यमुना नदी के किनारे एक बीहड़ वन था जिसका नाम खांडव वन था। पहले इस जंगल में एक नगर हुआ करता था, फिर वह नगर नष्ट हो गया और उसके खंडहर ही बचे थे। खंडहरों के आसपास वहां जंगल निर्मित हो गया था। इस जंगल में लाखों सर्प और जंगली जानवर रहते थे। पांडवों के समक्ष अब उस जंगल को एक नगर बनाने की चुनौती थी।
भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को खांडव वन ले जाते हैं और वहां वे उस वन खंडहरों को दिखाते हैं। अर्जुन ने पूछा कि हम इसे कैसे अपनी राजधानी बनाएंगे? तब श्रीकृष्ण विश्वकर्मा का आह्वान करते हैं। विश्वकर्मा प्रकट होकर कहते हैं कि हे प्रभु, इस खांडवप्रस्थ में मयासुर ने नगर बसाया था, जो आज खंडहर हो चुका है। मयासुर यहां के चप्पे-चप्पे को जानता है, तो क्यों नहीं आप उसी से राजधानी बनाने का कहते हैं?
(उल्लेखनीय है कि कुछ जगह पर यह भी उल्लेख मिलता है कि जब अर्जुन ने खांडववन में आग लगा दी थी तो मयासुर भी तक्षक नाग की तरह अपनी जान बचाकर भाग गया था। भगवान श्रीकृष्ण ने उसे देखकर चक्र से उसका वध करना चाहा लेकिन शरणागत होने के कारण अर्जुन ने उसे बचा लिया था। यह मयासुर ही मंदोदरी का पिता और रावण का श्वसुर था।)
तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस वक्त मयासुर कहां मिलेंगे? फिर विश्वकर्मा मयासुर का स्मरण करते हैं, तो वे प्रकट होकर पूछते हैं कि हे प्रभु, आपने मुझे क्यों याद किया? तब विश्वकर्मा कहते हैं कि ये श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं और ये यहां एक नगर का निर्माण करना चाहते हैं। यह सुनकर मयासुर अतिप्रसन्न होता है और वह श्रीकृष्ण, अर्जुन एवं विश्वकर्मा को एक खंडहर में ले जाता है। खंडहर में एक रथ रखा होता।
मयासुर कहता है कि हे श्रीकृष्ण, यह सोने का रथ पूर्वकाल के महाराजा सोम का रथ है। यह आपको आपकी मनचाही जगह पर ले जाने के लिए समर्थ है...। उस रथ में एक गदा रखी होती है जिसे दिखाते हुए मयासुर कहता है कि ये कौमुद की गदा है जिसे पांडव पुत्र भीम के अलावा और कोई उठा नहीं सकता है। इसके प्रहार की शक्ति अद्भुत है। गदा दिखाने के बाद मयासुर कहता है कि यह गांडीव धनुष है। यह अद्भुत और दिव्य धनुष है। इसे दैत्यराज वृषपर्वा ने भगवान शंकर की आराधना से प्राप्त किया था।
भगवान श्रीकृष्ण उस धनुष को उठाकर अर्जुन को देते हुए कहते हैं कि इस दिव्य धनुष पर तुम दिव्य बाणों का संधान कर सकोगे। इसके बाद मयासुर अर्जुन को अक्षय तर्कश देते हुए कहता है कि इसके बाण कभी समाप्त नहीं होते हैं। इसे स्वयं अग्निदेव ने दैत्यराज को दिया था। इस बीच विश्वकर्मा कहते हैं कि आज से इस समस्त संपत्ति के आप अधिकारी हो गए हैं पांडुपुत्र। अंत में श्रीकृष्ण कहते हैं कि मयासुर, तुम्हारी इस कृपा का हम प्रतिदान तो नहीं दे सकते लेकिन हम वचन देते हैं कि जब भी तुम हमें संकट काल में स्मरण करोगे, तो मैं और अर्जुन तुरंत ही वहां पहुंच जाएंगे। मयासुर यह सुनकर प्रसन्न हो जाता है। बाद में विश्वकर्मा और मयासुर मिलकर इंद्रप्रस्थ नगर को बनाने का कार्य करते हैं।
गांडीव धनुष : कहते हैं कि गांडीव धनुष अलौकिक था। यह धनुष वरुण के पास था। वरुण ने इसे अग्निदेव को दे दिया था और अग्निदेव से अर्जुन को प्राप्त हुआ था। यह धनुष देव, दानव तथा गंधर्वों से अनंत वर्षों तक पूजित रहा था। वह किसी शस्त्र से नष्ट नहीं हो सकता था तथा अन्य लाख धनुषों का सामना कर सकता था।
जो भी इसे धारण करता था उसमें शक्ति का संचार हो जाता था।
अक्षय तरकश : अर्जुन के अक्षय तरकश के बाण कभी समाप्त नहीं होते थे। गति को तीव्रता प्रदान करने के लिए जो रथ अर्जुन को मिला, उसमें अलौकिक घोड़े जुते हुए थे जिसके शिखर के अग्र भाग पर हनुमानजी बैठे थे और शिखर पर कपि ध्वज लहराता था। इसी के साथ उस रथ में अन्य जानवर विद्यमान थे, जो भयानक गर्जना करते थे।