26 मई को एक साल पूरा कर रही केन्द्र की मोदी सरकार जनता के बीच अपने काम काज का लेखा-जोखा पेश कर सकती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि जनता में यह सकारात्मक संदेश जाए कि सरकार ने एक साल के कार्यकाल में जनता के हित में काम किए हैं, इसलिए सरकार के सभी मंत्रालयों को अपने कामकाज का एक रिपोर्ट कार्ड तैयार कर प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजना होगा। प्रधानमंत्री कार्यालय में इस रिपोर्ट कार्ड को अंतिम रूप दिया जाएगा और फिर बुकलेट के रूप में वितरित करने की योजना है।
मोदी सरकार के इस कामकाज की रिपोर्ट में उन ड्रीम प्रोजेक्टों के बारे में बात की जाएगी जिन्हें केन्द्र सरकार ने बड़े जोर शोर से किया था। सरकार की महत्वाकांक्षी योजनाओं के साथ-साथ स्वच्छ भारत अभियान, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ योजना, गंगा को स्वच्छ बनाने, मेक इन इंडिया, डिजिटल भारत, जनधन खाता जैसी योजनाओं पर पूरा फोकस होगा। सोशल मीडिया पर भी जमकर प्रचार किया जाएगा।
केन्द्र सरकार यह भी बताने की कोशिश करेगी कि मोदी सरकार के केन्द्र में आने के बाद से एक साल में सरकारी योजनाओं को किस तरह आसान बनाने और भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने की कोशिश की गई। साथ ही विदेशी मोर्चे पर किस तरह से केन्द्र सरकार ने झंडे गाड़े हैं। एक साल पूरे होने पर भाजपा के सभी सांसद अपने अपने क्षेत्रों में जनता से संवाद कार्यक्रम करेंगे। इसके जरिए वे सरकार के एक साल की उपलब्धियां जनता को गिनाने की जिम्मेदारी निभाएंगे।
भाजपा संगठन भी सरकार के इस स्तुतिगान में सहभागी बनेगा। रैली करने पर भी मंथन हो रहा है और इस बात की भी संभावना है कि इस रैली को मोदी संबोधित करें। वे रेडियो पर भी अपने मन की बात देशवासियों से कर सकते हैं, लेकिन अगर कटु सच्चाई के ठोस नजरिए से एक साल के कार्यकाल का आकलन किया जाए तो यह कहना गलत न होगा कि लोगों के इतने व्यापक जन समर्थन के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार कुछ खास करने में सफल नहीं हो सकी है।
1. उम्मीदों पर खरा नहीं उतरे : एक साल में कुछ ठोस नहीं कर पाई मोदी सरकार। सत्ता संभालने के बाद पीएम नरेंद्र मोदी उम्मीदों, निराशा, उपलब्धियों और नाकामियों जैसे तमाम पहलुओं को देख चुके हैं। पिछले वर्ष लोगों को बदलाव का मौका मिला और उन्होंने अपने मताधिकार का प्रयोग करते हुए सत्ता में बदलाव भी कर दिया, लेकिन भाजपा और इसके सहयोगी दलों को जितना प्रचंड बहुमत मिला है, उससे यह भी साबित होता है कि लोगों की मोदी सरकार से बहुत अधिक उम्मीदें रही थीं। ये लोग अपनी जिंदगी में नाटकीय तरीके से बेहतरी की उम्मीद कर रहे थे। पर ऐसा हो नहीं सका।
2. नहीं आए अच्छे दिन : लोगों को उम्मीद थी कि उनके पास अधिक आय होगी, सुरक्षा व्यवस्था बेहतर होगी और उन्हें नई-नई सहूलियतें मिलेंगी। हर चुनाव में इसी उम्मीद के साथ मतदाता वोट करते हैं लेकिन अंत में उन्हें बहुत थोड़े से संतोष करना पड़ता है या फिर उन्हें निराशा मिलती है।
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3. गैर जरूरी मुद्दों पर लगाया समय : मोदी सरकार के एक वर्ष के शासन में भी लोगों को लगने लगा है कि वे जितनी शीघ्रता से और अधिक बदलाव उम्मीद कर रहे थे। ऐसा संभव नहीं हुआ और जो थोड़ा बहुत हुआ है उससे आम आदमी के दैनिक जीवन में किसी बड़े परिवर्तन को नहीं देखा जा सकता है। हालांकि इस बात उम्मीद बहुत ज्यादा थी क्योंकि पिछले तीन दशक में पहली बार एक पार्टी के बहुमत वाली सरकार आई। पर ऐसा लगता है कि बहुत सारा समय और ऊर्जा गैर-जरूरी मसलों पर जाया हो गए।
4 . पीएमओ केंद्रित हुए तबादले- भर्तियां : भर्तियां सत्ता के कामकाज में ऐसा बदलाव हुआ है कि सभी भर्तियां पीएमओ ऑफिस में केंद्रित हो गई हैं और कई संस्थाएं बिना किसी नेतृत्वकर्ता के चल रही हैं और इस स्थिति को सुधारने के लिए भी सक्रियता नहीं नजर आती। सरकार में पुरानी सरकार के बनाए ढांचे को खत्म करने पर ज्यादा जोर है। आजादी के बाद विकास के लिए गंवाए गए मौकों को लेकर जोर-जोर से अफसोस जताया जा रहा है।
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5 . मध्यम वर्ग का ध्यान नहीं : कुछ चुभते सवाल किए जा सकते हैं कि क्या इस सरकार ने जल्द से जल्द काम शुरू करने के लिए मौके का इस्तेमाल किया? क्या भारत का बेहतर भविष्य बनाने के लिए सरकार ने सही दिशा में अगुवाई की? इसका जवाब नहीं में है। वास्तव में राजस्व संकट से जूझ रही सरकार ने सामाजिक क्षेत्र पर खर्च में कटौती की है।
मोदी सरकार ने केंद्र सरकार की तरफ से प्रायोजित रूरल ड्रिंकिंग वॉटर प्रोग्राम से भी अपने हाथ खींच लिए हैं। संभवत: सरकार का ग्रामीण क्षेत्रों के निवासियों से कहना है कि वे अपने पानी पीने का इंतजाम खुद करें जैसेकि वित्त मंत्री कहते हैं कि मध्यम वर्ग का अपना खयाल खुद रखना चाहिए।
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6 . सामाजिक क्षेत्र के बजट में कटौती : इस वर्ष के बजट में सरकार ने स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में 15 फीसदी की कटौती की। ग्रामीण विकास विभाग के बजट में 10 फीसदी की कमी की गई। महिला और बाल विकास मंत्रालय का बजट घटाकर आधा कर दिया गया है।
7. शिक्षा बजट में कटौती : वित्त मंत्री ने शिक्षा के बजट में 16 फीसदी की कटौती कर दी। वह भी तब उनका आर्थिक सलाहकार ने इकोनॉमिक सर्वे में एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि स्कूलों में छात्रों की संख्या बढ़ने के बावजूद साक्षरता काफी कम है। ग्रामीण बच्चों में पांचवीं क्लास के ऐसे बच्चों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, जो बमुश्किल दूसरी कक्षा की किताब पढ़ सकते हैं। एक ऐसे देश के लिए इसका क्या मतलब है, जिसका मकसद संपूर्ण साक्षरता हासिल करना है।
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8 . कैसे बनेगा मेक इन इंडिया ? : पिछले वर्ष की लेबर ब्यूरो रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में कुशल कामगारों की संख्या महज 2 फीसदी है। जबकि दक्षिण कोरिया में 96 फीसदी स्किल्ड कर्मचारी हैं और जापान में इनकी संख्या 80 फीसदी तक है। सरकार के ही आर्थिक सर्वेक्षण में इस बात की संभावना काफी कम बताई गई है कि सरकार 2022 तक अतिरिक्त 12 करोड़ कुशल कामगारों का लक्ष्य पूरा कर सकेगी।
9. आबादी बढ़ाने से होगा विकास? : दूसरी तरफ, संघ परिवार से जुड़ी विश्व हिन्दू परिषद और भाजपा के कई सांसद हिन्दुओं से ज्यादा से ज्यादा बच्चे पैदा करने की अपील कर रहे हैं ताकि हिन्दुओं की आबादी तेजी से बढ़ सके।
क्या आजादी के इतने साल बाद भी हमें देश के सभी नागरिकों के लिए रोटी, कपड़ा और मकान सुनिश्चित करने पर फोकस नहीं करना चाहिए? लेकिन दु: ख का विषय है कि सरकार का ध्यान देश की आबादी के बहुत अधिक गरीब लोगों की इन बुनियादी जरूरतों पर ध्यान केन्द्रित करना नहीं है। उसका सारा ध्यान ऐसे आर्थिक सुधारों को लागू करने पर है जिनका आबादी के एक बड़े तबके का कोई लेना-देना नहीं होता है।
10. नहीं मिला पेट्रोल उत्पादों के दामों में कमी का लाभ : यूपीए के कार्यकाल के दौरान पेट्रोल और डीजल के दामों में वृद्धि को लेकर भाजपा ने उस पर खूब निशाना साधा। लोकसभा चुनाव में प्रचार सभाओं में नरेन्द्र मोदी ने पेट्रोलियम पदार्थों के बढ़ते भावों को लेकर यूपीए सरकार को कमजोर बताया, लेकिन सत्ता में आते ही मोदी सरकार ने भी पेट्रोल और डीजल के दामों में लगातार बढ़ोतरी की।
हालांकि अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतों में गिरावट से दाम घटे भी, लेकिन विपक्ष मोदी सरकार पर यह आरोप लगाता रहा कि बड़ी गिरावट के बाद भी तेल कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए मोदी सरकार ने दामों में उनकी कटौती नहीं की, जितनी होनी चाहिए थी।