यह शाश्वत सत्य है कि जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है। किंतु हमें वेद, पुराण तथा अन्य शास्त्रों में मृत्यु के पश्चात पुनः जीवित होने के वृत्तांत मिलते हैं। गणेश का सिर काट कर हाथी का सिर लगा कर शिव ने गणेश को पुनः जीवित कर दिया।
भगवान शंकर ने ही दक्ष प्रजापति का शिरोच्छेदन कर वध कर दिया था और पुनः अज (बकरे) का सिर लगा कर उन्हें जीवन दान दे दिया। सगर राजा के साठ हजार पुत्रों को पुनर्जीवित करने के लिए राजा भगीरथ सैकड़ों वर्ष तपस्या करके गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाए और सागर पुत्रों को जीवन प्राप्त हुआ।
उक्त समस्त वृत्तांतों का प्रत्यक्ष संबंध शिव से है।
ऐसे अनगिनत वृत्तांत शास्त्रों में मिलते हैं जिससे स्पष्ट होता है कि भगवान शिव, जो महामृत्युंजय भगवन भी कहलाते हैं, रोग, संकट, शत्रु आदि का शमन तो करते ही हैं, जीवन तक प्रदान कर देते हैं। महर्षि वशिष्ठ, मार्कंडेय और शुक्राचार्य महामृत्युंजय मंत्र के साधक और प्रयोगकर्ता हुए हैं।
ऋषि मार्कंडेय ने महामृत्युंजय मंत्र के बल पर अपनी मृत्यु को टाल दिया था, यमराज को खाली हाथ वापस यमलोक जाना पड़ा था।
लंकापति रावण भी महामृत्युंजय मंत्र का साधक था। इसी मंत्र के प्रभाव से उसने दस बार अपने नौ सिर काट कर उन्हें अर्पित कर दिए थे।
शुक्राचार्य के पास दिव्य महामृत्युंजय मंत्र था जिसके प्रभाव से वह युद्ध में आहत सैनिकों को स्वस्थ कर देते थे और मृतकों को तुरंत पुनर्जीवित कर देते थे।
शुक्राचार्य ने रक्तबीज नामक राक्षस को महामृत्युंजय सिद्धि प्रदान कर युद्धभूमि में रक्त की बूंद से संपूर्ण देह की उत्पत्ति कराई थी।
सबसे महत्वपूर्ण कथा यह है कि महामृत्युंजय मंत्र के प्रभाव से ही गुरु द्रोणाचार्य को अश्वत्थामा की प्राप्ति हुई थी, कहा जाता है कि शाप के साथ-साथ यह भी एक वजह है कि वह आज भी जीवित है। कई लोगों ने उसे उसी देह में नर्मदा नदी के किनारे घूमते देखा है।
अश्वत्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र थे। द्रोणाचार्य ने शिव को अपनी तपस्या से प्रसन्न करके उन्हीं के अंश से अश्वत्थामा नामक पुत्र को प्राप्त किया। अश्वत्थामा के पास शिवजी के द्वारा दी गई कई शक्तियां थी। वे स्वयं शिव का अंश थे।
जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी, जोकि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी। इस मणि के कारण ही उस पर किसी भी अस्त्र-शस्त्र का असर नहीं हो पाता था।
द्रौपदी ने अश्वत्थामा को जीवनदान देत हुए अर्जुन से उसकी मणि उतार लेने का सुझाव दिया। अत: अर्जुन ने इनकी मुकुट मणि लेकर प्राणदान दे दिया। अर्जुन ने यह मणि द्रौपदी को दे दी जिसे द्रौपदी ने युधिष्ठिर के अधिकार में दे दी। श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को 6 हजार साल तक भटकने का शाप दिया।
शिव महापुराण (शतरुद्रसंहिता -37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा व नर्मदा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।
किस कार्य के लिए कितनी बार जपें महामृत्युंजय मंत्र..
शास्त्रों में अलग-अलग कार्यों के लिए अलग-अलग संख्याओं में मंत्र के जप का विधान है। इसमें किस कार्य के लिए कितनी संख्या में जप करना चाहिए इसका उल्लेख किया गया है।
* भय से छुटकारा पाने के लिए 1100 मंत्र का जप किया जाता है।
* रोगों से मुक्ति के लिए 11000 मंत्रों का जप किया जाता है।
* पुत्र की प्राप्ति के लिए, उन्नति के लिए, अकाल मृत्यु से बचने के लिए सवा लाख की संख्या में मंत्र जप करना अनिवार्य है।
* मंत्रानुष्ठान के लिए शास्त्र के विधान का पालन करना परम आवश्यक है, अन्यथा लाभ के बदले हानि की संभावना अधिक रहती है।
इसलिए यह आवश्यक है कि प्रत्येक कार्य शास्त्रसम्मत ही किया जाए। इस हेतु किसी योग्य और विद्वान व्यक्ति का मार्गदर्शन लेना चाहिए।
* यदि साधक पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ यह साधना करें, तो वांछित फल की प्राप्ति की प्रबल संभावना रहती है।
इसका सामान्य मंत्र निम्नलिखित है, किंतु साधक को बीजमंत्र का ही जप करना चाहिए।
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय माऽमृतात् ॥