भोला फिल्म समीक्षा: गलत जगह और गलत समय पर सही आदमी
Bholaa movie review अजय देवगन ने फिल्म 'भोला' उस दर्शक वर्ग के लिए बनाई है जिसे मास कहा जाता है। वैसे अजय को भी दक्षिण भारतीय फिल्मों के रीमेक पसंद है और 'भोला' तमिल फिल्म 'कैथी' का रीमेक है जो बॉक्स ऑफिस पर सफल रही थी। ओरिजनल फिल्म को हिंदी में बनाने के लिए अजय ने कुछ परिवर्तन किए हैं।
भोला जेल से 10 साल बाद छूटा है और अनाथ आश्रम में पल रही अपनी बेटी से मिलने जाता है जिसे उसने कभी नहीं देखा है। यह भोला कौन है? कुछ लोग सवाल पूछते हैं तो एक कैदी बताता है कि जो उसके बारे में जान लेता है वो फिर दुनिया छोड़ देता है। जब-जब भोला क्रुद्ध होता है तब-तब युद्ध होता है। आंखों में आंखे डालता है तो चीता भी मैदान छोड़ कर भाग जात है। एक सीन में यह दिखाया भी है।
बेटी से मिलने जा रहा है भोला गलत समय पर गलत जगह पहुंच जाता है। पुलिस ऑफिसर डायना (तब्बू) को उसकी मदद चाहिए क्योंकि उसने एक हजार करोड़ की ड्रग्स पकड़ ली है। इससे सिका गैंग में हलचल है। वे किसी भी हालत में अपना माल वापस पाना चाहते हैं और शहर को शमशान बनाने के लिए तैयार है। वे कई पुलिस वालों की ड्रिंक में बेहोशी की दवाई मिला देते हैं जिन्हें ठीक समय पर अस्पताल पहुंचाना जरूरी है। डायना को एक और पुलिसवालों की जान बचाना है और जब्त किए गए माल की भी रक्षा करना है। दूसरी ओर कई गैंग वाले इन पर हमला करते हैं। भोला सिका गैंग से टक्कर लेते हुए पुलिस वालों को अस्पताल पहुंचाने का जिम्मा लेता है।
कहानी में ज्यादा दिखाने को कुछ नहीं है। चूंकि कहानी एक रात की है इसलिए यह पूरी तरह से टेंशन पर टिकी हुई है। लड़ाई गुंडों के अलावा समय के भी खिलाफ है। यही पर निर्देशक के रूप में अजय देवगन चुक गए। एक्शन तो उन्होंने भरपूर मात्रा में दिखाया है, लेकिन जो तनाव अपने प्रस्तुतिकरण में पेश करना था कि दर्शक नाखून चबाने लगे, वो वे पैदा नहीं कर पाए और यहीं पर 'भोला' कमजोर पड़ जाती है। फिल्म के सारे कैरेक्टर्स रिलैक्स नजर आते हैं और घड़ी की टिक-टिक उन्हें परेशान नहीं करती।
स्क्रीनप्ले में आप ढूंढोगे तो कई कमियां नजर आएंगी। फिल्म की शुरुआत कंफ्यूजिंग है और कौन क्या है, ये समझने में थोड़ी मुश्किल आती है। जब सब समझ आता है तो लेखक और निर्देशक खाली हो जाते हैं और बात को फिर लंबा खींचा गया है। चूंकि ड्रामे में तनाव नहीं है इसलिए दर्शक चाहते हैं कि फिल्म जल्दी खत्म हो।
फिल्म में एक्शन का भरपूर डोज है और ये एक्शन बिना पिस्तौल या बंदूक के है ताकि अजय देवगन अपनी हीरोगिरी दिखा सके। अचरज इस बात का है कि तमाम बड़े-बड़े 'बाहुबली' और 'दबंग' गुंडे सैकड़ों की संख्या में हमला करते हैं, लेकिन कोई पिस्तौल लेकर नहीं आता।
भोला अकेला चट्टान बन कर इन शैतानों का कचूमर बना देता है। फिल्म का एक्शन खून-खराबे वाला है। कोहनी, घुटने खूब तोड़े गए हैं, गर्दनें मरोड़ी गई हैं, त्रिशूल पेट से आर-पार किए गए हैं और जमकर घूंसेबाजी दिखाई गई है। कुछ एक्शन सीक्वेंस बढ़िया बने हैं, जैसे बाइकर्स द्वारा भोला के ट्रक का पीछा करना और त्रिशूल लेकर भोला का फाइट करना। क्लाइमैक्स में भोला केजीएफ स्टाइल में मशीनगन का 'बाप' लेकर सैकड़ों लोगों को भून डालता है।
कहानी में भोला और उसकी बेटी का इमोशनल एंगल भी डाला गया है, जो थोड़ा भावुक करता है। इसे और बढ़िया तरीके से पेश किया जा सकता था। भोला की प्रेम कहानी कोई असर नहीं दिखाती। कॉमेडी के नाम पर 'कड़छी' नामक कैरेक्टर डाला गया है जो हंसा नहीं पाता।
निर्देशक के रूप में अजय देवगन का काम बहुत आसान था। एक तो वे रीमेक बना रहे थे और दूसरा, फिल्म 80 प्रतिशत से ज्यादा एक्शन डायरेक्टर्स के हाथ में थी। एक्शन डायरेक्टर्स ने अपना काम तो खूब किया, लेकिन अजय देवगन निर्देशक के रूप में खास प्रभावित नहीं कर पाए। विलेन के किरदार को अजय ठीक से उभार नहीं पाए और यह एक बड़ा माइनस पाइंट है।
रमज़ान बुलुत और आरपी यादव के एक्शन और स्टंट्स बढ़िया है। असीम बजाज का सिनेमाटोग्राफी शानदार है। उन्होंने टाइट क्लोजअप्स का काफी अच्छा इस्तेमाल किया है। रवि बसरुर का बैकग्राउंड म्यूजिक बेहद लाउड है और कई बार तो संवाद ही सुनाई नहीं देते। सेट नकली लगते हैं। फिल्म में दो-तीन गाने भी हैं जो खास अपील नहीं करते।
एक्टर्स के पास करने को एक्शन करने के अलावा करने को ज्यादा कुछ नहीं था। अजय देवगन का अभिनय औसत रहा। तब्बू को भी कुछ एक्शन सीन मिले। विलेन के रूप में दीपक डोब्रियाल अपनी छाप छोड़ते हैं। संजय मिश्रा, विनीत कुमार को ज्यादा अवसर नहीं मिले। गजराज राव ओवर एक्टिंग का शिकार रहे। अमीर खान ठीक रहे। स्पेशल अपियरेंस में अमला पॉल के पास उल्लेखनीय दृश्य नहीं थे। अभिषेक बच्चन स्पेशल छोटे से रोल में नजर आए। उनका कैरेक्टर दर्शाता है कि फिल्म का सीक्वल भी बनेगा और उसमें उनका बड़ा रोल होगा।
कुल मिलाकर 'भोला' 'देसी' एक्शन का तूफान है जिसमें कहानी के दूसरे तत्व तहस-नहस हो गए।