singh
पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के मृत्यु उपरांत अंतिम संस्कार और स्मारक पर हुई और हो रही राजनीति उचित नहीं। जो 10 वर्ष प्रधानमंत्री, 5 वर्ष वित्त मंत्री और इसके अलावा तीन दशक तक भारत के आर्थिक और वित्तीय नीति निर्माण से जुड़े रहे हों, उन्हें लेकर उनकी पार्टी और समर्थकों को संयमित वक्तव्य देना चाहिए। जब कांग्रेस सरकार को कटघरे में खड़ा करेगी तो उनके काल के निर्णयों, घटित घटनाओं आदि उनकी भूमिका सहित पार्टी के वर्तमान और अतीत की वो भूमिकाएं सामने लाई जाएंगी जिनका उत्तर देना कठिन होगा। 
 
कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे जी ने उनकी मृत्यु के तुरंत बाद प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर अंतिम संस्कार ऐसी जगह करने की मांग कर दी जहां स्मारक बनाया जा सके। उसके बाद पार्टी ने सरकार को आरोपित करना आरंभ कर दिया। गृह मंत्री अमित शाह जी की ओर से स्पष्ट किया गया कि उनका स्मारक बनाया जाएगा और अंतिम संस्कार राजधानी दिल्ली के निगमबोध घाट पर किया गया।

प्रश्न उठाया जा रहा है कि पूर्व प्रधानमंत्री का अंतिम संस्कार निगमबोध पर क्यों किया गया? देश में जब ऐसे विवाद उठते हैं तो ज्यादातर लोग तात्कालिक भावनाओं और वातावरण के अनुसार प्रतिक्रिया देते हैं और राजनीति में जितना तीखा विभाजन है, पक्ष-विपक्ष में हमले-प्रतिहमले, आरोप-प्रत्यारोप आरंभ हो जाते हैं। ऐसे विषयों पर निष्पक्षता से सच्चाई और तथ्यों के साथ वर्तमान और संभाली परिदृश्यों को नहीं रखा जाए तो अनेक प्रकार की गलतफहमियां बनी रहतीं हैं। कांग्रेस द्वारा बड़ा मुद्दा बनाए जाने के बाद भाजपा ने अतीत के पन्ने पलटे हैं।
 
पूर्व प्रधानमंत्रियों का अंतिम संस्कार समुचित सम्मान के साथ होना चाहिए और व्यक्तित्व प्रेरक है तो स्मारक भी बनना चाहिए। पहले इस मामले में कांग्रेस के अतीत पर बात करते हैं। कांग्रेस और मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाले संप्रग सरकार के दौरान चार पूर्व प्रधानमंत्रियों पीवी नरसिंह राव, विश्वनाथ प्रताप सिंह, चंद्रशेखर और इंदर कुमार गुजराल की मृत्यु हुई। क्या इनमें से किसी के दिल्ली में स्मारक बनाने पर चर्चा भी हुई? 
 
पीवी नरसिंह राव कांग्रेस के थे और डॉ मनमोहन सिंह को उन्होंने ही वित्त मंत्री बनाया जहां से उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई। उनका परिवार राजधानी में अंतिम संस्कार चाहता था। वे कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके थे और पार्टी मुख्यालय में उनका शव अंतिम दर्शन और श्रद्धांजलि के लिए रखा जाना चाहिए था। उनका शव आया लेकिन मुख्यालय का द्वार नहीं खुला और बाहर ही तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी सहित बाकी नेताओं और मंत्रियों ने पुष्पांजलि अर्पित की।

यह किसके आदेश या इशारे पर हुआ होगा क्या यह बताने की आवश्यकता है? कांग्रेस का तर्क है कि नरसिंह राव ने स्वयं प्रदेश में अंतिम संस्कार की इच्छा जताई थी। ऐसा था तो उनके परिवार से बात किसी ने क्यों नहीं की? आज भी उनके परिवार के लोग बताते हैं कि उनकी किसी ने नहीं सुनी। पूर्व राष्ट्रपति स्व. प्रणव मुखर्जी की बेटी समिष्ठा मुखर्जी ने कहा है कि हमारे पिताजी ने उनके शव को कांग्रेस कार्यालय के अंदर लाने के लिए कहा किंतु ऐसा नहीं किया गया। शायद भारत के राजनीतिक इतिहास में मृत्यु के बाद इस तरह का व्यवहार किसी के साथ नहीं हुआ होगा। 
 
यह भी सही है की सरदार वल्लभ भाई पटेल की मुंबई में मृत्यु के पश्चात प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद को कहा था कि आपको किसी कैबिनेट मंत्री के अंतिम संस्कार में भाग नहीं लेना चाहिए। नौकरशाहों से लेकर अनेक लोगों को यह संदेश दिया गया था।

हालांकि पंडित नेहरू स्वयं गए थे और उनकी बात न मानकर डॉ. राजेंद्र प्रसाद सहित अनेक लोगों ने पहले गृह मंत्री के अंतिम संस्कार में भाग लिया। उनका अंतिम संस्कार दिल्ली में नहीं हुआ लेकिन स्वतंत्रता संघर्ष से लेकर संविधान निर्माण और विभाजन की विभीषिका के पश्चात रियासतों का विलय कर देश की एकता-अखंडता सुरक्षित रखने की उनकी सर्वोपरि भूमिका का ध्यान रखते हुए स्मारक अवश्य बनना चाहिए था। 
 
डॉ. राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष और पहले राष्ट्रपति थे। स्वतंत्रता आंदोलन से लेकर गांधी विचारों और भारतीय संस्कृति के अनुरूप त्यागमयी जीवन जीने वाले राजेंद्र बाबू का कोई स्मारक दिल्ली में नहीं बनाया। संविधान निर्माण के बाद संविधान सभा के भाषणों को पढ़िए तो राजेंद्र बाबू के योगदान को उस समय के नेताओं ने किन शब्दों में वर्णित किया है पता चल जाएगा। राजेंद्र बाबू को राष्ट्रपति पद से सेवानिवृत होने के बाद पटना के सदाकत आश्रम में समय बिताना ना पड़ा और वही छोटी जगह में उन्होंने शरीर त्यागा। कोई वहां जाकर उनकी सादगी को देख सकता है।
 
इस पृष्ठभूमि में कांग्रेस की मांग को राजनीति के अलावा कुछ नहीं कहा जा सकता। राजधानी में महात्मा गांधी जी की समाधि राजघाट से आगे बढ़ते जाइए आपको अगले चौराहे सड़क तक राजीव गांधी, संजय गांधी, इंदिरा गांधी और पंडित जवाहरलाल नेहरू के स्मारक व समाधियां मिलेंगी। वहां जाने वालों की संख्या न के बराबर है तथा जंगल झाड़ इतने हैं कि कुछ ही क्षेत्र में कोई घूम सकता है। स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के समाधि के लिए सड़क के आगे जगह बनानी पड़ी। यूपीए शासन में राजीव गांधी की समाधि पर बार-बार नई परियोजनाएं आईं और बिना किसी आदेश के गांधी जी की समाधि के जमीनों का उपयोग हुआ, काफी भाग उसमें समाहित हो चुका है।

चौधरी चरण सिंह की मृत्यु के बाद जब दबाव बना तो गांधी जी की समाधि से ही काट कर जमीन दी गई। नेहरू जी या अन्य की समाधि के कारण उस तरफ जगह नहीं मिली। सच यह है कि वर्तमान स्थिति के कायम रहते हुए भविष्य के प्रधानमंत्रियों के लिए उस क्षेत्र में जगह नहीं है। यह तभी हो सकता है जब इन्ही समाधियों के अंदर उनका अंतिम संस्कार हो और स्मारक बने। रास्ता प्रधानमंत्री संग्रहालय की तरह निकल सकता है।

जवाहरलाल नेहरू स्मारक संग्रहालय आज प्रधानमंत्री संग्रहालय में बदल चुका है और उसकी बायलॉज ऐसे बने हैं कि अब किसी भी पार्टी के प्रधानमंत्री की मृत्यु के बाद उनकी स्मृतियां वहां रखी जाएगी। आने वाले समय में न जाने कितने प्रधानमंत्री होंगे इनका ध्यान रखते हुए संग्रहालय का यह परिवर्तन समयोचित और व्यावहारिक है। इसी तरह अंतिम संस्कार और स्मारकों की भी व्यवस्था हो सकती है। क्या कांग्रेस अपने प्रथम परिवार के लोगों के स्थान से दूसरे को जगह देने के लिए तैयार होगी?
 
क्या देश में केवल प्रधानमंत्री को लेकर ही स्मारक या सम्मानजनक अंतिम संस्कार की बात होनी चाहिए? देश में बगैर पद लिए हुए भी अनेक लोगों का अमूल्य योगदान होता है। 1942 की क्रांति के हीरो लोकनायक जयप्रकाश नारायण और डॉ. राम मनोहर लोहिया कोई स्मारक दिल्ली में नहीं बनाया गया। जयप्रकाश जी ने 1950 के बाद पूरा जीवन गांधी जी के ग्राम स्वराज को समर्पित कर दिया था।

विकट परिस्थितियों में उन्हें 1974 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का नेतृत्व संभालना पड़ा जिसके बाद आपातकाल लगा। विविध क्षेत्र में ऐसे अनेक लोगों का योगदान इस देश को यहां तक पहुंचाने या जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने में है। इसलिए हमारे सोचने का तरीका बदलना चाहिए। 
 
बगैर जनता के बीच काम कर लोकप्रियता प्राप्त किए हुए भी कोई प्रधानमंत्री बन सकता है। इंदर कुमार गुजराल और डॉ. मनमोहन सिंह इसके उदाहरण हैं। निश्चित रूप से देश को इस दृष्टि से विचार करना चाहिए। तो तात्कालिक भावुकता या क्षणिक उत्तेजना में निष्कर्ष नहीं निकलना चाहिए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने डॉ. मनमोहन सिंह का अंतिम संस्कार संपूर्ण राजकीय सम्मान के साथ किया, सात दिनों का राजकीय शोक घोषित हुआ। कई पूर्व प्रधानमंत्रियों के लिए कांग्रेस नेतृत्व वाली सरकारों ने नहीं किया।
 
सबसे महत्वपूर्ण पहलू भारतीय संस्कार अध्यात्म और संस्कृति दृष्टि है। यहां शरीर को नश्वर माना गया है और मृत्यु के पश्चात इसका कोई मूल्य नहीं। आत्मा मूल है, अजर-अमर है, पुनर्जन्म लेती है या मोक्ष मिलता है। भारतीय दृष्टि से सोचें तो जीवन अनंत यात्राओं का नाम है।

शरीर के जीवन में हमारा नाम यहां दिया गया। अगले जन्म में कोई और रूप और नाम। इसी का ध्यान रखते हुए हमारे पूर्वजों ने मृत्यु के बाद मृतक से संबंधित सामग्रियां तक दान करने और तस्वीर तक न रखने की परंपरा बनी। समाधियां केवल उनकी होती थी, जो दिव्यता प्राप्त कर समाधि लेते थे। कब्र के रूप में समाधियों की प्रवृत्ति इस्लाम, ईसाई या यहूदी आदि में रही है। किसी का स्मारक बने इसका जीवन सत्य से कोई लेना-देना नहीं। 

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
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