डिजिटल इंडिया के सामयिक नारे से करीब दो दशक पहले उन चुनिंदा राज्यों में उत्तराखंड भी था जहां ई-लर्निंग ने दस्तक दी थी। माध्यमिक स्तर पर स्कूलों में कंप्यूटर बांटे गए और शिक्षा में सूचना प्रौद्योगिकी के तार जोड़े गए।
ये बात 2000-2002 की है। लेकिन 'आरोही' नाम की इस परियोजना का वही हुआ जो आमतौर पर एक भव्य उत्तेजना और अपार अपेक्षा के साथ शुरू होने वाली किसी योजना का होता है। वो आलस्य और अफसरशाही में मारी जाती है। उत्तराखंड में 2002-2007 में एनडी तिवारी के कार्यकाल में आरोही योजना परवान और पहाड़ चढ़ी। कंप्यूटर आए, तार और जनरेटर भी आए। किताबें और बुकलेट और प्रशिक्षक भी आए लेकिन शैक्षिक डिजिटलीकरण का ये प्रारंभ, धीरे धीरे फाइलों और धूल में समा गया। मंत्री और प्रमुख सचिव से लेकर खंड शिक्षा अधिकारी और उप शिक्षा अधिकारी तक, अगर आप एक संगठन चार्ट, उत्तराखंड के शिक्षा विभाग का बनाए तो बदहाली की आधा कहानी तो यहीं पर खुल जाती है। विशाल पिरामिड आकार वाले इस ढांचे के तहत सिर्फ माध्यमिक स्तर के करीब ढाई हजार स्कूलों में से करीब सवा सौ स्कूल ही कंप्यूटरीकृत हो पाए हैं। डिजिटल शिक्षा की सतत मॉनिटरिंग तो छोड़ ही दीजिए।
पूरन सिंह कठैत इस योजना को अमलीजामा पहनाने वाले शुरुआती अध्यापकों में से एक हैं। निजी उत्साह और कंप्यूटरी ज्ञान से उन्होंने अपने स्कूल और आसपास योजना को कामयाब बनाना शुरू किया। आगे बढ़कर प्रस्ताव और बजट बनाए। प्रशिक्षक और आईसीटी शिक्षक के रूप में राष्ट्रपति से पुरस्कार और देश दुनिया में सम्मान कमाया। वे कहते हैं, '2015 में आईसीटी शिक्षा के तहत सबसे ज्यादा शिक्षक पुरस्कार हमारे राज्य को मिले हैं जो टीचर ई-लर्निंग पर काम करते रहे हैं। अब तमिलनाडु आगे हो गया है। सेंट्रल की स्कीम है, हर स्कूल में स्मार्ट क्लास है, कंप्यूटर है, जनरेटर है, मेनटेनेन्स का खर्च है, सब है लेकिन फिर भी हम पीछे हो रहे हैं।'
विभागीय उदासीनता से निराश इन लोगों को लगता है कि इनोवेशन शब्द वहां पर धुंध की तरह है। यूं फाइल और दस्तावेजीकरण के लिहाज से जाएं तो कमी है ही नहीं। ई-शिक्षण से जुड़ी योजनाएं हैं। जैसे कंप्यूटर में शिक्षित करने के लिए काल्प (सीएएलपी) यानी कंप्यूटर एडेड लर्निंग प्रोग्राम्स, दूसरी है ई-क्लास स्कीम जिसके तहत 9वीं से 12वीं तक विज्ञान और गणित की पढ़ाई मल्टीमीडिया से देने की व्यवस्था है, तीसरा राज्य के समस्त उच्च विद्यालयों और माध्यमिक स्कूलों में अनिवार्य कंप्यूटर शिक्षा की योजना चलाई जा रही है जिसमें प्रति स्कूल तीन से आठ कंप्यूटर दिए गए हैं।
चौथा है प्रोजेक्ट शिक्षा जो माइक्रोसॉफ्ट कॉरपोरेशन के सहयोग से शुरू हुआ, जिसका मकसद छात्रों और शिक्षकों को कंप्यूटर साक्षर बनाना है। आरोही का जिक्र किया ही जा चुका है। इसमें भी माइक्रोसॉफ्ट और इंटेल का सहयोग रहा है। जैसे ये जतन आकर्षक हैं वैसे ही उत्तराखंड में साक्षरता दर भी सुहावनी है। पुरुषों में 87 फीसदी और महिलाओं में 67 फीसदी। कुल करीब 79 फीसदी। उत्तराखंड की करीब 70 फीसदी आबादी गांवों में है। वहां पुरष और स्त्री साक्षरता दर क्रमशः 87 और 66 फीसदी है।
लेकिन यहां महिलाओं और पुरुषों के बीच साक्षरता के मामले में उल्लेखनीय अंतर दिखता है। इस बात का कोई सुचिंतित और विस्तृत अध्ययन नहीं हुआ है कि ई-लर्निग में लड़कियों की कामयाबी की वास्तविक दर क्या है? क्या यहां भी एक किस्म का पुरुषवाद हावी है? हालात तो कुछ इसी ओर इशारा करते हैं। शिक्षा क्षेत्र में कार्यरत संस्था "प्रथम” के एक हालिया आकलन में पाया गया कि प्राथमिक शिक्षा में नामांकन और खर्च के बावजूद कुछ राज्यों में शैक्षिक गुणवत्ता निम्न स्तर की है। उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और मध्य प्रदेश में कक्षा तीन के 18 फीसदी से कम छात्र ही पढ़ने में सक्षम पाए गए।
वैसे ई-लर्निंग का एक रोशन पहलू भी है। 19 हजार से ज्यादा विभिन्न श्रेणियों के स्कूलों का एक ऑनलाइन डाटा बना है जो राज्य और केंद्र सरकार से जुड़ा है। इसमें शिक्षक-कर्मचारी का डाटा भी शामिल है। कंप्यूटर और ऑनलाइन शिक्षा में मेंटर और राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त शिक्षक रमेश प्रसाद बडोनी अपने स्तर पर ई-लर्निंग को एक नया आयाम दे रहे हैं। उन्होंने अपने संसाधनों से छात्रों को ई-पद्धति की ओर मोड़ा है और खुद ऑनलाइन कोर्स और वेबसाइट भी तैयार की हैं। वो कहते हैं, "सपोर्ट सिस्टम कमजोर है। टीचर को बैकअप मिल जाए तो वे ई-लर्निंग में और भी काम कर सकते हैं। हो सकता है कि कंपीटेंसी लेवल को लेकर समस्या हो लेकिन ओरियंटेशन हो सकता है।”
बडोनी कहते हैं, "असल में संभावनाएं तो बहुत हैं। हमारा (उत्तराखंड सरकार का) खुद का एजुकेशन पोर्टल है। टीचर और स्टूडेंट दोनों के लिए, सबके प्रोफाइल हैं। बच्चों की अनुपस्थिति से लेकर उपलब्धि तक की ट्रैकिंग होती है। रोज की गतिविधि रजिस्टर्ड होती है। सतत और व्यापक मूल्यांकन की व्यवस्था है। माध्यमिक बच्चों के लिए भी एक ऑनलाइन टूल है। इंडिकेटर बने हुए हैं। बच्चों की ओवरऑल विषयवार क्षमताओं के बारे में। ये सूचना भारत सरकार के पोर्टल पर चली जाती है। इसके अलावा ई-पाठशाला है। भारत सरकार का एक मोबाइल ऐप है इसमें ईबुक्स उपलब्ध है। ऑनलाइन पाठ्य सामग्री है। ऑफलाइन भी इस ऐप को चला सकते हैं।”
बेशक उत्तराखंड का भूगोल विकट है। लेकिन जैसा कि कठैत कहते हैं, "जब हिमाचल कर सकता है तो हम क्यों नहीं।” आखिरकार सवाल कंप्यूटर या इलेक्ट्रॉनिक पढ़ाई का ही नहीं है, सवाल ये है कि इससे कुल छात्र बिरादरी और इसमें भी लड़कियों को कैसे जोड़ा जाए जो विभिन्न सामाजिक दबावों के चलते शिक्षा की राह में किसी न किसी मोड़ पर रोक दी जाती हैं। समूचे शैक्षिक पर्यावरण में इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती।
एक बात और है, सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, 2030 तक भारत के पास काम करने वालों की दुनिया की सबसे बड़ी आबादी होगी। एक अरब से ज्यादा। छह से 13 की उम्र वाली भारतीय बाल आबादी के करीब 56 फीसदी बच्चे देश के नौ सबसे पिछड़े राज्यों से आते हैं जिनमें असम, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडीशा, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के साथ उत्तराखंड का भी नाम दर्ज है। कहने का अर्थ ये है कि आने वाले समय में भारत की बहुसंख्यक वर्कफोर्स इन्हीं राज्यों से निकलेगी। जाहिर है इसमें महिलाओं की भूमिका को आप नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं।
रिपोर्ट: शिवप्रसाद जोशी