मोदी जी,
अपने हिस्से के महिला दिवस का अंतिम संस्कार करने जा रही हूं। सोचा कि आपसे साझा करूं कि सालों से जिस महिला दिवस को लाद कर हम मुस्कुराते रहे हैं, उसका औचित्य है क्या।
यह सही है कि आप प्रधानमंत्री कुछ महीने पहले ही बने हैं। इसलिए यह खत अकेले आपके नाम नहीं है। यह खत उन सभी प्रधानमंत्रियों के नाम हैं जिन्होंने इस देश की महिलाओं के नाम नारे गढ़े, कसीदे पढ़े और जरूरत पड़ने पर आंसू भी ढुलकाए।
बात की शुरुआत निर्भया से। कब, कहां, क्या हुआ – यह सभी जानते हैं लेकिन कितनों ने यह सोचने की कोशिश भी कि जिस निर्भया के नाम पर रोटियां पका ली गईं, आज अगर वो जिंदा होती तो क्या होता। मुकेश कुमार ने इंटरव्यू में जो कहा, क्या उसने इस देश की औरत को फिर से उसी चौराहे पर लाकर खड़ा नहीं कर दिया जहां से यात्रा शुरू की गई थी। आज अगर वो जिंदा होती तो वो कैसे जूझती। अदालती कार्यवाहियों से शायद हर बार कुछ और टूटकर लौटती। अपमान के कड़वे घूंट पीती। किसी की जिरह को सिर झुकाकर सुनती और किसी तरह से यह कहती कि हां, मेरे साथ हुआ था एक घिनौना बलात्कार। तब यही समाज कुछ दिनों बाद यह भी कह लेता शायद कि वह झूठ ही बोल रही होगी या खुद ही सारे किस्से के लिए जिम्मेदार रही होगी क्योंकि शरीफ घर की लड़कियां रात को फिल्म देख कर बस में नहीं लौटतीं। ( जिस समाज के हिस्से के पास लाल और नीले रंग की बत्ती की कारें हैं, उनकी बेटियों 12 बजे का शो देख लेती हैं तो भी कुछ नहीं होता)।
इन सालों में हमारी नकारा सरकारों ने औरतों के नाम पर मुट्ठी भर के कानून बनाए। दहेज उन्मूलन संशोधन और घरेलू हिंसा का कानून। बलात्कार और एसिड के हमले को लेकर बने कानून। क्या इस देश की महिलाओं की कथित ठेकेदारी कर रहे महिला आयोग ने कभी सलीके से यह जानने की कोशिश की कि जिन औरतों को मजबूरी में इन कानूनों का सहारा लेना पड़ता है, उनकी कहानी का अंत होता कैसे हैं। उन्हें कड़वी कानूनी उलझी पहेलियों में उलझने के अलावा अपनी इज्जत को कई बार खोना पड़ता है क्योंकि अपराधी यह प्रचारित करता है कि कानून का दुरूपयोग ही हुआ होगा। इस देश में किसी भी अपराध की शिकार औरत को बार-बार पर अपनी गवाही देनी पड़ती है।
और किस मामले में क्या हुआ। वो चली गई – दिल्ली के एक होटल में मरी पाई गई। बाद में पुलिस ने माना कि वो मारी गई थी। मरने से पहले जिनसे मदद मांगी, वे किसी बड़े आदमी से उसके जुड़ाव के चलते मदद करने नहीं आए। एक और हाई-प्रोफाइल महिला करीब दो साल पहले चंडीगढ़ में मरी हुई पाई गई। यह वे औरतें थीं जो समाज के उस वर्ग से थीं जिसे एक ड्रामे के तहत सशक्त माना जाता है। क्या कभी इस देश के महिला और बाल विकास मंत्रालय ने सोचा कि सशक्त दिखने वाली महिलाएं इस देश में अशक्त कब, क्यों और कैसे होती हैं। क्या कोई ठोस कानून बना कि महिलाओं के खिलाफ किसी भी अपराध में संलिप्त व्यक्ति को कहीं कोई जगह नहीं दी जाएगी। नहीं, क्योंकि अपराधी कहां नहीं हैं और यह देश अपराधियों को सम्मान देने में महारत रखता है।
और हां, हमारे यहां महिला अपराध शाखाएं भी हैं जिनमें अक्सर उन अधिकारियों को भेज दिया जाता है जिनका महिलाओं के मुद्दे में रत्ती भर की दिलचस्पी नहीं होती। वे वहां इसलिए होते हैं ताकि स्टडी लीव पर जाए बिना काम होता रहे या फिर तबादले पर शहर से बाहर न जाना पड़े।
खैर। आज आपसे एक ही निवेदन है। आप सब कुछ ले लीजिए वापिस। जो ये ढीले-ढाले ब्लड प्रेशर के शिकार कानून सरकारों ने बनवाए हैं औरतों के नाम पर, वे भी। बस में आरक्षित सीट की तख्ती भी। बंद कर दीजिए महिला एवं बाल विकास मंत्रालय जैसे झूठ और कागजी दिलासा देने का काम करते आयोग। बिना दांत के इन विभागों का औरतें क्या करेंगी। कुछ नहीं चाहिए। हम भीख पर जिंदा नहीं रहेंगी और जब यह भीख नहीं होगी तो यह भी पक्का भरोसा रहेगा कि न कानून हमारे साथ है, न पुलिस। बिना उम्मीद के जीना ज्यादा आसान होता है।
इस देश में अपराधी लंबे समय तक मजे की जिंदगी जीता है। भारतीय फिल्म की तरह विलेन की शुरूआती ढाई घंटे की कहानी ऐशो-आराम से अंगूर खाते हुए ही गुजरती है। पिटता है वह आखिर में। कुछ मिनटों के लिए लेकिन शराफत जहर पीती है फिल्म के आखिरी सिरे तक। अपराधी कचहरियों में कलफ लगे कपड़े पहन कर रूआब से जाता है। पीड़ित की आंखें झुकी होती हैं। आज जब देश दो वकीलों को 6 महीने के लिए वकालत से बाहर कर रहा है, काश हम सोच और कह पाते कि इस देश को कानून के अंदर की बंद गलियों में झांकने की कितनी जरूरत है। काश, कोई यह भी देख पाता कि अदालतों के बेंचों के सच हैं क्या। काश, कोई यह दिखा पाता कि इस देश में न्याय की गुहार लगाना भर अपने हाथों अपना बलात्कार कराने जैसा ही है।
सच बहुत से हैं और बहुत ही कड़वे हैं। ऐसे में क्या बेटी बचाओ, क्या बेटी पढ़ाओ। आपसे प्रार्थना है कि जब सत्ताओं को अपराधियों को ही तरजीह देनी है तो नारे भी उन्हीं के लिए गढ़िए।
लेकिन प्रधानमंत्री जी, एक बात और है और यही मेरे इस खत का निचोड़ भी। आपको भी यह बात मालूम होनी चाहिए कि अपमान – अपराध – प्रार्थना - चुप्पी...के बीच इस देश की हर पीड़ित औरत के पास कोई सच है। अफसोस सिर्फ यही है कि या तो सच को बोलने से पहले उसे दीवार पर चिनवा दिया जाता है या फिर सच की चाबी किसी राजा के पास छिपी रहती है। इस देश की मर चुकी या आने वाले समय में मारी जाने वाली हर बेबस रानी की चाबी को किसी राजा ने छिपा दिया है। यकीन न हो तो जिन औरतों पर एसिड फेंका जाता है, उन्हीं से पूछ लीजिए।
वैसे जमाने को यह नहीं भूलना चाहिए कि इस देश की कागजी इमारतों में न्याय भले ही दुबक कर बैठता हो लेकिन दैविक न्याय तो अपना दायरा पूरा करता ही है। राजा भूल जाते हैं – जब भी कोई विनाश आता है, उसकी तह में होती है – किसी रानी की आह!
महिला दिवस की अस्थियां भी विसर्जित करूंगी ताकि अपने हिस्से का यह दिवस हमेशा के लिए स्वाहा कर सकूं। आप चाहें तो साथ चल सकते हैं।
वर्तिका नन्दा