संसार में हर वर्ष करोड़ों लोग मलेरिया से पीड़ित होते हैं। 10 से 20 लाख तक उसे झेल नहीं पाते और दम तोड़ बैठते हैं। अधिकतर मृतक अफ्रीका के पाँच साल से कम आयु के बच्चे होते हैं। मलेरिया पीड़ितों को जीवनदान देने के समर्थ आर्टिमीसिनिन नामक औषधीय तत्व वाली इस समय उपलब्ध सबसे कारगर दवा इतनी मँहगी है कि वह हर किसी की पहुँच के भीतर नहीं कही जा सकती। जर्मन वैज्ञानिकों ने उसके रासायनिक संश्लेषण (सिंथेसिस) की एक ऐसी विधि खोज निकाली है, जो उसे बहुत ही सस्ता और सर्वसुलभ बना देगी।
जर्मन वैज्ञानिकों ने अपनी उपवब्धि को, मंगलवार 17 जनवरी को, पत्रकारों के समक्ष पेश किया। बर्लिन की फ्री यूनिवर्सिटी के रसायन एवंम जीवरसायन संस्थान में हुए पत्रकार सम्मेलन में उन्होंने बताया कि उनकी विधी से बनी मलेरिया की सस्ती दवा हर साल उन 20 करोड़ लोगों के प्राण बचा सकती है, जिन्हें इसके लिए आर्टिमीसिनिन चाहिए। उनकी संश्लेषण विधि से इस दवा का बहुत कम लागत पर और बहुत बड़े पैमैने पर उत्पादन करना संभव हो जाएगा।
चीनी चिकित्सा पद्धति का अंग : जड़ी-बूटियों पर आधारित चीन की पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में आर्टिमीसिनिन (C15H22O5) को 'छिंगहाओसू' कहा जाता है। मलेरिया के मच्छर द्वारा फैलाए जाने वाले रोगाणु 'प्लास्मोडियम फाल्सीपैरम' से निपटने की यही इस समय की सबसे कारगर दवा है। चीन में इस औषधीय तत्व का मलेरिया व कई प्रकार के त्वचारोगों के उपचार में लगभग डेढ़ हजार वर्षों से प्रयोग हो रहा है।
1972 में एक चीनी वैज्ञानिक डॉ. तू योऊयोऊ ने पाया कि भारत में नागदमनी कहलाने वाले 'आर्टिमीसिया एनुआ' (एन्युएल वर्मवूड) के पत्तों में भी यह औषधीय तत्व होता है और मलेरिया पैदा करने वाले परजीवियों का सबसे अधिक कुशलता के साथ सफाया करता है। इस बीच कैंसर के उपचार में भी इसका उपयोग करने के प्रयोग चल रहे हैं।
चीन और वियतनाम मुख्य उत्पादक : नागदमनी या 'आर्टिमीसिनिन अनुआ' के पत्तों और फूलों में आर्टिमीसिनिन का अनुपात उनके सूखे भार के केवल 0.01 से लेकर 0.8 प्रतिशत के ही बराबर होता है। साथ ही यह पौधा मुख्य रूप से केवल चीन और वियतनाम में मिलता है। इसलिए इस औषधीय तत्व को कृत्रिम ढंग से बनाने के प्रयास चलते रहे हैं। इसमें सफलताएँ भी मिली हैं, किंतु कृत्रीम संश्लेषण की अब तक की विधियाँ बहुत ही मँहगी पड़ती हैं। उन से आर्टिमीसिनिन मुश्किल से केवल एक प्रतिशत ही मिलता है, जबकि इससे कहीं दस गुना अधिक आर्टिमीसिनिक ऐसिड बनता है, जिसे अब तक बेकार माना जाता था।
जर्मनी में विकसित नई तकनीक : आर्टिमीसिनिक ऐसिड एक ऐसा यौगिक है, जिसे जैव-इंजीनियरिंग के द्वारा खमीर (यीस्ट) से भी प्राप्त किया जा सकता है। जर्मनी में बर्लिन के पड़ोसी नगर पोट्डाम में स्थित 'कोलाइडल्स ऐंड इंटरफेसेस (कलिलीय और अंतरापृष्ठीय पदार्थ) माक्स प्लांक संस्थान' तथा बर्लिन की फ्री यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने इसी आर्टिमीसिनिक ऐसिड से कहीं बड़ी मात्रा में आर्टिमीसिनिन प्राप्त करने का उपाय खोज निकाला है।
इस विधि से रासायनिक क्रिया के केवल एक ही चरण में, और केवल साढ़े चार मिनट में, आर्टिमीसिनिक ऐसिड के 40 प्रतिशत हिस्से को आर्टिमीसिनिन में बदला जा सकता है। इस रूपांतरण के लिए वे जिस 'प्रवाहमयी रासायनिक क्रिया' वाली युक्ति का उपयोग करते हैं, उससे हर रिएक्टर (अभिक्रिया उपकरण) प्रतिदिन 800 ग्राम आर्टिमीसिनिन पैदा कर सकता है। विश्व में इस समय इस औषधीय तत्व की सारी माँग पूरी करने के लिए ऐसे केवल 400 रिएक्टर पर्याप्त होंगे।
क़ीमत दस गुना बढ़ी : आर्टिमीसिनिन का इस समय एटीसी (आर्टिमीसिनिन कॉम्बिनेशन थेरैपी) के नाम से प्रसिद्ध कई दवाओं के मिश्रण के साथ उपयोग होता है, ताकि मलेरिया के रोगाणु की बढ़ती हुई दवा- प्रतिरोधक्षमता का डट कर प्रतिकार किया जा सके। उसकी कीमत समय के साथ दस गुना बढ़ गई है। उसके संश्लेषण का अब तक का विशुद्ध रासायनिक तरीका इतना जटिल और खर्चीला है, कि उसका व्यावहारिक उपयोग नहीं हो पा रहा था।
माक्स प्लांक संस्थान के प्रो. डॉ. पेटर जेबेर्गर और फ्री यूनिवर्सिटी बर्लिन के डॉ. फ्रौंस्वा लेवेस्क ने इस कृत्रिम संश्लेषण के लिए बड़े पैमाने पर प्रकाशरासायनिक (फोटोकेमिकल) विधि को आजमाने का निश्चय किया। अतीत में प्रकाशरासायनिक विधि के बड़े पैमाने पर प्रयोग संभव नहीं हो पा रहे थे, क्योंकि प्रकाश की अधिकतर मात्रा बड़े आकार के रिएक्टर पात्र स्वयं ही सोख लिया करते थे।
प्रकाशरासायनिक विधि : इस अवशोषण से बचने के लिए दोनो वैज्ञानिकों ने बहुत पतले किस्म के ट्यूब इस्तेमाल करने और इन ट्यूबों के माध्यम से अभिक्रिया वाले मिश्रण को ऑक्सीजन के आवेशित अणुओं वाले एक लैम्प के चारों ओर घुमाने का निश्चय किया।
ऑक्सीजन की इस आवेशित या उत्तेजित अवस्था को 'सिंगलेट ऑक्सीजन' कहा जाता है। इसका उपयोग कुछ खास किस्म की ऑक्सीकरण (ऑक्सीडेशन) क्रियाओं को संभव बनाने के लिए किया जाता है। दोनों वैज्ञानिकों ने पाया कि आर्टिमीसिनिन के संश्लेषण को लेकर उन की समस्या का यही समाधान था। संश्लेषण की आधारभूत सामग्री चाहे आर्टिमीसिनिक ऐसिड वाला अपशिष्ट पदार्थ हो या जैव-इंजीनियरिंग वाला ख़मीर हो, साढ़े चार मिनट में सारी अभिक्रिया पूरी हो जाती है।
प्रवाहमयी रासायनिक क्रिया : रासायनिक घोलों के लिए किसी प्रकार के पारंपरिक फ्लास्क नहीं इस्तेमाल किए जाते, बल्कि आवेशित ऑक्सीजन वाले लैंप पर लपेटे गए पतली दीवार के ट्यूबों में इन घोलों को पंप करते हुए प्रवाहित किया जाता है। इस विधि से प्रकाश के सीधे प्रभाव में आने वाली अभिक्रिया-सतह कई गुना बढ़ जाती है। आर्टिमीसिनिन का उपयोग अब केवल मलेरिया के उपचार में ही नहीं, स्तन कैंसर के उपचार में भी होने लगा है।
माक्स प्लांक संस्थान के प्रो. पेटर जेबेर्गर का कहना है कि संश्लेषण का 'यह तरीका उन सब लोगों की दिलचस्पी का होना चाहिए, जो मलेरिया और 'एटीसी' के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। संसार में आर्टिमीसिनिन पौधे' की 70 प्रतिशत माँग पूरी करने वाले चीन और वियतनाम इस पौधे के कचरे को सोने में बदल सकते हैं... हम उन सब लोगों के साथ सहयोग करने को तैयार हैं, जो इस दवा द्वारा लोगों की सहायता करना चाहते हैं। यह एक जीवनरक्षक दवा है और उसकी सर्वसुलभता हमारा सबसे बड़ा लक्ष्य है।'
आर्टिमीसिनिन एनुआ (नागदमनी) के पौधे की खेती भी हो सकती है। एक हैक्टर भूमि से लगभग दो टन पत्ते मिलते हैं। इन पत्तों से दो से तीन किलो सत निकलता है। पीले रंग के गाढ़े सत को सुखा कर उसके रवों से औषधीय आर्टिमीसिनिन प्राप्त करना पड़ता है।
एशिया- अफ्रीका के लिए सबसे अधिक लाभकारी : मलेरिया के रोगी को आम तौर पर उस की गोली दी जाती है। यह दवा शरीर में कैसे काम करती है और मलेरिया के रोगाणु को कैसे मारती है, वैज्ञानिक इसे अभी तक साफ समझ नहीं पाए हैं। अब तक बहुत मँहगी होने के कारण वह सब की पहुँच के भीतर भी नहीं है। उसके संश्लेषण की नई जर्मन विधि का यदि बड़े पैमाने पर उपयोग होता है, तो इससे सबसे अधिक लाभ एशिया और अफ्रीका के उन लोगों को पहुँचेगा, जो अपनी गरीबी के कारण न तो मलेरिया के मच्छरों से अपना बचाव कर सकते हैं और न बीमार हो जाने पर यह मँहगी दवा खरीद सकते हैं।