समीर सरताज
कुछ है, कचोटता-सा भीतर
चोट से भी ज्यादा चोटता-सा
नोचता हुआ कोई दर्द जमाने का
बेवजह ही कोई बात जब रुला जाती है,
ऐसे में, मां बहुत याद आती है
मेरी ठोकर की मिट्टी, सिर्फ वो ही
बेगरज मेरे घुटनों से हटाती थी
जमीं से उठाती थी
मैं जब तक फिर से चलने ना लगूं,
मेरे कंधे को वो हाथ लगाती थी
वो थकन रातभर फिर से थकाती है,
ऐसे में, मां बहुत याद आती है
वो दूर से ही, मेरे हारे हुए कदमों को
भांप जाती थी
भरी आंखें देख मेरी, उसकी रूह कांप जाती थी
झट से आंचल के कोने में
वो बूंदों को बांध लेती
अनकहे ही वो मुझको, आंसुओं का मोल समझाती थी
बेमोल मोतियों की लड़ी, जब भी आंखों से टपक जाती है,
ऐसे में मां,
तू बहुत-बहुत याद आती है...