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Written By वेबदुनिया न्यूज डेस्क
Last Updated : बुधवार, 18 दिसंबर 2019 (14:43 IST)

Citizenship Amendment Act : आखिर क्या है दिल्ली की जामिया हिंसा का 'काला' सच?

Citizenship Amendment Act : आखिर क्या है दिल्ली की जामिया हिंसा का 'काला' सच? - Dark truth behind Jamia violence
नागरिकता संशोधन कानून (Citizenship Amendment Act) केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार के 'विवादित' फैसलों में से एक है। इस कानून के विरोध में पहले राजधानी दिल्ली सुलगी फिर यह आग यूपी के अलगीढ़, लखनऊ, मऊ, मथुरा, बनारस होते हुए केरल, गुजरात  और बिहार तक पहुंच गई।
 
इसमें कोई संदेह नहीं कि लोकतांत्रिक तरीके से विरोध करने का समाज के हर वर्ग को अधिकार है, लेकिन दिल्ली के जामिया मिलिया  इस्लामिया विश्वविद्यालय में जिस तरह से आंदोलन हिंसक हुआ, उससे इस आशंका को जरूर बल मिलता है कि हिंसा सुनियोजित तरीके से भड़काई गई। 
 
दरअसल, नागरिकता संशोधन बिल (अब नागरिकता संशोधन कानून) में सरकार ने पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान के  अल्पसंख्यकों (हिन्दू, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध और पारसी) को इस आधार पर भारतीय नागरिकता प्रदान करने का कानून बनाया गया है कि उनके साथ वहां अत्याचार हो रहा है। ये तीनों ही इस्लामी राष्ट्र हैं।
वैसे भी पाकिस्तान की हकीकत तो किसी भी छिपी हुई भी नहीं है। यहां हिन्दू, सिख लड़कियों और महिलाओं से शादी कर उनका बलात  धर्म परिवर्तन करा दिया जाता है। पाकिस्तान से प्रताड़ित बहुत से हिन्दू, सिख और ईसाई तो दशकों से भारत में ही रहे हैं।
 
विपक्ष ने भी सरकार की नीयत सवाल उठाए हैं। सवाल जायज भी हैं कि श्रीलंका में भी तमिलों पर अत्याचार होता है, ऐसे में उन्हें भी  भारतीय नागरिकता मिलनी चाहिए। साथ ही यदि पाकिस्तान, बांग्लादेश या अफगानिस्तान में कोई मुस्लिम पीड़ित है उसे भी भारतीय  नागरिकता से वंचित नहीं किया जाना चाहिए।
 
बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन जिनके खिलाफ वर्षों पहले फतवा जारी हो चुका है, वहां लोग आज भी उनके खून के प्यासे हैं, उन्हें आज तक भारतीय नागरिकता नहीं दी गई। सिर्फ उनकी वीजा अवधि बढ़ा दी जाती है। इससे एक संदेश तो आम लोगों के बीच जा ही रहा है कि सरकार कहीं न कहीं इस मामले में 'ध्रुवीकरण' की कोशिश जरूर कर रही है, भले ही इस कानून का उद्देश्य 'पवित्र' हो। 
 
इन सबके बावजूद आंदोलन या प्रदर्शन की आड़ में हिंसा को किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता। इस दौरान भड़की हिंसा में डीटीसी की बसों समेत अन्य वाहनों को फूंक दिया गया। करोड़ों की सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाया गया। 200 से ज्यादा लोग इस पथराव और तोड़फोड़ में जख्मी हुए, इनमें प्रदर्शनकारियों के साथ पुलिसकर्मी भी शामिल थे।
 
इस मामले में जामिया के छात्रों का कहना था कि उनके प्रदर्शन में बाहरी तत्व शामिल हो गए। यदि ऐसा है तो क्या वहां के छात्र नेताओं की जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वे ऐसे तत्वों को बाहर खदेड़ते। यदि बाहरी तत्व हिंसा नहीं भड़काते तो पुलिस को भी यूनिवर्सिटी में घुसने का बहाना नहीं मिलता। इसी दौरान एक वीडियो भी वायरल हुआ जिसमें एक पुलिस अधिकारी प्रदर्शनकारी विद्यार्थियों से अपील कर रहे हैं कि वे बाहरी तत्वों को अपने बीच से अलग करें, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। 
 
इसमें कोई शक नहीं कि पुलिस को और संयम बरतना था, लेकिन हिंसा भड़काने की नीयत से छात्रों के बीच घुसे शरारती तत्वों को आखिर किस तरह नियंत्रित किया जा सकता था? इस पूरे मामले में सुनियोजित होने की बू इसलिए भी आती है क्योंकि पुलिस ने न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी  के पास हुई हिंसक झड़पों में कांग्रेस के पूर्व विधायक आसिफ मोहम्मद खान के अलावा विश्वविद्यालय के तीन छात्र नेताओं- आईसा के  चंदन कुमार, स्टूडेंट इस्लामिक आर्गेनाइजेशन (एसआईओ) के आसिफ तनहा तथा आम आदमी पार्टी की छात्र इकाई के कासिम उस्मानी के खिलाफ मामला दर्ज किया है। 
हालांकि कांग्रेस इस मामले में लिप्त होने से पूरी तरह इंकार करती रही है, लेकिन पूर्व विधायक खान के खिलाफ मामला दर्ज होने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के उन आरोपों को बल मिलता है, जिनमें उन्होंने हिंसा के पीछे कांग्रेस का हाथ होने का आरोप लगाया है। प्राथमिकी में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि पूर्व विधायक खान और आशु खान ने हिंसा से दो दिन पहले लोगों को भड़काया। हिंसा वाले दिन ये छात्रों के बीच घूम-घूमकर नारेबाजी कर रहे थे। 
 
खान का एक वीडियो भी वायरल हुआ है, जिसमें उन्होंने कहा कि कहा कि एसएचओ साहब 15 हजार पुलिस की धमकी न दें यहां 5 लाख मुसलमान रहते हैं और जरूरत पड़ी तो हम उनका नेतृत्व करेंगे। इस मामले में आम भारतीय नागरिकों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे अपने बीच के इस तरह के चेहरों को पहचानें जो लोगों को भड़काकर समाज में हिंसा का 'तांडव' रचते हैं।
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