देवी पूजन में विसर्जन का महत्व, जानिए...
* आध्यात्मिक जगत में विसर्जन का महत्व जानिए...
इसी 26 मार्च, सोमवार चैत्र शुक्ल दशमी तिथि को 9 दिनों से चले आ रहे चैत्र नवरात्रि समाप्त जाएंगे।
इस दिन जवारे एवं देवी प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाएगा। हमारी सनातन परंपरा में विसर्जन का विशेष महत्व है। विसर्जन अर्थात पूर्णता फिर चाहे वह जीवन की हो, साधना की हो या प्रकृति की। जिस दिन कोई वस्तु पूर्ण हो जाती है, तो उसका विसर्जन अवश्यंभावी हो जाता है। आध्यात्मिक जगत में विसर्जन समाप्ति की निशानी नहीं, अपितु पूर्णता का संकेत है। देवी विसर्जन के पीछे भी यही गूढ़ उद्देश्य निहित है।
हम शारदीय नवरात्र के प्रारंभ होते ही देवी की प्रतिमा बनाते हैं, उसे वस्त्र-अलंकारों से सजाते हैं। 9 दिन तक उसी प्रतिमा की पूर्ण श्रद्धाभाव से पूजा-अर्चना करते हैं और फिर एक दिन उसी प्रतिमा को जल में विसर्जित कर देते हैं। विसर्जन का यह साहस केवल हमारे सनातन धर्म में ही दिखाई देता है, क्योंकि सनातन धर्म इस तथ्य से परिचित है कि आकार तो केवल प्रारंभ है और पूर्णता सदैव निराकार होती है।
यहां निराकार से आशय आकारविहीन होना नहीं अपितु समग्ररूपेण आकार का होना है। निराकार अर्थात जगत के सारे आकार उसी परामात्मा के हैं। मेरे देखे निराकार से आशय है किसी एक आकार पर अटके बिना समग्ररूपेण आकारों की प्रतीति। जब साधना की पूर्णता होती है तब साधक आकार-कर्मकांड इत्यादि से परे हो जाता है।
तभी तो बुद्ध पुरुषों ने कहा है- 'छाप-तिलक सब छीनी तोसे नैना मिलाय के...।'
नवरात्र के ये 9 दिन इसी बात की ओर संकेत हैं कि हमें अपनी साधना में किसी एक आकार पर रुकना या अटकना नहीं है अपितु साधना की पूर्णता करते हुए हमारे आराध्य आकार को भी विसर्जित कर निराकार की उपलब्धि करना है। जब इस प्रकार निराकार की प्राप्ति साधक कर लेता है तब उसे सृष्टि के प्रत्येक आकार में उसी एक के दर्शन होते हैं जिसे आप चाहे तो 'परमात्मा' कहें या फिर कोई और नाम दें। नामों से उसके होने में कोई फर्क नहीं पड़ता।
साधना की ऐसी स्थिति में उपनिषद का यह सूत्र अनुभूत होने लगता है- 'सर्व खल्विदं ब्रह्म' और यही परमात्मा का एकमात्र सत्य है।
-ज्योतिर्विद पं. हेमन्त रिछारिया