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ईद उल अदहा : जानिए कैसे मनाएं कोरोना काल में ईद

ईद उल अदहा : जानिए कैसे मनाएं कोरोना काल में ईद - 21 July Bakrid in India
Eid al-Adha 2021
 
बुधवार, 21 तारीख को ईद-उल-जुहा अर्थात् बकरीद मुसलमानों का प्रमुख त्योहार है। इस दिन मुस्लिम बहुल क्षेत्र के बाजारों की रौनक बढ़ जाती है। बकरीद पर खरीददार बकरे, नए कपड़े, खजूर और सेवईयां आदि खरीदते हैं और इस त्योहार को मनाते हैं, लेकिन इस बार मुस्लिम समुदाय के पारंपरिक त्योहार ईद-उल-अजहा पर बाजार में भीड़-भाड़ का माहौल देखने को नहीं मिलेगा, क्योंकि कोरोना वायरस ने इस त्योहार की रंगत को फीका कर दिया है।
 
बकरीद पर कुर्बानी देना शबाब का काम माना जाता है। इसलिए हर कोई इस दिन कुर्बानी देता है, लेकिन इस बार कोरोना काल में यह संभव नहीं हो पाएगा। इस वजह से कोरोना वायरस के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए बकरीद के मौके पर जहां सामूहिक आयोजन पर रोक रहेगी, वहीं लोगों को घरों में ही त्योहार मनाना पड़ेगा।
 
कुर्बानी को हर धर्म और शास्त्र में भगवान को पाने का सबसे प्रबल हथियार माना जाता है। हिंदू धर्म में जहां हम कुर्बानी को त्याग से जोड़ कर देखते हैं वहीं मुस्लिम धर्म में कुर्बानी का अर्थ है खुद को खुदा के नाम पर कुर्बान कर देना यानी अपनी सबसे प्यारी चीज का त्याग करना। इसी भावना को उजागर करता है मुस्लिम धर्म का महत्वपूर्ण त्योहार ईद-उल-जुहा जिसे हम बकरीद के नाम से भी जानते हैं।
 
 
यूं तो इस्लाम मजहब में दो ईदें त्योहार के रूप में मनाई जाती हैं। ईदुलब फित्र जिसे मीठी ईद भी कहा जाता है और दूसरी ईद है बकर ईद। इस ईद को आम आदमी बकरा ईद भी कहता है। शायद इसलिए कि इस ईद पर बकरे की कुर्बानी की जाती है। वैसे इस ईद को ईदु्ज्जोहा और ईदे-अहा भी कहा जाता है।
 
 
ईद-उल-जुहा का इतिहास हजरत इब्राहीम से जुड़ा है। हजरत इब्राहीम कई हजार साल पहले ईरान के शहर 'उर' में पैदा हुए थे। जिस वातावरण में उन्होंने आंखें खोलीं, उस समाज में कोई भी बुरा काम ऐसा न था जो न हो रहा हो। उन्होंने आवाज उठाई तो कबीले वाले दुश्मन बन गए। उनका जीवन जनसेवा में बीता। 90 साल की उम्र में भी उनकी औलाद नहीं हुई तो खुदा से उन्होंने प्रार्थना की और उन्हें चांद सा बेटा इस्माइल मिल गया। इस्माइल की उम्र 11 साल भी न होगी कि हजरत इब्राहीम को एक सपना आया।

 
उन्हें आदेश हुआ कि खुदा की राह में कुर्बानी दो। उन्होंने अपने प्यारे ऊंट की कुर्बानी दी। फिर सपना आया कि अपनी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी दो। उन्होंने सारे जानवरों की कुर्बानी दे दी। तीसरी बार वही सपना फिर आया। वह समझ गए कि अल्लाह को उनके बेटे की कुर्बानी चाहिए। वह जरा भी न झिझके और पत्नी हाजरा से कहा कि नहला-धुला कर बच्चे को तैयार करें। जब वह इस्माइल को बलि के स्थान पर ले जा रहे थे तो इब्लीस (शैतान) ने उन्हें बहकाया कि- क्यों अपने जिगर के टुकड़े को मारने पर तूले हो, मगर वह न भटके। छुरी फेरने से पहले नीचे लेटे बेटे ने बाप की आंखों पर रुमाल बंधवा दिया कि कहीं ममता आड़े न आ जाए।
 
हजरत इब्राहीम ने छुरी चलाई और आंखों से पट्टी उतारी तो हैरान हो गए। बेटा तो उछल-कूद कर रहा है और उसकी जगह एक भेड़ की बलि खुदा की ओर से कर दी गई है। हजरत इब्राहीम ने खुदा का शुक्रिया अदा किया। तभी से यह परंपरा चली आ रही है इस दिन आमतौर से बकरे की कुर्बानी की जाती है।
 
उस दिन अल्लाह का नाम लेकर जानवर को कुर्बान किया जाता है। इसमें नियम यह है कि कुर्बान किया जाने वाला बकरा एकदम तंदुरूस्त और बगैर किसी ऐब का होना चाहिए यानी उसके बदन के सारे हिस्से वैसे ही होने चाहिए जैसे खुदा ने बनाए हैं। सींग, दुम, पांव, आंख, कान वगैरा सब ठीक हो, पूरे हो और जानवर में किसी तरह की बीमारी भी न हो। कुर्बानी के जानवर की उम्र कम से कम एक साल हो। इसी कुर्बानी और गोश्त को हलाल कहा जाता है।

 
इस गोश्त के तीन बराबर हिस्से किए जाते हैं, एक हिस्सा खुद के लिए, एक दोस्तों और रिश्तेदारों के लिए और तीसरा हिस्सा गरीबों और मिस्कीनों के लिए। मीठी ईद पर सद्‍का और जकात दी जाती है, तो इस ईद पर कुर्बानी के गोश्त का एक हिस्सा गरीबों में तकसीम किया जाता है। हर त्योहार पर गरीबों का खयाल जरूर रखा जाता है ताकि उनमें कमतरी का एहसास पैदा न हो। इस तरह यह ईद जहां सबको साथ लेकर चलने का पैगाम देती है, वहीं यह भी बताती है कि इंसान को खुदा का कहा मानने के लिए, सच्चाई की राह में अपना सब कुछ कुर्बान करने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए।
 
 
इस बार ईद-उल-अजहा पर जहां सामूहिक रूप से नमाज अदा नहीं कर पाएंगे वहीं इस त्योहार के मौके पर सांप्रदायिक सद्भाव भी बनाए रखना जरूरी होगा। साथ ही अगर आपके पड़ोसी किसी और धर्म से हैं, तो उनका भी ध्यान रखते हुए इस त्योहार को मनाना उचित रहेगा।

इसके साथ ही मुसलमान भाईयों को ईद पर सोशल डिस्टेंसिंग का पूरी तरह से पालन करने के साथ ही कहीं भी एक जगह पर इकट्ठे न होना सभी की सेहत की दृष्‍टि उचित रहेगा। ज्ञात हो कि ईद की नमाज मुख्य रूप से ईदगाह में पढ़ी जाती है, लेकिन अभी भी कोरोना का खतरा पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है। कोरोना के साथ डेल्टा का खतरा भी हम पर मंडरा रहा है, अत: यह त्योहार सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए, मास्क और सैनेटाइजर का उपयोग करते हुए ही मनाया जाना चाहिए। 

 
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