संजा पर्यावरण को समर्पित एक लोक पर्व है। यह पर्व प्रकृति की देन फल-फूल, गोबर, नदी, तालाब आदि के देखरेख के साथ ही हमें इन चीजों को संजोने की प्रेरणा भी देता है। गौ-रक्षा करके हम जहां प्रकृति से रूबरू होते है, वहीं हम तालाब का निर्माण करके जल संरक्षण में भी अपनी भागीदारी निभाते हैं।
वृक्षारोपण तथा पौधारोपण करके हम हमारी अनमोल धरा को हरा-भरा करके प्रकृति के सहायक बनते हैं और अलग-अलग रंगबिरंगी फूलों से संजा को सजाकर प्रकृति की खूबसूरती में चार चांद लगते हैं और इस तरह हर छोटे-बड़े त्योहारों को अपने जीवन में अपना कर हम प्रकृति और हमारी धार्मिक और लोक परंपराओं का संचालन करते हैं। यह पर्व सांझी, संझया, माई, संझा देवी, सांझी पर्व आदि अन्य नामों से भी जाना जाता है।
संजा का पर्व प्रतिवर्ष भाद्रपद माह की पूर्णिमा से आश्विन मास की अमावस्या तक अर्थात् पूरे श्राद्ध पक्ष में 16 दिनों तक मनाया जाता है। कई स्थानों पर कन्याएं आश्विन मास की प्रतिपदा से इस व्रत की शुरुआत करती हैं। इस त्योहार को कुंआरी युवतियां बहुत ही उत्साह और हर्ष से मनाती हैं। श्राद्ध पक्ष में 16 दिनों तक इस पर्व की रौनक ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक देखी जा सकती है।
आइए जानते हैं लोक पर्व संजा का पौराणिक महत्व। क्यों माना गया है यह पर्व खास? -
* इन दिनों चल रहे श्राद्ध पक्ष के पूरे 16 दिनों तक कुंआरी कन्याएं हर्षोल्लासपूर्ण वातावरण में दीवारों पर बहुरंगी आकृति में 'संजा' गढ़ती हैं तथा ज्ञान पाने के लिए सिद्ध स्त्री देवी के रूप में इसका पूजन करती हैं।
* एक लोक मान्यता के अनुसार- 'सांझी' सभी की 'सांझी देवी' मानी जाती है। संध्या के समय कुंआरी कन्याओं द्वारा इसकी पूजा-अर्चना की जाती है। संभवतः इसी कारण इस देवी का नाम 'सांझी' पड़ा है।
* कुछ शास्त्रों के अनुसार धरती पुत्रियां सांझी को ब्रह्मा की मानसी कन्या संध्या, दुर्गा, पार्वती तथा वरदायिनी आराध्य देवी के रूप में पूजती हैं।
* सांजी, संजा, संइया और सांझी जैसे भिन्न-भिन्न प्रचलित नाम अपने शुद्ध रूप में संध्या शब्द के द्योतक हैं।
* संजा पर्व के पांच अंतिम दिनों में हाथी-घोड़े, किला-कोट, गाड़ी आदि की आकृतियां बनाई जाती हैं।
* सोलह दिन के लोक पर्व के अंत में अमावस्या को सांझी देवी को विदा किया जाता है।
16 दिनों कि प्रतिदिन गोबर से अलग-अलग संजा बनाकर फूल व अन्य चीजों से उसका श्रृंगार किया जाता है तथा अंतिम दिन संजा को तालाब व नदी में विसर्जित किया जाता है। इस तरह इस पर्व का समापन हो जाता है।
इस पर्व की रौनक खास तौर पर मालवा, निमाड़, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा तथा अन्य कई क्षेत्रों में देखी जा सकती हैं।