साठ के दशक के अंतिम दिनों में बॉम्बे सेंट्रल के रेलवे स्टेशन पर दो युवा एक जैसी कद काठी और एक जैसे सपनों के साथ आए थे। एक पंजाब का और दूसरा इलाहबाद का। दोनों बॉलीवुड में अपना करियर बनाना चाहते थे। इनके नाम हैं विनोद खन्ना और अमिताभ बच्चन। दोनों ने फिल्मों में करियर बनाया मगर मंजिलें जुदा हो गईं।
हीरो मटेरियल
विनोद खन्ना मुम्बई के सिडेनहेम कॉलेज में पढ़ रहे थे। बॉलीवुड में किसी से कोई जान-पहचान नहीं थी। उनकी शक्ल-सूरत आकर्षक और सुन्दर थी। साथ पढ़ने वाली लड़कियों ने उन्हें उकसाया कि इतना शानदार पर्सनेलिटी है, फिल्मों में कोशिश क्यों नहीं करते। एकदम हीरो मटेरियल हो। बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा। उन दिनों सुनील दत्त अपने छोटे भाई सोमदत्त को लांच करने के चक्कर में थे। फिल्म मन का मीत (1968) में विनोद को खलनायक का रोल ऑफर किया गया। विनोद ने मंजूर कर लिया। मन का मीत फिल्म टिकट खिड़की पर पिट गई और सोमदत्त गुमनामी के अंधेरों में खो गए, लेकिन विनोद खन्ना चल पड़े। उनकी शुरुआत खलनायकी से हुई थी इसलिए विलेन का लेबल लगाकर कई फिल्में करना पड़ी। राजेश खन्ना जिनके वे जबरदस्त फैन थे के साथ फिल्म सच्चा-झूठा में उनकी अदाकारी सराही गई। नतीजे में राजेश काका के साथ खलनायक बनाकर विनोद को आन मिलो सजना में पेश किया गया।
आया अटरिया पे चोर
साठ और सत्तर का दशक हिंदी सिनेमा में डाकू आधारित फिल्मों का दौर था। राज खोसला द्वारा निर्देशित मेरा गाँव मेरा देश (1971) में धर्मेन्द्र के साथ विनोद डाकू बने और अनेक सीन में उन्होंने गरम धरम को जमकर टक्कर दी। उन्होंने तमाम खतरनाक सीन खुद किए। जैसे घोड़े पर सवार होकर बीहड़ और जंगलों में भागना तथा फाइटिंग सीन। डकैत फिल्मों में मेरा गाँव मेरा देश एक यादगार सफल फिल्म है। इस फिल्म में सुरा और सुंदरी लक्ष्मी छाया के मदभरे गीत और डांस ने दर्शकों को मदहोश बना दिया था। लक्ष्मी छाया ने इस फिल्म में तीन मस्ती भरे गीत प्रस्तुत कर फिल्म की नायिका आशा पारिख को पीछे धकेल दिया था। आया-आया अटरिया पे चोर के अलावा मार दिया जाए या छोड़ दिया जाए जैसा गीत आज भी जुमले के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। तीसरा गीत था- हाय शरमाऊँ किस-किस को सुनाऊँ, कैसे बताऊँ अपनी प्रेम कहानियाँ।
गुलजार हुए मेहरबान
उस दौर में अपनी इमेज को बदल पाना बहुत मुश्किल था। यदि आप खलनायक बन गए तो निर्माता हमेशा ही खलनायक के रूप में साइन करेंगे। खलनायक का हीरो बन पाना बहुत मुश्किल था, लेकिन भला हो गुलजार का। गुलजार को लगा कि एक टेलेंटेड हेंडसम हीरो को इस तरह विलेन बनाकर उसकी प्रतिभा को बरबाद किया जा रहा है। इसलिए वे आगे आए और अपने निर्देशन की पहली फिल्म मेरे अपने (1972) तथा अचानक (1973) में उन्होंने विनोद को 'रियल हीरो' बना दिया, जिसके वे हकदार थे। इसके बाद उन्होंने फिल्म मीरा में विनोद को दोहराया। मीरा की पटकथा सुनकर विनोद ने गुलजार से कहा था 'काश वे मीराबाई का रोल कर पाते।' गुलजार ने भी बदले में कहा था कि उन्हें इतना सीधा-सहज-सरल नायक बम्बइया इंडस्ट्री में इसके पहले नहीं मिला था।
अमिताभ विरुद्ध विनोद
फिल्म कलाकारों के बारे में बेसिर पैर की अफवाहें तथा स्केण्डल लिखकर जीविका चलाने वाले फिल्म पत्रकारों ने उन दिनों बढ़-चढ़कर प्रचार किया था कि अमिताभ बच्चन और विनोद खन्ना एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं। इन्हें आपस में लड़ाने की कोई कसर नहीं छोड़ी गई थी। लेकिन असली कलाकार वह होता है, जो प्रतिद्वंद्वी के आंगन में खड़ा होकर दो-दो हाथ आजमाए। विनोद खन्ना ने फिल्मकार मनमोहन देसाई की फिल्म अमर अकबर एंथोनी और परवरिश अमिताभ के साथ अभिनीत की और अपने को साबित किया। इसी तरह फिल्मकार प्रकाश मेहरा की हेराफेरी, खून-पसीना तथा मुकद्दर का सिकंदर में वे फिर अमिताभ के सामने आए और उनसे कहीं कमतर साबित नहीं हुए। विनोद के साथ ट्रेजेडी यह रही कि उन्हें सोलो हीरो के रूप में बड़े बैनर्स ने पेश नहीं किया और इस वजह से वे अमिताभ से थोड़ा पीछे रहे। वैसे विनोद के प्रशंसक मानते हैं कि यदि उन्होंने अपने शिखर के दिनों में फिल्म इंडस्ट्री नहीं छोड़ी होती तो वे अमिताभ जैसे बड़े स्टार साबित होते।
शबाना : मनपसंद नायिका
विनोद की पसंदीदा हीरोइन शबाना आजमी रही। उन्होंने कुछ फिल्मों में शबाना के साथ काम किया था। अरुणा राजे ने अपनी फिल्म शक में शबाना के साथ विनोद को सोलो हीरो के रूप में पेश कर जोखिम मोल ली थी। फिरोज खान की कुरबानी विनोद के करियर की बड़ी हिट फिल्मों में से एक थी। राज सिप्पी की इनकार में भी उनका काम सराहा गया था। इन फिल्मों में अभिनय के बल पर फिल्म प्रेस उन्हें अमिताभ का अल्टरनेटिव मानने लगी थी। इन फिल्मों की सफलता का जश्न विनोद मना ही रहे थे कि उनकी माताजी का निधन हो गया। वे बहुत डिस्टर्ब हो गए। उन दिनों आचार्य रजनीश का प्रभाव दोपहर की धूप की तरह चारों तरफ फैला हुआ था। 1980 के दशक में अचानक विनोद ने फिल्म करियर को बिदाई दी और अमेरिका जाकर आचार्य रजनीश के बगीचे में माली बनकर सेवाएँ देने लगे। उन्होंने अपनी पत्नी गीतांजलि और दोनों बेटों अक्षय-राहुल को छोड़ दिया। वे संन्यासी विनोद हो गए।
इंसाफ से लेकिन का सफर
जब रजनीश से मोह भंग हुआ तो 1987 में वे पुनः बॉलीवुड लौटे। फिल्मकार मुकुल आनंद ने उन्हें इंसाफ और राज सिप्पी ने सत्यमेव जयते में उन्हें पेश किया। फिल्मों में दूसरी पारी, पहली पारी से ज्यादा कठिन होती है। विनोद को असफलता हाथ लगी। आरेगॉन से लौटने के बाद न तो उन्हें नामी फिल्मकारों ने तो हाथों-हाथ लिया और न बॉक्स ऑफिस पर दर्शकों का प्यार मिला। लता मंगेशकर द्वारा निर्मित फिल्म 'लेकिन' जिसे गुलजार ने निर्देशित किया था उनके अभिनय की आखिरी चमकदार फिल्म कही जा सकती है। बाद में विनोद छोटे-मोटे रोल में नजर आने लगे। दबंग और वांटेड जैसी फिल्मों में सलमान खान के साथ वे नजर आए।
6 अक्टोबर 1946 को जन्मे विनोद खन्ना के जीवन का तीसरा पहलू राजनीति में शामिल होना था। उन्होंने दूसरा विवाह भी किया था। दूसरी पत्नी से उन्हें दो बच्चे हैं। उनके दो बेटे अक्षय और राहुल खन्ना भी पिता की तरह ग्लैमर वर्ल्ड से जुड़े हैं।
प्रमुख फिल्में
आन मिलो सजना, अचानक, अमर अकबर एंथोनी, चाँदनी, दयावान, हाथ की सफाई, हेराफेरी, इम्तिहान, कच्चे धागे, खून पसीना, कुदरत, लेकिन, मेरा गाँव मेरा देश, मेरे अपने, मुकद्दर का सिकंदर, परवरिश, कुरबानी, राजपूत, रिहाई।