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Written By संदीपसिंह सिसोदिया

बाघों को बचाने से पहले...

Think before Saving Tigers | बाघों को बचाने से पहले...
हाल ही में रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में बाघ बचाने के लिए एक बहुत बड़ा सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में आने वाले 12 सालों में लाखों-करोड़ो डॉलर की राशि से इस संकटग्रस्त प्राणी की तादाद दोगुनी करने की योजना बनाई गई है।

विश्व के जिन 13 देशों (सिर्फ एशिया) में बाघ पाए जाते हैं उनकी सरकारें संकट में पड़े बाघों की दशा सुधारने के उपायों तथा बाघों की संख्या बढ़ाने पर सहमति के लिए चर्चा करने के बाद 2022 तक बाघों की संख्या दोगुनी यानी 6000 तक करने की योजना पर जल्दी ही काम शुरू करने पर तैयार हो गई हैं। इस सम्मेलन में दुनियाभर में बाघों के अवैध शिकार पर खासी चिंता जताई गई। भारत में होने वाले अवैध शिकार पर इस सम्मेलन में काफी चर्चा हुई।
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वन्य पशुओं के अंग व्यापार पर नज़र रखने वाली संस्था 'ट्रैफिक' का कहना है कि पिछले एक दशक में 1000 से ज़्यादा बाघों के अंग बरामद किए गए। चीन में तो यह मुद्दा अत्यधिक संवेदनशील है।

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ताकत बनी मुसीबत : जहाँ चीन में जंगली बाघ के लगभग लुप्त होने की वजह से अब बाघों की बाकायदा ब्रीडिंग करवाई जाती है और उनके अंगो जैसे खाल, हड्डियाँ व अन्य अवशेष का मेडिसिनल इस्तेमाल के नाम पर उपयोग किया जाता है। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि विश्व भर के जंगलों में रहने वाले बाघों से ज्यादा बाघ चीन में कैद में रह रहे हैं। वहीं भारत में चीन व अन्य देशों में इसके अंगों की माँग की पूर्ति के लिए इसका अवैध शिकार जमकर होता है।

और भी है खतरे : पर बाघ को बचाने के लिए मची होड़ में अभी सभी का ध्यान सिर्फ एक ही तरफ जा रहा है कि कुछ भी करके संकट में पड़े बाघों को बचाया जाए पर, एक बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा जो धीरे-धीरे हाशिए पर जा रहा है वह है बाघों को बचाने के साथ-साथ उन पशुओं, वनस्पति और पारिस्थिति तंत्र को भी संरक्षित किया जाए जो बाघ के अस्तित्व के लिए आवश्यक है।

भारी पड़ता भ्रष्टाचार : इस बार सिर्फ फंड इकठ्ठा करने से काम नहीं चलने वाला है। सर्वविदित तथ्य है कि संरक्षण के जारी की गई राशि एक बहुत बड़ा हिस्सा भ्रष्टाचार की बलि चढ़ जाता है। अब सवाल यह है कि आखिर इस होने वाली तबाही को कैसे रोका जाए। जंगल और वन्य जीवों को बचाना केवल किसी एक सरकार की ही जिम्मेवारी नहीं है। इसका बीड़ा हर किसी को उठाना पड़ेगा।
प्रोजेक्ट टाइगर पर उठे सवाल - बढ़ती योजनाएँ, घटते टाइग

(आगपढ़िए...)


जानकारी से बचेगी जान : आज सिर्फ बाघ ही खतरे में पड़ी एकमात्र प्रजाति नहीं है। पर अगर बाघ को खतरे में पड़े वन्य जीवन का प्रतीक भी बनाना है तो भी लोगों को उसके अस्तित्व के लिए जरूरी परिस्थितियों के बारे में शिक्षित करने की जिम्मेदारी भी उठानी होगी।

बाघों के आहार, उसके आवासीय क्षेत्र और अन्य नैसर्गिक आदतों के बारे में बिना खोज-बीन कर योजनाएँ बनाने से कुछ खास फर्क नहीं पड़ने वाला। उदाहरण स्वरुप प्राकृतिक वातावरण में मादा बाघ को गर्भधारण करने के लिए एक से अधिक बाघों की उपस्थिति की आवश्यकता होती है क्योकि मादा को यह निश्चित करना होता है कि उसका साथी मजबूत और ताकतवर हो जिससे वंश में ताकतवर शावक जन्म ले। मध्यप्रदेश के पन्ना में विशेषज्ञों ने यह बात ध्यान रखी और बहुत ही अच्छे परिणाम सामने आए हैं।
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इस वजह से इसके संरक्षण से जुड़े लोगों को अच्छी तरह प्रशिक्षित किया जाना बहुत जरूरी है। जंगल और मनुष्य का नाता आदिकाल से रहा है। पीढ़ियों से जंगलों के साथ रहते आए स्थानीय लोगों को बिना विश्वास में लेकर कुछ बदलने की उम्मीद कर पाना बेमानी है।

जीतना होगा भरोसा : इसलिए सबसे पहले जंगल से जुड़े क्षेत्रों के निवासियों को जोड़ना होगा। कोशिश करनी होगी की इन स्थानों को ईको टूरिज्म के तौर पर विकसित किया जाए और स्थानीय निवासियों को इस परियोजना में ज्यादा से ज्यादा रोजगार के अवसर दें, जिससे उन्हें यह बात समझ आए क‍ि वन संरक्षण से वे आर्थिक रूप से मजबूत हो सकते हैं।

इसके लिए खेती के परम्परागत तरीकों के इस्तेमाल को बढ़ावा देना होगा। जंगल भूमि पर बसे समुदायों को शिकार व अन्य आपराधिक कार्यों से विमुख कर उन्हें शिक्षित कर जंगल से जुड़े रचनात्मक कार्यों के लिए प्रेरित करना होगा।

लालफीता शाही से सने पंजे : जंगलों की रक्षा में कार्यरत अमले के साथ-साथ उच्च अधिकारियों को भी जंगल में कैम्पिंग करना होगी। वातानुकुलित कमरों में बैठ कर बाघ बचाने की योजनाएँ कितनी कारगर सिद्ध हुई है इसके नतीजे सरिस्का में देखे जा चुके हैं।

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वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड से सहायता पाने के बाद भी हालत यह है कि पर्यटकों में मशहूर सरिस्का टाइगर रिजर्व में जब एक भी बाघ नही बचा तो यहाँ पर पास के रणथम्बौर से बाघ लाए गए। पर इस योजना को भी एक झटका तब लगा जब विस्थापित किए गए एक बाघ की सन्देहास्पद परिस्थितियों में मौत हो गई।
1970 में बाघों की घटती तादाद से चिंतित सरकार ने 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर शुरू किया था जिसे अब नेशनल टाइगर कंसर्वेशन अथॉरिटी बना दिया गया है लेकिन आज भी स्थिति यह है कि लगभग सभी राष्ट्रीय पार्कों में वर्तमान में लगभग 33 प्रतिशत कर्मचारियों की कमी है।

लालफीताशाही का आलम यह है कि इन लोगों को वेतन भी समय पर नही मिलता है और इनमें से कुछ तो रिटायरमेंट के करीब हैं तो कईयों को सालों के बाद भी स्थायी नहीं किया गया है।

नाकाफी कानून : माना कि भारत में वन्य पशु संरक्षण कानून बहुत कड़े हैं, मगर इसका पालन बिरले ही होता है। वन्य जीव संरक्षण कानून के अंतर्गत बाघ को मारने पर 7 साल की सजा का प्रावधान है, पर कई मामलों में अपराधी को पकडने के बाद भी न्याय में होती देरी से निपटने के लिए विशेष तौर पर प्रस्तावित वन्यजीव अपराध शाखा के गठन पर अभी तक कोई कार्यवाही नहीं की गई है।

अधिकार की दरकार : इसके अलावा जंगल टास्क फोर्स का गठन किया जाना चाहिए और उसे पुलिस के समकक्ष अधिकार दिए जाना चाहिए। वन्य जीवों व जंगल से जुड़े मामलों के निपटारे के लिए विशेष ट्रिब्यूनल की स्थापना। सूखे व किसी भी आपदा जैसे क‍ि आग इत्याद‍ि पर तुरंत और प्रभावी कार्यवाही के लिए आपदा प्रबंधन टीमों का गठन होना चाहिए।

विभिन्न विभागों मे बेहतर तालमेल हेतु जवाबदेही निर्धारित करना होगी। अभी देखा जा रहा है पुलिस, स्थानीय प्रशासन व वन विभाग के बीच कोई तालमेल नहीं है, जिसका फायदा लकड़ी तस्कर उठाते हैं। हर वर्ष दिए जाने वाले लकड़ी या अन्य वन सामग्री एकत्रित करने के लिए दिए जाने वाले ठेकों की नियमित अंतराल पर जाँच होना चाहिए।

वन विभाग को बेहतर और आधुनिक साजो-सामान और अधिक अधिकार दिए जाएँ, जिससे वे अवैध शिकारियों व लकड़ी तस्करों का मुकाबला कर पाएँ।

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जागरुकता की जरूरत : वनों और उसमें रहने वाले प्राणियों के बारे में लोगों को जागरूक करना पड़ेगा। अगर सभी लोगों को इस समस्या के दूरगामी परिणाम पता होंगे तो निश्चित रूप से राजनैतिक पार्टियों के घोषणा-पत्रों में इस मुद्दे को भी प्रमुखता से स्थान मिलेगा और सत्ता में आने पर कोई ठोस कदम उठाया जाएगा।

साथ ही जन-सामान्य को चाहिए कि वह वन्य प्राणियों को दया व सहानुभूति की दृष्टि से देखे और ऐसे उत्पादों का बहिष्कार करे जिन्हें बनाने में वन्य जीवों के अंगों का इस्तेमाल किया जाता है। गाहे-बगाहे शहरी क्षेत्र में घुस आए किसी भी जंगली जानवर को जान से न मारें।

बरसों से चली आ रही योजनाओं और घोषणाओं के हाल देखकर लगता है कि सघन वनों से इंसानी दखल बिलकुल समाप्त कर देना चाहिए। बाघों ने प्राचीनकाल से जंगलों पर राज किया है अगर उन्हे उनके हाल पर भी छोड़ दिया जाए तो शायद सब अपने-आप ही ठीक होने लगेगा पर इसके लिए हमें भी जंगलों पर से अपने पैर वापस खींचने होंगे। अब प्राकृतिक संतुलन बनाए रखने के लिए कहीं कुछ हिस्सा तो हमें भी प्रकृति को वापस देना ही होगा।