नई दिल्ली, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मद्रास और मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एमआईटी) के शोधकर्ताओं को एक संयुक्त अध्ययन में 3डी प्रिंटेड बायोरिएक्टर की मदद से मानव मस्तिष्क में पाए जाने वाले ऊतक, जिन्हेंऑर्गेनाइड्सकहा जाता है, विकसित करने में सफलता मिली है।
शोधकर्ताओं का कहना है कि इस अध्ययन में उपयोग की गई 3डी प्रिंटेड बायोरिएक्टर प्रौद्योगिकी अल्जाइमर्स एवं पार्किन्संस जैसे तंत्रिका-तंत्र विकारों और कैंसर संबंधी मेडिकल एवं उपचार से जुड़ी नयी खोजों में तेजी लाने में मददगार हो सकती है।
आईआईटी मद्रास के वक्तव्य में बताया गया है कि 3डी प्रिंटेड बायोरिएक्टर इस अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं ने विकसित किया है।
अध्ययन से जुड़े शोधकर्ताओं का कहना है कि इस शोध का प्रमुख उद्देश्य मस्तिष्क ऊतकों के विकसित होने की कार्यप्रणाली को बेहतर तरीके से समझना है।
चाहे कोविड-19 के लिए पूर्व-चिकित्सीय अध्ययन हों, कैंसर की दवा की खोज हो, या फिर मनुष्यों के उपयोग से जुड़ी अन्य दवाओं का मामला, सेल कल्चर (कोशिका संवर्द्धन) को मानव अंगों के मॉडल की पुष्टि करने से संबंधित मूलभूत चरणों में से एक माना जाता है। हालांकि, दवाओं के प्रभाव की बेहतर समझ प्राप्त करने के दौरान कोशिकाओं को विकसित करने की लंबी अवधि में, और वास्तविक समय में उनका अध्ययन करने में, शोधकर्ताओं को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
वर्तमान सेल कल्चर प्रोटोकॉल्स में इनक्यूबेशन और इमेजिंग दोनों के लिए अलग-अलग चेंबर होते हैं। इसमें आवश्यकता यह होती है कि कोशिकाएं इमेजिंग चेंबर से भौतिक रूप से रूप स्थानांतरित हों। हालांकि, इस प्रक्रिया में गलत नतीजों और संदूषण की आशंका बढ़ जाती है। इसी जोखिम को कम करने के लिए आईआईटी मद्रास और एमआईटी के वैज्ञानिकों ने एक ऐसा समाधान खोजा है, जो कोशिकाओं को निर्बाध रूप से विकसित होने के लिए आधार उपलब्ध कराता है।
शोधकर्ताओं ने 3डी प्रिंटेड माइक्रो-इनक्यूबेटर और इमेजिंग चेंबर विकसित किया है, जो हथेली में समा जाने वाली एक सरल संरचना है। इसमें दीर्घकालिक मानव मस्तिष्क कोशिकाओं के कल्चर और वास्तविक समय में इमेजिंग को सफलतापूर्वक प्रदर्शित किया गया है।
आईआईटी मद्रास के इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर अनिल प्रभाकर ने बताया कि “गत एक वर्ष से हम इस शोध पर काम कर रहे हैं। हमारे पास इस शोध में प्रयुक्त क्लास-3 प्रयोगशाला नहीं थी, जिसमें एमआईटी की ओर से हमें सहायता मिली है। इस शोध के कुछ और निष्कर्ष हमें भविष्य में मिल सकते हैं, जिसके लिए हम प्रयासरत हैं।”
डॉ प्रभाकर ने बताया कि “इस अध्ययन में विकसित माइक्रो-इनक्यूबेटरडिजाइन एक माइक्रोफ्लूडिक तकनीक है। इससे मूलभूत एवं अनुप्रयुक्त विज्ञान से जुड़े अध्ययनों में ऑर्गेनॉइड की प्रतियां विभिन्न कूपों में एक साथ निर्मित की जा सकती हैं। यह बायोरिएक्टर विभिन्न प्रोटोकॉल्स के माध्यम से पूरी तरह स्वचालित हो सकता है। दवाओं की खोज में इसके व्यापक उपयोग की संभावनाएं हैं। इससे श्रम, लागत और गलतियों की गुंजाइश कम हो सकती है। इस माइक्रो-इनक्यूबेटर के साथ विभिन्न पर्यावरणीय सेंसर लगाए जा सकते हैं। यह उपकरण लाइव-सेल इमेजिंग के लिए उपलब्ध सभी तरह के सूक्ष्मदर्शियों के अनुकूल है।”
आईआईटी मद्रास द्वारा इन्क्यूबेट स्टार्टअप आईएसएमओ बायो-फोटॉनिक्स के सीईओ एवं इस अध्ययन के प्रमुख शोधार्थी इकरम खान एस.आई.ने बताया कि “यह तकनीक हेल्थकेयर और फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्री में दूरगामी महत्व रखने वाली है। किसी मरीज को दवा देकर उसके परिणाम जानने में डॉक्टर को समय लग सकता है।
इसके विपरीत, 3डी बायोरिएक्टर में ऊतकों पर पड़ रहे प्रभावों को आसानी से देखा, और प्रमाणित किया जा सकता है। हम अपने स्टार्टअप के जरिये इस तकनीक को देशभर की प्रयोगशालाओं तक पहुंचाने का प्रयत्न करेंगे, ताकि भविष्य में अन्य शोधों को इसका लाभ मिल सके।”
आईआईटी मद्रास के सेंटर फॉर कम्प्यूटेशनल ब्रेन रिसर्च (सीसीबीआर) के अनुदान, और एमआईटी के वैज्ञानिकों के मार्गदर्शन के आधार पर यह अध्ययन किया गया है। भारत में इस तकनीक का पेटेंट करा लिया गया है, और शोधकर्ता अब इस तकनीक को लेकर अंतरराष्ट्रीय सहयोग की संभावनाएं तलाश रहे हैं।
यह अध्ययन शोध पत्रिका बायो माइक्रोफ्लुडिक्स में प्रकाशित किया गया है। आईआईटी मद्रास के पूर्व छात्र एवं प्रमुख शोधकर्ता इकरम खान और प्रोफेसर अनिल प्रभाकर के अलावा, एमआईटी के शोधकर्ता क्लो डेलेपाइन, हैले सांग, विंसेंट फाम और प्रोफेसर मृगांका सूर इस अध्ययन में शामिल हैं।
(इंडिया साइंस वायर)