सर्कस फिल्म समीक्षा: एरर ही एरर, कॉमेडी का नामोनिशान नहीं
क्या नहीं था रोहित शेट्टी के पास? एक उम्दा कहानी, शानदार स्टारकास्ट और फिल्म बनाने के लिए खूब सारा पैसा। लेकिन रोहित ढंग की फिल्म नहीं बना पाए। 'सर्कस' में न कॉमेडी है और न ही मनोरंजन। पूरी फिल्म में दर्शक हंसने का अवसर ढूंढते रहते हैं, लेकिन एक भी ऐसा सीन बन नहीं बन पाया कि आप हंसते-हंसते लोटपोट हो जाएं।
शेक्सपीयर के लिखे नाटक 'द कॉमेडी ऑफ एरर्स' पर आधारित हिंदी में दो खूबसूरत फिल्में बनी हैं, दो दूनी चार और अंगूर, इन्हीं फिल्मों की कॉपी ही रोहित शेट्टी कर लेते तो अच्छी फिल्म बन सकती थी। दो नौजवान हैं जिनकी तरह हूबहू दिखने वाले हमशक्ल भी मौजूद हैं। कन्फ्यूजन क्रिएट कर बहुत ही अच्छी हास्य फिल्म बनाई जा सकती थी। गुलजार ने कितने उम्दा तरीके से अंगूर बनाई थी, लेकिन रोहित से यह काम नहीं हो पाया। ऊपर से रोहित ने अपनी फिल्म बनाने की शैली का तड़का भी लगाया जिससे स्वाद और खराब हो गया।
फिल्म में नकलीपन हद से ज्यादा हावी है। रोहित शेट्टी ने फेयरी टेल की तरह सेट बनाए है, लेकिन बनावटी हैं। लेकिन रंग इतने ज्यादा उड़ेल दिए हैं कि आंखों को चुभने लगते हैं। कलाकारों का मेकअप और अजीबोगरीब विग भी माहौल बिगाड़ने का काम करती है। पचास और साठ का दशक दिखाने के चक्कर में कलाकारों से लाउड एक्टिंग करवा ली गई है जिससे पूरी तरह से मामला बिगड़ गया है।
रोहित और उनकी टीम ने अपनी पुरानी फिल्मों से भी सीन और किरदार उठा लिए हैं। 'चेन्नई एक्सप्रेस' से दीपिका का किरदार, 'गोलमाल' का अनाथालय, 'गोलमाल' की तर्ज पर फाइटिंग सीन, ये सब इतनी बार दोहरा लिया गया है कि अब बासी माल लगता है। रोहित को अब नया सोचना चाहिए। गोलमाल और सिंघम से बाहर निकलने की जरूरत है। अपने प्रस्तुतिकरण में ताजगी लाने की जरूरत है।
रॉय (रणवीर सिंह) और जॉय (वरुण शर्मा) बैंगलोर के रहने वाले हैं और उनके दो हमशक्ल इसी नाम से ऊटी में मौजूद हैं। ऊटी में जब ये चारों मौजूद होते हैं तो इनके आसपास के लोग कन्फ्यूज हो जाते हैं और हास्यास्पद परिस्थितियां पैदा होती हैं। कॉमेडी के लिए इससे बेहतर माहौल नहीं बन सकता। पूरा मैदान खाली था, रोहित को खेलने के लिए, लेकिन वे आउट होकर पैवेलियन जा बैठे।
स्क्रीनप्ले इतना सपाट तरीके से लिखा गया है कि हैरत होती है लेखकों की टीम पर। न सिचुएशन फनी बना पाए और न ही गुदगुदाने वाले संवाद लिख पाए। इंटरवल के पहले तक फिल्म में एक भी ऐसा दृश्य नहीं है जो आपके चेहरे पर मुस्कान तक ला सके। फिल्म के किरदार अजीब तरह का व्यवहार करते हैं। बात को इतना ज्यादा खींचा गया है कि बोरियत होने लगती है। दर्शक हैरान रह जाते हैं कि आखिर हो क्या रहा है?
इंटरवल के बाद दो-चार दृश्यों को छोड़ दिया जाए तो स्थिति बदलती नहीं। क्लाइमैक्स में तो धूम-धड़ाके की उम्मीद रहती है, लेकिन मामला फुस्सी बम की तरह रहता है।
आमतौर पर देखने में आता है कि लेखकों की कमी को रोहित शेट्टी अपने कुशल निर्देशन की आड़ में छिपा लेते हैं, लेकिन यहां वे नाकाम रहे। ऐसा लगा मानो रोहित ने फिल्म को अपने सहायकों से निर्देशित करवा लिया। फिल्म के एडिटर ने भी कामचलाऊ ढंग से काम किया है।
रणवीर सिंह ने मासूम बनने की खूब एक्टिंग की, लेकिन उनकी कोशिश साफ नजर आती है। पूजा हेगड़े और जैकलीन फर्नांडिस के हिस्से में कुछ नहीं आया। वरुण शर्मा ही रंग में नजर आए। संजय मिश्रा ने जम कर ओवर एक्टिंग की और जम कर बोर किया। जॉनी लीवर, सिद्धार्थ जाधव, मुरली शर्मा, सुलभा आर्या की एक्टिंग औसत रही और इसमें दोष स्क्रिप्ट का ज्यादा है।
बैकग्राउंड म्यूजिक ठीक-ठाक है और वो भी इसलिए कि इसमें पुराने हिट गानों का इस्तेमाल किया गया है। गाने औसत दर्जे के हैं। केवल दीपिका पादुकोण पर फिल्माया गया गाना ही ठीक-ठाक है। तकनीकी रूप से भी फिल्म औसत दर्जे की है।
कुल मिलाकर इस सर्कस का हाल उजड़े हुए तंबू की तरह है।