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Written By WD Feature Desk
Last Modified: बुधवार, 5 मार्च 2025 (15:27 IST)

फाल्गुन मास की पूर्णिमा का क्या है महत्व?

Falgun purnima ka mahatva| फाल्गुन मास की पूर्णिमा का क्या है महत्व?
हिन्दू पंचांग के अनुसार फाल्गुन माह में आने वाली पूर्णिमा तिथि को फाल्गुन पूर्णिमा कहते हैं। इस दिन होलिका दहन के बाद होली खेली जाती है होली के दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा ही महत्व माना जाता है। आम्रमंजरी जहां प्रसन्नता और समृद्धि की द्योतक है वहीं चंदन शीतलता का प्रतीक है। 
 
पूर्णिमा आरम्भ: 13 मार्च 2025 को 10:39 से।
पूर्णिमा समाप्त: 14 मार्च 2025 को 12:28 पर।
 
फाल्गुन पूर्णिमा का महत्व: हिन्दू धर्म में फाल्गुन पूर्णिमा का धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व माना गया है। 
 
उपवास का महत्व: इस दिन सूर्योदय से लेकर चंद्रोदय तक उपवास रखने से मनुष्य के सभी दुखों का नाश हो जाता है और उस पर भगवान विष्णु की विशेष कृपा होती है। रात्रि में चंद्रमा की पूजा करनी चाहिए। 
 
होलिका दहन का महत्व: नारद पुराण के अनुसार फाल्गुन पूर्णिमा को लकड़ी व उपलों को एकत्रित करना चाहिए। हवन के बाद विधिपूर्वक होलिका पर लकड़ी डालकर उसमें आग लगा देना चाहिए। होलिका की परिक्रमा करते हुए हर्ष और उत्सव मनाना चाहिए।
 
विष्णु लक्ष्मी पूजा का महत्व: इस दिन भगवान विष्णु की पूजा करने से दरिद्रता दूर होती है और आय, सुख, समृद्धि, और सौभाग्य में वृद्धि होती है। इस दिन व्रत रखने से मनुष्य के दुखों का नाश होता है और उस पर भगवान विष्णु की विशेष कृपा होती है। इस दिन माता लक्ष्मी की पूजा करने से जीवन में आ रही आर्थिक समस्याएं दूर होती हैं। इस दिन धन की देवी माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए उन्हें खीर का भोग लगाया जाता है। इससे माता प्रसन्न होती है। इस दिन श्रीसत्यनारायण पूजा का आयोजन भी विशेष रूप से किया जाता है।
 
स्नान दान का महत्व: पूर्णिमा के दिन प्रातःकाल किसी पवित्र नदी, सरोवर या कुंड में स्नान करें और उपवास का संकल्प लें। इस दिन स्नान, दान और भगवान का ध्यान करें। इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने से सभी पाप समाप्त हो जाते हैं।
 
भक्त प्रहलाद की कथा- इस कथा के अनुसार भक्त प्रहलाद को उसके पिता असुरराज हिरण्यकश्यप ने अपने पुत्र की भक्ति को भंग करने और उसका ध्यान अपनी ओर करने के लिए लगातार 8 दिनों तक तमाम तरह की यातनाएं और कष्ट दिए थे। इसलिए यह कहा जाता है कि, होलाष्टक के इन 8 दिनों में किसी भी तरह का कोई शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। यह 8 दिन वहीं होलाष्टक के दिन माने जाते है। होलिका दहन के बाद ही जब प्रहलाद जीवित बच जाता है, तो उसकी जान बच जाने की खुशी में ही दूसरे दिन रंगों की होली या धुलेंड़ी मनाई जाती है।