28 नवंबर को होने वाले मतदान के साथ ही मध्यप्रदेश के राजनीतिक गलियारों में भले ही इंतजार भरी खामोशी छा जाएगी लेकिन 11 दिसंबर से प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में एक नए अध्याय की शुरुआत होगी।
इस बार के विधानसभा चुनाव कई मायनों में अलग इसलिए हैं कि इस बार कोई लहर नहीं है। लगातार 15 वर्षों से सत्तारूढ़ भाजपा को कांग्रेस काफी हद तक चुनौती देती नजर आ रही है। एंटीइंकम्बेंसी, भ्रष्टाचार के आरोप, केंद्र सरकार से नाराजगी, जातिगत समीकरण, वादों का पूरा न हो पाना और नेतृत्व परिवर्तन जैसे कई मुद्दे इस चुनाव में स्पष्ट असर डाल रहे हैं।
हालांकि कोई भी किसी पक्ष की जीत को लेकर आश्वस्त नहीं है। इसका कारण है कि दोनों ही प्रमुख दलों- कांग्रेस और भाजपा ने लगभग एक सी गलतियां की है।
माना जा रहा है कि 2013 में चुने गए 165 में से 75-80 मौजूदा विधायकों की टिकट काटने जैसे अमित शाह के कड़े फैसले ऊपरी तौर पर भले ही फायदेमंद दिख रहे हैं, लेकिन इसका एक बड़ा दुष्प्रभाव भाजपा में भीतरघात और बागी उम्मीदवारों के रूप में नतीजे प्रभावित कर सकता है।
इसी तरह से केंद्र सरकार द्वारा एससी-एसटी एक्ट को लेकर भी केंद्र और प्रदेश सरकार के प्रति भारी नाराजगी दिखाई दे रही है। मध्यप्रदेश में इस समय जातीय राजनीति भी अपने चरम पर दिखाई दे रही है।
प्रदेश में भाजपा के गढ़ मालवा, बुंदेलखंड, बघेलखंड और विंध्य क्षेत्र में इस बार जाति के आधार पर सीटों का निर्धारण होना संभव है। वैसे हमेशा से ही इन क्षेत्रों में जातिगत समीकरण ही किसी राजनीतिक दल के प्रतिनिधि की जीत तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते रहे हैं।
बुंदेलखंड के दतिया, दमोह, पन्ना, सागर और टीकमगढ़ जिले सर्वाधिक पिछड़े क्षेत्रों में से हैं, जहां ज्यादातर इलाके वर्षों से गरीबी, बेरोजगारी और पानी की कमी से प्रभावित है। विकास का नारा लगाने वाली भाजपा के पास 29 में 23 सीटें होने पर भी शिवराज सरकार इस क्षेत्र में कोई खास काम नहीं कर सकी और आज भी यहां 'मौसमी पलायन' एक बड़ा मुद्दा है।
इसी तरह बघेलखंड-विंध्य क्षेत्र में आने वाले रीवा, सतना, सीधी, शहडोल और सिंगरौली जिले में विशेष जातियों का बहुत दबदबा है। पिछले चुनावों में भाजपा ने यहां की 34 सीटों पर अपना परचम लहराया है, लेकिन कई स्थानीय और लोकप्रिय उम्मीदवारों को नकारे जाने पर लोग खासे नाराज हैं और जिन संभावित उम्मीदवारों को टिकट नहीं मिला है वे भाजपा के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे हैं।
इसी तरह कांग्रेस भी भाजपा में सेंध लगाने के प्रयास में दलबदलू और 'पैराशूट' उम्मीदवारों पर दांव लगा बैठी और बरसों से पार्टी का झंडा उठाए स्थानीय कार्यकर्ता ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं।
इसी तरह मालवा में कांग्रेस के ओबीसी उम्मीदवारों के प्रतिनिधित्व में कमी से कांग्रेस की सत्ता वापसी की उम्मीदों को झटका लग सकता है। ओबीसी उम्मीदवारों में बड़े पैमाने पर कटौती घातक साबित हो सकती है, क्योंकि प्रदेश में ओबीसी के मतदाता बड़े पैमाने पर हैं और प्रदेश के राजनीतिक भविष्य को तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
मालवा बेल्ट में कांग्रेस के आदिवासी वोट बैंक का विभाजन कांग्रेस के लिए बड़ी समस्या बन गया है। जय आदिवासी युवा शक्ति (जेएवायएस) के संस्थापक डॉ हीरालाल द्वारा कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने से उनके समर्थकों में गुस्सा है। माना जा रहा है कि यहां के आदिवासी वोटर अब हीरालाल और कांग्रेस के खिलाफ भी मतदान कर सकते हैं।
टिकट वितरण को लेकर जो गलतियां कांग्रेस ने की हैं लगभग वही गलतियां बीजेपी ने भी की हैं। मालवा में भाजपा के शक्तिशाली गढ़ और प्रदेश की वाणिज्य राजधानी इंदौर में आखिरी समय तक भाजपा टिकट वितरण को लेकर उहापोह में रही। यहां क्षत्रपों की आपसी लड़ाई में पार्टी का नुकसान दिखाई दे रहा है।
लेकिन कांग्रेस भी इसी समस्या से जूझ रही है। इंदौर की 'पॉवर पॉलिटिक्स' में उलझे स्थानीय नेता और करोड़पति उम्मीदवारों ने बागियों को मनाने के लिए हरसंभव प्रयास तो किए हैं, लेकिन सभी भीतरघात को लेकर भी आशंकित हैं।
महाकौशल क्षेत्र के जबलपुर में भी भाजपा और कांग्रेस में बराबर की टक्कर दिखाई दे रही है। क्षेत्र की जनता का मानना है कि जबलपुर की 8 विस सीटों में से इस बार कांग्रेस को 3 और भाजपा को 5 सीटें मिल सकती हैं। वहीं लोगों का मानना है कि यह आंकड़ा 4-4 भी हो सकता है।
कुछ ऐसा ही अनुमान कई अन्य क्षेत्रों में भी लगाया जा रहा है। वैसे मीडिया जगत में भी चर्चा चल पड़ी है कि इस बार मुश्किल है एमपी में भाजपा की नैया का पार लगना।
- वेबदुनिया डेस्क