है ना दीदी, हां दीदी के बंधन तोड़ती हमारी सुलु
सुलु हमारे चारों ओर है। हर घर में है। सरल और सुलझी हुई 'तुम्हारी सुलु' में कोई नायक या नायिका नहीं है, ना ही कोई व्याभिचारी खलनायक। ना किसी गंभीर सामाजिक समस्या से लड़ाई है और विषम परिस्थितियों का सामना तो कतई नहीं। इस फिल्म के कथानक के केंद्र में विरार में रहने वाली एक सरल गृहिणी है जिसके लिए नींबू रेस जीतने से अधिक आवश्यक है नींबू का चम्मच में संतुलन बनाए रखना। यह एक पुरुष प्रधान समाज में रहने वाली कुशल गृहिणी के सकुशल जीवन जीने की जुगाड़ है।
संजीव त्रिवेणी की इस सजीव फिल्म की कहानी, पटकथा, पात्र और उनका चरित्र चित्रण हमारे घरों से ही लिया हुआ है। मैं इस फिल्म के हर किरदार को जानता हूँ। किसी अपने जानने वाले में देखता हूँ। यहाँ कोई अजनबी नहीं है। पति, पिता, बहन, जीजा, बेटा, बॉस- सभी को आपने कहीं न कहीं देखा होगा, आप उन्हें जानते हैं। हम प्रतिदिन ऐसे से ही लोगों से मिलते हैं। वे हमारे बीच में ही हैं और कुछ पात्र के किरदार तो कदाचित आप स्वयं ही निभा रहे हैं।
बस एक सुलु है, जिसे अन्य गृहिणियों से पृथक करती है उसकी जीविषा। किसी भी परिस्थिति में समर्पण करने के बजाय समाधान ढूंढने की ललक। उसकी मुस्कुराहट, जो कृत्रिम नहीं है, उसकी चुहल भारी बातें जो बनावटी नहीं हैं। असहज परिस्थितियों से स्वयं को निकाल लेने का चातुर्य उसे ईश्वर की देन है। छोटी-छोटी खट्टी-मीठी बातें जिनसे रिश्तों की माला के मोती प्राय: टूट कर बिखर जाते हैं, सुलु उन्हें सहज रूप से, बिना किसी परिश्रम के बांधे रखती है।
अपनी महत्वाकांक्षाओं को पाने के लिए उसे अपने परिवार और संबंधों का बलिदान करने की आवश्यकता नहीं है। बिना किसी अपराध बोध के दोनों साथ-साथ चल सकते हैं तथा जीवन को और मधुर बना सकते हैं। सुलु इन दैनंदिनी अड़चनों को स्वाभाविक रूप से बिना किसी पराक्रम के हल करती है। जो संबंध साथ देते हैं वही रास्ता भी रोकते हैं। इस समय प्राथमिकता तय करना आवश्यक है। दुनिया तो है ना-दीदी, हां-दीदी कर बातें बनाएगी ही पर सुलु जानती है की किसे कितनी गुंजाइश देनी है। किसका स्थान कहाँ है।
मैं फिल्म समीक्षक नहीं हूं और ना ही मेरा लेख फिल्म की समीक्षा है। कल रात “तुम्हारी सुलु” देखी और आज सुबह तक इसका स्वाद जिव्हा पर था। सो बस यूं ही लिख डाला। एक और बात अच्छी लगी इस फिल्म में, हिन्दी भाषा और देवनागरी का उपयोग उचित स्थानों पर किया गया है। एक अरसे के बाद इंटरवल होने पर ‘मध्यांतर’ पढ़ा। हाँ, भाषा में कुछ त्रुटियाँ हैं, पर मुंबइया है – ‘इत्ता तो चलेगा ना साब!’
मेरे बात मानिए – एक बार देख आइए।
(लेखक मेक्स सुपर स्पेशलिटी हॉस्पिटल, साकेत, नई दिल्ली में श्वास रोग विभाग में वरिष्ठ विशेषज्ञ हैं)