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Last Updated : बुधवार, 30 अक्टूबर 2019 (16:00 IST)

यह नतीजे भी मोदी के लिए किसी झटके से कम नहीं

Narendra Modi | यह नतीजे भी मोदी के लिए किसी झटके से कम नहीं
महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना का गठबंधन एक बार फिर पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाने जा रहा है और हरियाणा में भी बहुमत न मिलने के बावजूद भाजपा जैसे-तैसे सरकार बनाने की स्थिति में हैं। इन दोनों राज्यों में विधानसभा चुनाव और विभिन्न राज्यों में की 51 सीटों के लिए हुए उपचुनाव के नतीजे भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए किसी झटके से कम नहीं है।

महज 5 महीने पहले हुए लोकसभा के चुनाव में राष्ट्रवाद और हिंदुत्व की लहर पर सवार होकर भाजपा ने देश के अन्य राज्यों के साथ ही इन दो राज्यों में भी विपक्षी दलों का सफाया करते हुए एक तरफा जीत हासिल की थी। लेकिन अब 5 महीने बाद हुए विधानसभा चुनाव में दोनों राज्यों के चुनाव नतीजे बताते हैं कि जनता ने राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के मुद्दे को ज्यादा तरजीह नहीं दी। जनता का लगभग यही रुझान विभिन्न राज्यों में हुए उपचुनावों के नतीजों में भी देखने को मिला है।

दावों की निकली हवा : भाजपा ने महाराष्ट्र विधानसभा की 288 सीटों में से 250 और हरियाणा विधानसभा की 90 में से 75 सीटें जीतने का न सिर्फ लक्ष्य निर्धारित किया था, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इतनी ही सीटें जीतने के दावे किए थे, लेकिन चुनाव नतीजों ने उनके दावों की हवा निकाल दी।

कहने को तो दोनों राज्यों ही राज्यों में भाजपा और कांग्रेस की बीच मुकाबला था, लेकिन हकीकत यह है कि दोनों ही राज्यों में कांग्रेस बिलकुल हारी हुई मानसिकता के साथ चुनाव लड़ रही थीं। दोनों ही राज्यों में उसे अंदरूनी कलह और बगावत का सामना करना पड़ रहा था, जिसके चलते उसके कार्यकर्ताओं में भी ज्यादा उत्साह नहीं था। पैसे और अन्य चुनावी संसाधनों के मामले में भी भाजपा उससे कहीं ज्यादा भारी नजर आ रही थी।

भविष्यवाणियां भी गलत निकलीं : कांग्रेस की सहयोगी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की हालत भी संगठन के स्तर बहुत ज्यादा अच्छी नहीं थी। उसके भी कई नेता पार्टी छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए थे। इन्हीं सब वजहों से वह इन दोनों राज्यों में भाजपा सरकारों की नाकामियों और जनता के रोजमर्रा से जुड़े मुद्दों को उस तरह से नहीं उठा पा रही थी, जिस तरह उठाने की अपेक्षा एक विपक्षी पार्टी के तौर पर उससे की जा रही थी। इन्हीं वजहों से चुनाव पूर्व आए तमाम सर्वे और एग्जिट पोल के निष्कर्ष कांग्रेस के सफाए की भविष्यवाणी कर रहे थे। लेकिन चुनाव नतीजों ने इन तमाम भविष्यवाणियों की भी हवा निकाल दी।

दूसरी ओर भाजपा भी दोनों राज्यों में दोनों राज्यों में अपनी सरकार की नाकामियों और कमजोरियों को महसूस कर रही थी, लिहाजा उसने अपना पूरा चुनाव राष्ट्रवाद और हिंदुत्व जैसे निर्गुण और निराकार मुद्दों पर केंद्रित रखा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने दोनों राज्यों में धुआंधार चुनाव प्रचार किया।

दोनों राज्यों में इन दोनों नेताओं ने अपने भाषणों में कश्मीर, अनुच्छेद 370, सर्जिकल स्ट्राइक, हिंदू-मुसलमान, तीन तलाक, गाय, पाकिस्तान, सेना के जवानों की शहादत, वन रैंक वन पेंशन, एनआरसी जैसे मुद्दों का ही जिक्र किया और भाजपा के लिए वोट मांगे। यही नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए मतदान ठीक एक दिन पहले पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में आतंकवादी कैंपों पर गोलाबारी का उपक्रम भी किया गया।

इसलिए आए सावरकर और फुले : दरअसल भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को मिली खुफिया सूचनाएं भी यही बता रही थीं कि दोनों राज्यों स्थानीय मुद्दों को लेकर लोगों, खासकर किसानों और नौजवानों में असंतोष के चलते भाजपा की हालत पतली है। इसीलिए उसकी ओर से महाराष्ट्र में जहां विनायक दामोदर सावरकर और ज्योतिबा फुले तथा सावित्री बाई फुले को भारत रत्न देने का शिगूफा छोड़कर भावनात्मक उभार लाने की कोशिश भी की गई।

महाराष्ट्र में चूंकि कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का संगठन बुरी तरह बिखरा हुआ था, उसके उम्मीदवारों के पास चुनावी संसाधनों की कमी थी, कार्यकर्ताओं में ज्यादा उत्साह नहीं था इसलिए भाजपा और शिवसेना का गठबंधन वहां बहुमत हासिल करने में कामयाब रहा। हालांकि भाजपा को पिछले चुनाव के मुकाबले कम सीटें मिलीं और राज्य सरकार में उसके कई मंत्रियों को चुनाव में हार का सामना करना पडा।

महाराष्ट्र की तरह ही हरियाणा में भी स्थानीय मुद्दों पर जनता की नाराजगी और राज्य सरकार की नाकामी के चलते भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को पार्टी की जमीन खिसकने और सत्ता हाथ से निकलने का डर सता रहा था। इसीलिए प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी ताबड़तोड़ रैलियों में राष्ट्रीय मुद्दों को ही फोकस में रखा। यहां नाराज किसानों को रिझाने के लिए प्रधानमंत्री ने पाकिस्तान को मिलने वाला सिंधु नदी का पानी रोक देने और उसे सिंचाई के लिए हरियाणा के किसानों को देने जैसी हवाई घोषणा भी की।

यही नहीं जाट समुदाय के वोटों का विभाजन करने के लिए शिक्षक भर्ती घोटाले में दोषी पाए जाने के बाद जेल की सजा काट रहे पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला को मिले दो महीने के महीने के पैरोल का भी फायदा उठाने की भाजपा ने भरपूर कोशिश की। 84 वर्षीय चौटाला ने इन दो महीनों के दौरान पूरे सूबे में लगभग दो दर्जन सभाएं कर अपनी पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल का प्रचार किया। चुनाव से ऐन पहले चौटाला दो महीने के पैरोल पर जेल से बाहर कैसे आए और राजनीतिक गतिविधियों में कैसे भाग लेते रहे, इस सवाल का जवाब तो वह अदालत ही दे सकती है, जिसने उनका पैरोल मंजूर किया होगा।

हरियाणा में ज्यादातर मंत्री हारे : लेकिन भाजपा अपनी तमाम हिकमत अमली के बावजूद हरियाणा में मनचाहे नतीजे हासिल नहीं कर सकी। मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर और एक अन्य मंत्री को छोडकर राज्य के सारे मंत्रियों को करारी हार का सामना करना पडा। जिन ओमप्रकाश चौटाला को पैरोल पर लाकर उनकी सभाएं कराई गई थीं, उनकी पार्टी इंडियन नेशनल लोकदल का भी बुरी तरह सफाया हो गया। अलबत्ता चौटाला से बगावत कर नई पार्टी बनाने वाले उनके पोते दुष्यंत चौटाला अपनी हनक दिखाने में कामयाब रहे। उनकी जननायक जनता पार्टी 10 सीटें जीतने में सफल रही।

महाराष्ट्र की तरह हरियाणा में भी कांग्रेस अंदरुनी कलह से ग्रस्त थी, लेकिन उसने चुनाव से पहले कुमारी शैलजा को पार्टी का प्रदेशाध्यक्ष बनाकर तथा पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र हुडा को चुनाव अभियान की कमान सौंपकर स्थिति को थोडा संभाल लिया था। कांग्रेस आलाकमान ने यही फैसला अगर चुनाव से दो तीन महीने पहले कर लिया होता तो संभवत: उसके लिए नतीजे और भी अच्छे आ सकते थे।

नहीं चली 370 और सर्जिकल स्ट्राइक : दोनों राज्यों में चाकचौबंद सत्तारूढ़ भाजपा के मुकाबले विपक्ष जिस लुंजपुंज स्थिति में था, उसके बावजूद भाजपा की ताकत पहले से घटी है तो इसकी एकमात्र वजह यही है कि जनता कश्मीर, अनुच्छेद 370, पाकिस्तान, सर्जिकल स्ट्राइक, जैसे मुद्दों के मुकाबले अपने रोजमर्रा के जीवन से जुडे मुद्दों को ही ज्यादा तरजीह दी और उसने भाजपा को संदेश दिया कि राष्ट्रवाद और अन्य भावनात्मक मुद्दे एक हद तक ही कारगर हो सकते हैं। विभिन्न राज्यों में हुए 51 विधानसभा सीटों के उपचुनावों के नतीजों का भी कमोबेश यही संदेश हैं। इन उपचुनावों में ज्यादातर सीटों पर भाजपा और उसके सहयोगी दलों को हार का सामना करना पडा है।

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)