बर्ड फ्लू का एशिया में पिछला सबसे भयंकर प्रकोप 1997 में हुआ था। लगभग 300 लोग बीमार हुए थे। करीब आधे दम तोड़ बैठे। गनीमत रही कि उस के वायरस H5N1 का सीधे मनुष्य से मनुष्य को संक्रमण नहीं लग रहा था। नीदरलैंड (हॉलैंड) की एक प्रयोगशाला ने इस वायरस को अब यह क्षमता भी प्रदान कर दी है। उस की इस सफलता से बर्ड फ्लू की रोकथाम का यदि टीका बन सकता है, तो आतंकवादियों को एक 'जैविक किलर बम' बनाने का सुराग भी मिल सकता है।
रोटरडाम नीदरलैंड ही नहीं, पूरे यूरोप का सबसे बड़ा बंदरगाह है। वहीं है नीदरलैंड का एरास्मुस विश्वविद्यालय। उस की जीवविज्ञान प्रयोगशाला वाले भवन की तीसरी मंजिल पर इस समय कड़ी सुरक्षा व्यवस्था है। वहीं रखा हुआ है वह 'किलार वायरस', जिसे जीनतकनीक के वैज्ञानिक, प्रोफ़ेसर डॉ. रोन फौशीयर और उनकी टीम ने विकसित किया है।
मूल H5N1 में अभी यह क्षमता नहीं है कि उस से संक्रमित कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को भी उस की छूत लगा सके। लेकिन, रोन फौशीयर ने जीनों की हेराफेरी द्वारा अपने H5N1 वायरस में यह क्षमता भी पैदा कर दी है।
बर्ड फ्लू फैलाने वाला मूल वायरस स्वयं भी कुछ कम घातक और संक्रामक नहीं है। लेकिन फिलहाल उसकी छूत उस से पीड़ित या मृत पक्षियों के निकट संपर्क में आने से ही मनुष्यें को भी लगती है, वर्ना नहीं। नये वायरस में सीधे मनुष्यों से मनुष्यों को छूत लगाने की क्षमता होने से वह एक महाघातक वायरस सिद्ध हो सकता है।
महाघातक वायरस : प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि एक ऐसे महामारक वायरस का विकास करने की भला जरूरत ही क्या थी, जो गलत लोगों के हाथों में पड़ कर एक महाघातक जैविक बम भी बन सकता है? प्रो. फौशीयर से जिस किसी ने यह जानना चाहा, उसे यही टका-सा जवाब मिला कि वे फिलहाल कुछ नहीं कह सकते। उन्होंने अपने मुँह पर ताला लगा रखा है, हालाँकि वैज्ञानिकों की अंतरराष्ट्रीय गोष्ठियों में अपनी खोज पर वे कई बार प्रकाश डाल चुके हैं।
वायरस बनाया टीका बनाने के इरादे से : उत्तर दिया उनके बॉस और एरास्मुस विश्वविद्यालय के मुख्य विषाणु-वैज्ञानिक प्रोफेसर डॉ. अल्बर्टुस ओस्टरहाउस ने। डच मीडिया से उन्होंने कहाइस वायरस का यदि कभी अपने आप प्राकृतिक उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) होता है और हम यह देखना चाहते हैं कि अब क्या कोई वैश्विक महामारी भी फैलती है, तो उस के विरुद्ध कोई टीका विकसित करने में कम से कम आधा साल व्यर्थ ही बीत जाएगा।
इस दौरान लाखों-करोड़ों लोग उससे बीमार हो सकते हैं और मर भी सकते हैं। हम इस तरह के प्रयोग अपनी प्रयोगशाला में कर सकने वाले विषाणु- वैज्ञानिकों की एक छोटी-सी टोली हैं। हमारा समझना है कि यदि एकदिन सचमुच कोई विश्वमहामारी फैली, तो हमारे प्रयोग के आधार पर बना टीका लाखों-करोड़ों की जान बचा सकता है।
प्रयोग का प्रकाशन रुका : H5N1 का नया उत्परिवर्तित वायरस इस समय संसार की केवल एक ही प्रयोगशाला के पास है, और वह है रोटरडाम में एरास्मुस विश्वविद्यालय की प्रयोगशाला। टीका बनाने के लिए जरूरी है कि इस उत्त्परिवर्तित वायरस संबंधी प्रयोगों के विवरण दूसरों को भी दिए जाएं या प्रकाशित किए जाएं।
सच्चाई भी यही है कि इस बारे में प्रो. फौशीयर का लिखा एक शोधपत्र अमेरिकी विज्ञान पत्रिका 'साइंस' में प्रकाशित करने के लिए उस के पास मौजूद है, लेकिन 'साइंस' का संपादकीय मंडल उसे प्रकाशित करने की हिम्मत नहीं कर पा रहा है।
'साइंस' पत्रिका असमंजस में : 'साइंस' पत्रिका ने अमेरिका के 'एडवाइज़री बोर्ड ऑन बायोसिक्यूरिटी' (जैविक सुरक्षा परामर्श मंडल) की राय माँगी है कि वह बताए कि शोधपत्र प्रकाशित किया जाए या नहीं।
इस बोर्ड ने अभी तक कोई उत्तर नहीं दिया है। अटकल यही लगाई जा रही है कि यह परामर्श मंडल लेख को प्रकाशित करने की सलाह नहीं देगा, क्योंकि खतरा यही है कि तब अमेरिका के शत्रु आतंकवादी उस के आधार पर H5N1 वायरस वाले जैविक किलर बम बना कर इस महाघातक विषाणु को हवा में फैलाने या अन्य प्रकार से भारी पैमाने पर अमेरिकी नागरिकों को उसका संक्रमण लगाने का प्रयास कर सकते हैं। एक बार इस बीमारी के फूटते ही वह हवा की तरह तेजी के ताथ पूरी दुनिया में फैल सकती है।
स्वयं वैज्ञानिक बिरादरी में भी रोटरडाम के वैज्ञानिकों की आलोचना हो रही है। कुछ का कहना है कि उन्हें इस तरह के प्रयोग करने की अनुमति ही नहीं मिलनी चाहिए थी। दूसरों का कहना है कि यह वायरस किसी दिन आतंकवादियों के भी हाथ लग सकता है।
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वायरस की सुरक्षा के लिए कड़ी व्यवस्था : एरास्मुस विश्वविद्यालय के मुख्य विषाणु वैज्ञानिक प्रो. ओस्टरहाउस इन विचारों से सहमत नहीं हैं। अपने देश के मीडिया से उन्होंने कहा हमने अपनी प्रयोगशालाओं मे जो काम किया है, वह इतना जटिल और कठिन काम है कि आतंकवादी किसी गैरेज में बैठकर उसकी नकल कभी नहीं कर सकते।
उन्होंने कहा कि ये नए वायरस किसी और के हाथ नहीं लग सकते, क्योंकि एरास्मुस विश्वविद्यालय की जीववैज्ञानिक प्रयोगशालाओं की सुरक्षा व्यवस्था और कड़ी कर दी गई है। प्रयोगशालाओं वाले कमरों में कोई अनधिकृत व्यक्ति घुस नहीं सकता। उनकी रात-दिन रखवाली की जा रही है।
खतरनाक उपलब्धि : यानी, शोधकर्ता भी मानते हैं कि जो काम उन्हों ने किया है, वह कोई निरापद उपलब्धि नहीं है। अमेरिका में मैरीलैंड विश्वविद्यालय के विषाणु वैज्ञानिक प्रों. डैनियल पेरेज एक वैज्ञानिक गोष्ठी में प्रोफ़ेसर रोन फौशीयर का शोधपत्र सुन चुके हैं।
उन की उपलब्धि के बारे में बताते हुए प्रो. पेरेज ने जर्मन रेडियो 'डोएचलांडफुंक' से कहा उन्होंने इस प्रश्न का उत्तर दिया है कि H5N1 वायरस का संक्रमण एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य को क्यों नहीं लगता? उस में क्या कमी है? क्या बदलना चाहिए? रोन फौशीयर ने यह दिखाया कि ऐसा क्या होना चाहिए कि यह वायरस एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तक भी पहुँचने लगेगा।
वायरस के जीनों में हेराफेरी : प्रो. डैनियल पेरेज़ ने बताया कि रोन फौशीयर और उन के सहयोगियों ने H5N1 वायरस के जीनों मे कुछ बदलाव लाए और हर बार चितराला (मार्टन) कहलाने वाले समूरदार स्नपायी जानवर को उसका संक्रमण लगाया। इस जानवर के शरीर में वायरस अपने आप और भी बदलता रहा। इस तरह बाद में कभी वायरस इतना बदल गया कि एक चितराला से दूसरे चितराला को अपने आप उसका संक्रमण लगने लगा। इन उत्परिवर्तनों से वायरस की प्राणघातकता कम नहीं हुई। उससे संक्रमित चितराला एक के बाद एक मरते गए।
पाँच उत्परिवर्तनों के बाद किलर वायरस तैयार : प्रो. पेरेज के अनुसार, देखा यह गया कि केवल पाँच उत्परिवर्तनों के बाद बर्ड फ्लू फैलाने वाला H5N1 वायरस इतना बदल गया कि वह हम मनुष्यों को होने वाले किसी भी फ्लू की तरह सरलता से फैलने वाला संक्रामक वायरस बन गया।
प्रो. पेरेज़ का कहना था कि इन पाँच उत्परिवर्तनों में से हर एक प्रकृति में अपने आप पहले भी हुआ देखा गया है। मनुष्यों को होने वाले फ्लू (इन्फ्लुएन्जा ज्वर) के अध्ययन के लिए चितराला सर्वोत्तम माध्यम है। कहा जा सकता है कि जो कुछ उस के साथ हो सकता है, वह हम मनुष्यों के साथ भी हो सकता है।
स्वयं वैज्ञानिक भी इस बात से इन्कार नहीं करते कि सारी सावधानियों के बावजूद प्रगशालाओं से ऐसे वायरस और बैक्टीरिया वातावरण में फैल सकते हैं, जो भारी संख्या में लोगों को बीमार कर सकते हैं। कहा जाता है कि 1970 वाले दशक में अचानक एक ऐसे फ्लू वाला वायरस फैलने लगा, जो 1918 के कुख्यात स्पेनी फ्लू वाले वायरस से बहुत मिलता-जुलता था। समझा जाता है कि वह किसी प्रयोगशाला के रास्ते से ही फैला था।
बर्ड फ्लू का हर दूसरा बीमार मौत का उम्मीदवार : 1918 वाले स्पेनी फ्लू को अब तक का सबसे जानलेवा फ्लू माना जाता है, हालाँकि उससे बीमार होने वाले केवल दो से तीन प्रतिशत लोगों को ही मरने से बचाया नहीं जा सका। जबकि 1997 वाले बर्ड फ्लू (बर्डफ्लू) से बीमार होने वाले हर दूसरे रोगी को अपनी जान गंवानी पड़ी।
बर्ड फ्लू से बीमार होने वालों की संख्या 300 के आस-पास ही इसलिए रह पाई, क्योंकि उन सभी पालतू मुर्गे़-मुर्गियों व अन्य पक्षियों को, जो बर्ड फ्लू फैलने का माध्यम बन सकते थे, सतर्कता के तौर पर करोड़ों की संख्या में पहले ही अंधाधुध मार कर जला दिया गया। करोड़ों पक्षियों को नाहक मरना पड़ा, ताकि हम मनुष्यों का कुछ न बिगड़े।
प्रकृति कहीं कुशल प्रयोगशाला : कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि प्रकृति हमारी प्रयोगशालाओं से कहीं कुशल प्रयोगशाला है। हो सकता है कि H5N1 वायरस का प्रकृति में कहीं ऐसा उत्परिवर्तित रूप भी इस बीच बन गया हो, जो एक मनुष्य के रास्ते से दूसरे मनुष्य को संक्रमित करने की क्षमता रखता हो। आज नहीं तो कल, कभी न कभी उसका हमला जरूर होगा। यदि उसकी आनुवंशिक बनावट वैसी ही हुई, जैसी रोटरडाम के वायरस की शायद है, और यदि रोटरडाम वाले वायरस की काट करने वाला टीका बन गया, तो हम उस का कहीं बेहतर ढंग से सामना कर सकते हैं।
बड़ा धर्मसंकट है। डच वैज्ञानिकों की सफलता रक्षक भी हो सकती है और भक्षक भी। टीका बनाने के विचार से उन के वायरस का भेद यदि खोला जाता है, तो आतंकवादियों की बन आएगी। यदि नहीं खोला जाता, तो उस की काट करने वाला कोई कारगर टीका भी न बन पाएगा। आगे कुआँ है, तो पीछे खाई।