- स्वाति शैवाल
वर्ष 2003, विधानसभा चुनाव के दौर की गहमागहमी। मेरे लिए इस चुनाव से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण था वो चुनाव जिसने मुझे चुनकर नईदुनिया जैसे प्रतिष्ठित अखबार की संपादकीय टीम का हिस्सा बना दिया था। हम कुल 12 लोग मार्केटिंग डिपार्टमेंट से चुने गए थे, विधानसभा चुनाव में वरिष्ठ रिपोर्टर्स को असिस्ट करने के लिए। मैं और मेरा साथी हम दोनों उन सीनियर्स को रिपोर्ट करने जा रहे थे जिनकी अब तक बाइलाइंस पढ़कर हम रोमांचित होते रहते थे।
ये असाइनमेंट का पहला दिन था। दिनभर चुनावी रैलियों और प्रत्याशियों के साथ जनसंपर्क में भाग-भागकर भी हम ऐसे उत्साहित थे जैसे हवा में उड़ रहे हों। रात 9 बजे अपनी रिपोर्ट सीनियर्स को सौंप मैं और मेरा साथी अपनी-अपनी बाइक पर बतियाते हुए हाजिरी लगाने नईदुनिया के दफ्तर पहुंचे। हमें पूरे चुनाव में यही रूटीन फॉलो करना था।
हमने सोचा था दफ्तर पहुंचकर साइन करना है, मुख्य संपादक जी और अपने बॉस को रिपोर्ट करना है और घर जाकर खाना खाकर सो जाना है। बहरहाल दफ्तर के भीतर उस समय दिन का उजाला पसरा हुआ था और लग रहा था सूरज बस अभी रोशन हुआ है। ये अखबार के दफ्तरों का टिपिकल कैरेक्टरस्टिक है। जहां रात मतलब और अधिक ऊर्जा, गहमागहमी और उजाला होता है।
खैर, रिपोर्ट करने के बाद हमें तीसरी मंजिल पर जाने को कहा गया। हमने एक-दूसरे की तरफ देखा और बिना प्रश्न किए सीढ़ियों की ओर बढ़ गए। लेकिन मन में तो प्रश्न थे। क्या डेली वेजेस के हिसाब से पेमेंट लेने ऊपर भेजा जा रहा है, क्योंकि ऊपर अकाउंट सेक्शन था? या कल के लिए कोई रणनीति डिस्कस करने के लिए ऊपर कोई मीटिंग है? लेकिन ऊपर पहुंचते ही सबसे पहले हमारा स्वागत किया मुस्कुराते हुए श्री महेंद्र सेठिया और फिर हंसते हुए श्री अभय छजलानी जी ने।
हम जब तक कुछ समझते, महेंद्र जी ने एक थाली में गर्म खाना लगाकर मेरे हाथ में पकड़ा दिया और अपनी चिरपरिचित शैली में लगभग डांटते हुए कहा, दिनभर से दौड़ रहे हो, अब पेटभर के ढंग से खाना खाओ। मैं और मेरा साथी एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। तब तक वे दूसरी थाली मेरे साथी रिपोर्टर को पकड़ा चुके थे। मैंने संकोचवश कहने की कोशिश की, सर वो खाना तो घर जाकर खाएंगे, परिवार वाले इंतज़ार कर रहे होंगे।
इस पर उन्होंने मुस्कुराते हुए फिर तेज आवाज में कहा, नहीं, अभी यहां खाकर जाओ। घर जाकर और खा लेना। भूखे यहां से नहीं जाना और कल से घर पर बोल देना, भोजन यहीं से करके जाओगी। मैंने हां में सिर हिलाया और खाने लगी, इतने में वे दो प्लेट में मीठा लेकर आए और हमारी थालियों में रखते हुए बोले, दिनभर की मेहनत के बाद इतना मीठा तो बनता है। यही तो उम्र है, खूब खाओ और डटकर मेहनत करो। यह महेंद्र जी से हमारा पहला अनौपचारिक परिचय था।
बाद में समझ आ गया कि दफ्तर में रंगपंचमी हो, चुनाव या अन्य कोई खास अवसर, खाने का शानदार इंतज़ाम महेंद्र सेठ अपनी निगरानी में करवाते थे। खुद चाहे वो मीठा न खाते हों लेकिन दूसरों को परोसते थे और सबके बाद में खुद खाना खाते थे। ये वह दौर था जब दफ्तर घर का ही एक्सटेंडेड स्वरूप नजर आता था। धीरे-धीरे यह समझ आने लगा कि यहां बॉस मतलब घर के बड़े-बुजुर्ग जो आपके खाने से लेकर समय पर घर जाने तक को लेकर चिंतित रहते हैं।
बाद के सालों में काम करते हुए यह समझ आ गया था कि महेंद्र जी मतलब काम के मामले में सख्त और व्यवहार में एकदम नरम। कितने ही किस्से उनसे जुड़े हर एक के पास थे। सबको मालूम था कि गुस्से में डांट देने वाले महेंद्र सेठ मदद के लिए हमेशा आगे खड़े रहने वालों में से एक हैं। उनके साथ सफर करने वाले ड्राइवर्स कभी भूखे नहीं रहे। चाहे महेंद्र जी रास्ते में कुछ न खाएं, लेकिन ड्राइवर को भूख लगी होगी, इसका ध्यान उन्हें रहता था।
दफ्तर में कोई मीटिंग हो या अन्य काम, महिलाएं शाम 7 बजे के बाद दफ्तर में नही रुकेंगी और रुकेंगी तो उन्हें घर छुड़वाने की व्यवस्था होगी। ये महेंद्र जी का अलिखित नियम रहा। उन्होंने कभी अपने घर की बच्चियों और हम लोगों में कोई अंतर नहीं रखा।
पत्रकारिता जगत में कई दिग्गज पत्रकार और लेखकों का पहला पड़ाव रहा नईदुनिया, लेकिन प्रबंध संपादक यहां ही नहीं पूरे पत्रकारिता जगत में हमेशा एक ही थे और एक ही रहेंगे, श्री महेंद्र सेठिया। उन जैसा व्यावहारिक और स्नेहिल इंसान बॉस के रूप में मिलना हमारा सौभाग्य था।
आज की पीढ़ी शायद ही कभी उस माहौल और उस व्यवहार की कल्पना भी कर पाएगी, जो नईदुनिया में काम करने वालों को नसीब हुआ है। चाहे तनख्वाह कम रही हो, लेकिन स्नेह और आदर में कभी कोई कमी नहीं रखी गई, इसलिए नईदुनिया आज भी हमारी रगों में दौड़ता है।