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Last Updated : सोमवार, 28 जून 2021 (14:21 IST)

रे रिव्यू: फॉर्गेट मी नॉट से लेकर स्पॉटलाइट तक

रे रिव्यू: फॉर्गेट मी नॉट से लेकर स्पॉटलाइट तक - Ray, Webseries review in Hindi, Satyajit Ray, Samay Tamrakar, Manoj Bajpayee
भारत के महानतम फिल्मकार सत्यजीत रे का यह शताब्दी वर्ष चल रहा है। कोरोना के कारण इतनी धूमधाम नहीं है, लेकिन अपने-अपने स्तर पर कुछ फिल्मकार सत्यजीत रे को याद करने का प्रयास कर रहे हैं। रे साहब एक बेहतरीन लेखक भी रहे हैं और उन्होंने कुछ लघु कहानियां भी लिखी हैं। उनकी शॉर्ट स्टोरीज़ पर बरसों पहले दूरदर्शन पर एक कार्यक्रम आया करता था। नेटफ्लिक्स पर उनकी लिखी चार शॉर्ट स्टोरीज़ पर आधारित 'रे' नामक एंथोलॉजी वेबसीरिज रिलीज हुई है। रे ने ये कहानियां वर्षों पूर्व लिखी थी। कहानियों के मूल आइडिए को लेते हुए वर्तमान के हिसाब से जरूरी परिवर्तन कर इन्हें पेश किया गया है। सत्यजीत रे की कहानियों में एक अनूठी बात हुआ करती थी जिसके इर्दगिर्द वे कहानी की बुनावट करते हैं। ये अनोखी बातें इन कहानियों में नजर आती हैं।  

 
सीरिज की शुरुआत 'फॉर्गेट मी नॉट' से होती है जो रे द्वारा लिखी शॉर्ट स्टोरी 'बिपिन चौधरी स्मृतिभ्रम' पर आधारित है। इसे श्रीजीत मुखर्जी ने निर्देशित किया है और अली फज़ल लीड रोल में हैं। यह एक ऐसे बिज़नेस मैन की कहानी जिसे अपने दिमाग पर गर्व है क्योंकि इसके बूते पर उसने कम समय में बहुत पैसा बनाते हुए अपना व्यवसाय का साम्राज्य खड़ा कर लिया है। धीरे-धीरे वह अहंकारी हो गया। अपने आगे वह किसी को कुछ समझता नहीं, इससे उसकी पत्नी, सेक्रेट्ररी, साथी दूर हो जाते हैं। वह कुछ का अहित भी कर देता है। अचानक वह बातें भूलने लगता है। जिस दिमाग पर उसे गर्व था उस पर उसका नियंत्रण छूटने लगता है। यह एक शानदार कहानी है जिसे श्रीजीत  मुखर्जी ने बहुत अच्छे से निर्देशित किया है, खासतौर पर क्लाइमैक्स को जिस तरह से फिल्माया गया है वह बहुत ही बढ़िया प्रयोग है और निर्देशक की कल्पना शक्ति को दर्शाता है। अली फज़ल ने अपना रोल बहुत अच्छे से निभाया है। एक कामयाब और आत्मविश्वास से भरपूर  बिज़नेसमैन की भूमिका को उन्होंने पूरी एनर्जी के साथ पेश कर इसे देखने लायक बनाया है। 


 
दूसरी कहानी 'बहुरूपिया' रे द्वारा लिखी गई इसी नाम की कहानी पर आधारित है जिसे श्रीजीत मुखर्जी ने ही निर्देशित किया है। रे द्वारा लिखी गई यह एक शानदार कहानी है। एक मेकअप आर्टिस्ट अपनी कला में इतना निपुण है कि वह अपना मेकअप कर दूसरा शख्स बन जाता है और उसे कोई पहचान नहीं पाता। व्यक्ति का चेहरा देख भविष्य बताने वाले बाबा के पास वह अपना रूप बदल कर पहुंच जाता है। वह बाबा को गलत साबित करना है चाहता है। केके मेनन इसमें लीड रोल में हैं। इंसान जब ऊपर वाले को चुनौती देने लगता है तो क्या अंजाम हो सकता है, ये इस कहानी में दर्शाया गया है। श्रीजीत ने कहानी के अनुरूप अच्छा माहौल बनाया है और क्लाइमैक्स आपको दंग कर देता है। केके मेनन मंझे हुए एक्टर हैं, यह बात फिर साबित करते हैं।  

 
अभिषेक चौबे ने तीसरी कहानी 'हंगामा क्यों है बरपा' निर्देशित की है। गज़ल गायक मुसाफिर अली (मनोज बाजपेयी) और पहलवानी से रिटायर होने के बाद खेल पत्रकार बने असलम बेग (गजराज राव) की मुलाकात ट्रेन के डिब्बे में होती है। दोनों इससे पहले भी मिल चुके हैं, लेकिन असलम को यह बात याद नहीं है। मुसाफिर अली अच्छा इंसान है, लेकिन छोटी-छोटी चीजों को चुराने की उसकी आदत थी जो अब छूट चुकी है। कहानी में अनोखी बात 'रूह सफा' नामक एक दुकान है। यदि आप चुराई चीजों को लेकर ग्लानि से पीड़ित हैं तो वहां जाकर चुराई चीजों को जमा किया जा सकता है। ये बतौर लेखक रे की कल्पनाशक्ति को दर्शाता है। प्रस्तुतिकरण के लिहाज से कहानी को लंबा खींचा गया है, हालांकि मनोज और गजराज की बातचीत मजेदार है, लेकिन इसे कम किया जा सकता था। मनोज और गजराव शानदार एक्टर हैं और दोनों की जुगलबंदी देखने लायक है। अभिषेक ने सेट का अच्छा उपयोग किया है, लेकिन पहली दो कहानियों जैसी कसावट 'हंगामा क्यों है बरपा' में नजर नहीं आती। 

 
अंतिम कहानी 'स्पॉटलाइट' वासन बाला द्वारा निर्देशित है और इसमें हर्षवर्धन कपूर लीड रोल में हैं। स्पॉटलाइट इस एंथोलॉजी फिल्म की सबसे कमजोर कड़ी है। कहानी एक फिल्म एक्टर वीके की है जिसकी फिल्में तो सफल हैं, लेकिन अभिनय के मामले में वह फिसड्डी है। वह एक होटल में रूकता है, लेकिन तब ईर्ष्या से जल जाता है जब उसी होटल में दीदी नामक एक महिला संत रूकती है जिसकी लोकप्रियता वीके से बहुत ज्यादा है। आखिरकार वीके उससे मिलता है और दीदी की कुछ बातें जान दंग रह जाता है। जो प्रभाव इस कहानी का है वो प्रस्तुतिकरण में उभर कर सामने नहीं आ पाया। वासन बाला का प्रस्तुतिकरण दोहराव का शिकार रहा और हर्षवर्धन को चुन कर उन्होंने गलती की। हर्षवर्धन कहीं से भी स्टार नहीं लगते और उनका अभिनय प्रभावित नहीं कर पाता, लिहाजा स्पॉटलाइट बेहद बोरिंग लगती है। 
 
इस बात में कोई शक नहीं है कि सत्यजीत रे एक महान लेखक भी थे। उनकी कहानियां यदि चुनी जाती हैं तो उस तरह के निर्देशक भी चुने जाने चाहिए जो उनकी कहानियों के साथ न्याय कर सके। 'रे' में कुछ जगह ये कमजोरियां झलकती हैं, लेकिन इसके बावजूद इसे वक्त दिया जा सकता है।  
 
निर्देशक : श्रीजीत मुखर्जी, अभिषेक चौबे, वासन बाला
कलाकार : मनोज बाजेपयी, केके मेनन, अली फज़ल, हर्षवर्धन कपूर
* नेटफ्लिक्स पर उपलब्ध 
रेटिंग : 3/5