असदुद्दीन ओवैसी के सियासी 'बाउंसर' धर्मनिरपेक्ष दलों के लिए बने सिरदर्द
नई दिल्ली। कॉलेज के दिनों में क्रिकेट के मैदान में बतौर तेज गेंदबाज उतरने वाले असदुद्दीन ओवैसी ने करीब ढाई दशक पहले जब हैदराबाद के चार मीनार इलाके से अपनी राजनीतिक पारी का आगाज किया था तो शायद ही किसी को अंदाजा रहा होगा कि आगे चलकर उनके सियासी बाउंसर मुस्लिम मतों वाले विकेट पर जमीं पार्टियों के लिए परेशानी का सबब बन जाएंगे।
पहले महाराष्ट्र और अब बिहार, इसी बात की गवाही दे रहे हैं कि आने वाले समय में हैदराबाद का यह सांसद उनकी सिरदर्दी और बढ़ा सकता है। बिहार विधानसभा चुनाव में अच्छी-खासी मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्र सीमांचल में ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) ने पांच सीटें जीतकर राजनीतिक विशेषज्ञों को चौंका दिया।
कांग्रेस एवं राजद का महागठबंधन सत्ता की दहलीज तक पहुंचकर भी रुक गया तो उसकी एक बड़ी वजह एआईएमआईएम के मुस्लिम मतों में सेंध लगाने को ही माना जा रहा है। धर्मनिरपेक्षता की सियासत की पैरोकार मानी जाने वाली पार्टियां ओवैसी को भाजपा की बी-टीम और वोट कटवा कहती हैं, लेकिन 51 वर्षीय ओवैसी का कहना है कि देश में कहीं से चुनाव लड़ना उनका लोकतांत्रिक अधिकार है और अपनी हार के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराने वाली पार्टियां भाजपा को रोकने में समर्थ नहीं हैं।
ओवैसी की अगुवाई में एआईएमआईएम ने 2014 में जब हैदराबाद के दारुस्लाम (पार्टी मुख्यालय) से निकलकर महाराष्ट्र की सियासत में दस्तक दी तो वह पहली बार राष्ट्रीय राजनीतिक विमर्श का हिस्सा बनी और उसे कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के लिए खतरे के तौर पर देखा जाने लगा।
इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र औरंगाबाद की सीट और फिर विधानसभा चुनाव में दो सीटें जीतकर ओवैसी की पार्टी ने प्रदेश में एक बार फिर अपनी मौजूदगी का अहसास कराया। अब बिहार में उसके प्रदर्शन ने एआईएमआईएम और ओवैसी को मौजूदा राजनीतिक बहस के केंद्रबिंदु में ला दिया है।
ओवैसी और एआईएमआईएम के राष्ट्रीय राजनीति में उभार को कांग्रेस और उसके साथी दल भाजपा विरोधी मतों में बंटवारा करने वाली ताकत के तौर पर देखते हैं। कांग्रेस महासचिव तारिक अनवर का कहना है, ओवैसी की राजनीति विशुद्ध सांप्रदायिक है। उनका उभरना हमारे देश और लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। कांग्रेस को सभी कट्टरपंथी ताकतों के खिलाफ लड़ना होगा और जनता को समझाना होगा कि इनकी राजनीति देशहित में नहीं है।
दूसरी तरफ, एआईएमआईएम के राष्ट्रीय प्रवक्ता आसिम वकार कहते हैं, बिहार का नतीजा इस बात का गवाह है कि मुस्लिम समाज अब किसी एक पार्टी का मोहताज नहीं है। वह ओवैसी साहब में नेतृत्व में अपना भविष्य देखता है। हमें भाजपा की बी टीम कहना इन पार्टियों के खौफ को दिखाता है।
हैदराबाद से दो दशक तक लोकसभा के सदस्य रहे सलाहुद्दीन ओवैसी के सबसे बड़े पुत्र असदुद्दीन ओवैसी ने राजनीति में कदम रखने से पहले क्रिकेट के मैदान में हाथ आजमाया और बतौर तेज गेंदबाज विश्वविद्यालय स्तर पर खेले।
लंदन से वकालत की पढ़ाई करके लौटने के बाद उन्होंने पहली बार साल 1994 में राजनीतिक सफर की शुरुआत की। वह हैदराबाद की चार मीनार विधानसभा सीट से पहली बार चुनाव लड़े और जीते। साल 2004 में वह पहली बार लोकसभा पहुंचे और इसके बाद हर लोकसभा चुनाव में जीत हासिल की।
साल 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार बनने के बाद से ओवैसी मुस्लिम समाज से जुड़े मुद्दों को संसद और बाहर उठाकर अपना सियासी ग्राफ बढ़ाते चले गए। हाल के वर्षों में उन्होंने तीन तलाक विरोधी कानून, संशोधित नागरिकता कानून (सीएए) और भीड़ द्वारा हत्या की घटनाओं के खिलाफ अपनी मुखरता से मुस्लिम समाज में अपने समर्थकों का बड़ा समूह तैयार कर लिया। माना जाता है कि उनके समर्थकों में ज्यादातर युवा हैं।
ओवैसी ने राजनीति के केंद्र में मुसलमानों के साथ दलितों को लाने का भी पूरा प्रयास किया और इसी कोशिश में वह अक्सर जय भीम, जय मीम का नारा लगाते हैं। महाराष्ट्र में मुस्लिम-दलित एकता वाले राजनीतिक प्रयोग के तहत उन्होंने वंचित बहुजन अगाढ़ी के साथ गठबंधन किया, लेकिन उनके इस प्रयोग को अपेक्षाकृत सफलता नहीं मिली।
असदुद्दीन ओवैसी के दादा अब्दुल वहीद ओवैसी ने 1927 में बनी मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन को 1957 में ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के नाम से फिर से शुरू किया। असदुद्दीन के भाई अकबरुद्दीन ओवैसी तेलंगाना विधानसभा के सदस्य हैं और वह कई बार विवादित बयानों से चर्चा में आए।
ओवैसी सरकारी नौकरियों और शिक्षा संस्थानों में पिछड़े मुसलमानों के लिए आरक्षण की पैरोकारी करते हैं। उन पर कई बार मुस्लिम सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने के आरोप भी लगते हैं, लेकिन वह इससे इनकार करते हुए कई बार कह चुके हैं कि उनकी राजनीति सिर्फ हिंदुत्ववादी विचारधारा के खिलाफ है।(भाषा)