1. ये न थी हमारी क़िस्मत, के विसाल-ए-यार होता अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता
तेरे वादे पे जिए हम, तो ये जान झूट जाना के ख़ुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता
तेरी नाज़ुकी से जाना के बंधा है एहद-ए-बूदा कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार होता
कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीम कश को ये खलिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता
ये कहाँ की दोस्ती है के बने हैं दोस्त नासेह कोई चारा साज़ होता, कोई ग़मगुसार होता
रग-ए-संग से टपकता, वो लहू के फिर न थमता जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार होता
ग़म अगरचे जाँ गुसल है, प बचें कहाँ के दिल है ग़म-ए-इश्क़ गर न होता, ग़म-ए-रोज़गार होता
कहूँ किस से मैं के क्या है, शब-ए-ग़म बुरी बला है मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार होता
हुए हम जो मर के रुस्वा हुए क्यों न ग़र्क़-ए-दरिया न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता
उसे कौन देख सकता के यगाना है वो यकता जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता
ये मसाइल-ए-तसव्वुफ़ ये तेरा बयान ग़ालिब तुझे हम वली समझते जो न बादाख़्वार होता
कठिन शब्दों के अर्थ--- बादाख़्वार---शराब पीने वाला, मसाइल-ए-तसव्वुफ़----अध्यात्म की बातें वली---ईश्वर की याद में खोया हुआ--अल्लाह वाला ग़र्क़ होना ----डूबना, शब-ए-ग़म ----दुखभरी रात जाँगुसल------जान लूटने वाला, ग़म-ए-रोज़गार --दुनिया के दुख शरार ---चिंगारी, नासेह ----नसीह अत करने वाला चारा साज़ ---इलाज करने वाला, ग़मगुसार --ग़म बाँटने वाला एहद-ए-बूदा---कच्चा वादा, उस्तवार ---सीधा, मज़बूत
2. शौक़ हर रंग रक़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ निकला क़ैस तस्वीर के परदे में भी उरियाँ निकला
ज़ख़्म ने दाद न दी तंगी-ए-दिल की यारब तीर भी सीना-ए-बिस्मिल से पुरअफ़शाँ निकला
बू-ए-गुल, नाला-ए-दिल, दूद-ए-चिराग़-ए-महफ़िल जो तेरी बज़्म से निकला सो परेशाँ निकला
दिल-ए-हसरत ज़दा था, मादा-ए-लज़्ज़त-ए-दर्द काम यारों का बक़द्र-ए-लब-ओ-दनदाँ निकला
ऎ नोआमूज़-ए-फ़ना, हिम्मत-ए-दुश्वार पसंद सख़्त मुश्किल है के ये काम भी आसाँ निकला
दिल में फिर गिरये ने इक शोर उठाया ग़ालिब आह जो क़तरा न निकला था सो तूफ़ाँ निकला
कठिन शब्दों के अर्थ--- र्क़ीब-ए-सर-ओ-सामाँ----साज़ोसामान का दुश्मन क़ैस----मजनू, उरियाँ----नंगा, तंगी-ए-दिल---दिल का तंग होना. पुरअफ़शाँ---भरा हुआ, बू-ए-गुल--फूल की ख़ुशबू नाला-ए-दिल----दिल का रोना चिल्लाना. दूद-ए-चिराग़-ए-महफ़िल------महफ़िल के दिये का धुआँ
3. दर्द मिन्नत कश-ए-दवा न हुआ मैं न अच्छा हुआ, बुरा न हुआ
है ख़बर गर्म उनके आने की आज ही घर में बोरिया न हुआ
जमअ करते हो क्यों रक़ीबों को इक तमाशा हुआ गिला न हुआ
क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी बन्दगी में मेरा भला न हुआ
हम कहाँ क़िस्मत आज़माने जाएँ तू ही जब ख़ंजर आज़मा न हुआ
कितने शीरीं हैं तेरे लब के रक़ीब गालियाँ खा के बेमज़ा न हुआ
जान दी, दी हुई उसी की थी हक़ तो ये है के हक़ अदा न हुआ
थी ख़बर गर्म के ग़ालिब के उड़ेंगे पुरज़े देखने हम भी गए थे प तमाशा न
कठिन शब्दों के अर्थ -- मिन्नत कशे दवा-----दवा का अहसानमन्द बोरिया----बिस्तर, रक़ीबों----दुश्मनों गिला------शिकायत, शीरीं----मीठे नमरूद----बादशाह का नाम जो अपने आप को ख़ुदा कहता था लब के रक़ीब-----होंटों से निकले हुए कड़वे शब्द