अश्वत्थामा के 10 रहस्य...जानिए
पराजयो वा मृत्युर्वा श्रेयान् मृत्युर्न निर्जयः।
विजितारयो ह्येते शस्त्रोपसर्गान्मृतोपमाः।।
अर्थात : जिसने अस्त्र डाल दिए हों, आत्मसमर्पण कर दिया वे सभी शत्रु विजित ही हैं, वे मृत के समान ही हैं- अश्वत्थामा
महाभारत में द्रोण पुत्र अश्वत्थामा एक ऐसा योद्धा था, जो अकेले के ही दम पर संपूर्ण युद्ध लड़ने की क्षमता रखता था। कौरवों की सेना में एक से एक योद्धा थे। पांडवों की सेना हर लिहाज से कौरवों की सेना से कमजोर थी लेकिन फिर भी कौरव हार गए।
महाभारत युद्ध के बाद जीवित बचे 18 योद्धाओं में से एक अश्वत्थामा भी थे। अश्वत्थामा को संपूर्ण महाभारत के युद्ध में कोई हरा नहीं सका था। वे आज भी अपराजित और अमर हैं। आओ जानते हैं अश्वत्थामा के जीवन से जुड़े ऐसे 10 रहस्य जिसको हर कोई जानता चाहता है और अंत में ऐसा रहस्य तो अभी तक कोई नहीं जान पाया है।
अगले पन्ने पर पहला रहस्य...
शारद्वतीं ततो भार्यां कृपीं द्रोणोऽन्वविन्दत्।
अग्रिहोत्रे च धर्मे च दमे च सततं रताम्।। 46 ।। -महाभारत (संभव पर्व)
जन्म का रहस्य : अश्वत्थामा का जन्म भारद्वाज ऋषि के पुत्र द्रोण के यहां हुआ था। उनकी माता ऋषि शरद्वान की पुत्री कृपी थीं। द्रोणाचार्य का गोत्र अंगिरा था। तपस्यारत द्रोण ने पितरों की आज्ञा से संतान प्राप्ति हेतु कृपी से विवाह किया। कृपी भी बड़ी ही धर्मज्ञ, सुशील और तपस्विनी थीं। दोनों ही संपन्न परिवार से थे।
जन्म लेते ही अश्वत्थामा ने उच्चैःश्रवा (अश्व) के समान घोर शब्द किया, जो सभी दिशाओं और व्योम में गुंज उठा। तब आकाशवाणी हुई कि इस विशिष्ट बालक का नाम अश्वत्थामा होगा:-
अलभत गौतमी पुत्रमश्वत्थामानमेव च।
स जात मात्रो व्यनदद् यथैवोच्चैः श्रवा हयः।।47।।
तच्छुत्वान्तर्हितं भूतमन्तरिक्षस्थमब्रवीत्।
अश्वस्येवास्य यत् स्थाम नदतः प्रदिशो गतम्।।48।।
अश्वत्थामैव बाल्तोऽयं तस्मान्नाम्ना भविष्यति।
सुतेन तेन सुप्रीतो भरद्वाजस्ततोऽभवत्।।49।।
अगले पन्ने पर दूसरा रहस्य...
बदल गया द्रोण का जीवन : अश्वत्थामा के जन्म के बाद द्रोण की आर्थिक स्थिति गिरती गई। घर में कुछ भी खाने को नहीं बचा। विपन्नता आ गई। इस विपन्नता को दूर करने के लिए द्रोण परशुरामजी से विद्या प्राप्त करने उनके आश्रम गए।
द्रोण आश्रम से लौटे तो घर में गाय तक न थी। अन्य ऋषि कुमारों को दूध पीते देख अश्वत्थामा दूध हेतु रोता था और एक दिन द्रोण ने देखा कि ऋषि कुमार चावल के आटे का घोल बनाकर अश्वत्थामा को पिला चुके हैं और अबोध बालक (अश्वत्थामा) 'मैंने दूध पी लिया' यह कहते हुए आनंदित हो रहा है। यह देख द्रोण स्वयं को धिक्कार उठे।
इससे यह सिद्ध होता है कि अश्वत्थामा ने अपना बचपन जैसे-तैसे खा-पीकर बिताया। उनके लिए घर में पीने को दूध तक नहीं होता था। लेकिन जब वे अपने मित्रों के बीच रहते थे तो झूठ ही कह देते थे कि मैंने तो दूध पी लिया।
अगले पन्ने पर तीसरा रहस्य...
पिता का अपमान : पिता ने जब बालक अश्वत्थामा की यह अवस्था देखी तो उन्होंने खुद को इसका दोषी माना और वे उसके लिए गाय की व्यवस्था हेतु स्थान-स्थान पर घूमकर धर्मयुक्त दान के लिए भटके लेकिन उन्हें कोई भी गाय दान में नहीं मिली। अंत में उन्होंने सोचा कि क्यों न अपने बचपन के मित्र राजा द्रुपद के पास जाया जाए।
वे अपने पुत्र अश्वत्थामा के साथ राजा द्रुपद के दरबार में जा पहुंचे। राजा द्रुपद की राजसभा में पिता की अवमानना बालक अश्वत्थामा ने देखी थी और देखी होगी उनकी विवशता और क्रूर विडंबना कि शस्त्र-शास्त्र के ज्ञाता भी सत्तासीन मदमत्त व्यक्ति द्वारा अपमानित होते हैं। अश्वत्थामा के बाल मन पर उस वक्त क्या गुजरी होगी, जब उनके पिता को वहां से धक्के मारकर निकाल दिया गया।
अगले पन्ने पर चौथा रहस्य...
अश्वत्थामा बने शिक्षक और राजा : अश्वत्थामा को लेकर द्रोण पाञ्चाल राज्य से कुरु राज्य में हस्तिनापुर आ गए और वहां वे कुरु कुमारों को धनुष-बाण की शिक्षा देने लगे। वहां पर वे कृप शास्त्र की शिक्षा देते थे। अश्वत्थामा भी पिता के इस कार्य में मदद करने लगे। वे भी कुरुओं को बाण विद्या सिखाते थे।
बाद में द्रोण कौरवों के आचार्य बन गए। उन्होंने दुर्योधन सहित अर्जुन आदि को शिक्षा दी। आचार्य के प्रति उदारता दिखाते हुए पांडवों ने गुरु दक्षिणा में उनको द्रुपद का राज्य छीनकर दे दिया। बाद में द्रोण ने आधा राज्य द्रुपद को लौटा दिया और आधे को उन्होंने अश्वत्थामा को दे दिया था। उत्तर पाञ्चाल का आधा राज्य लेकर अश्वत्थामा वहां के राजा बन गए और उन्होंने अपने राज्य की राजधानी अहिच्छ्त्र को बनाया।
अब द्रोण भारतभर के सबसे श्रेष्ठ आचार्य थे। कुरु राज्य में उन्हें भीष्म, धृतराष्ट्र, विदुर आदि से पूर्ण सम्मान प्राप्त था, अतः अभावों के दिन विदा हो गए थे।
अगले पन्ने पर पांचवां रहस्य...
संपूर्ण विद्याओं में पारंगत अश्वत्थामा : अश्वत्थामा जीवन के संघर्ष की आग में तपकर सोना बना था। महान पिता द्रोणाचार्य से उन्होंने धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया था। द्रोण ने अश्वत्थामा को धनुर्वेद के सारे रहस्य बता दिए थे। सारे दिव्यास्त्र, आग्नेय, वरुणास्त्र, पर्जन्यास्त्र, वायव्यास्त्र, ब्रह्मास्त्र, नारायणास्त्र, ब्रह्मशिर आदि सभी उसने सिद्ध कर लिए थे। वह भी द्रोण, भीष्म, परशुराम की कोटि का धनुर्धर बन गया। कृप, अर्जुन व कर्ण भी उससे अधिक श्रेष्ठ नहीं थे। नारायणास्त्र एक ऐसा अस्त्र था जिसका ज्ञान द्रोण के अलावा माभारत के अन्य किसी योद्धा को नहीं था। यह बहुत ही भयंकर अस्त्र था।
अश्वत्थामा के ब्रह्मतेज, वीरता, धैर्य, तितिक्षा, शस्त्रज्ञान, नीतिज्ञान, बुद्धिमत्ता के विषय में किसी को संदेह नहीं था। दोनों पक्षों के महारथी उसकी शक्ति से परिचित थे। महाभारत काल के सभी प्रमुख व्यक्ति अश्वत्थामा के बल, बुद्धि व शील के प्रशंसक थे।
भीष्मजी रथियों व अतिरथियों की गणना करते हुए राजा दुर्योधन से अश्वत्थामा के बारे में उनकी प्रशंसा करते हैं किंतु वे अश्वत्थामा के दुर्गुण भी बताते हैं। उनके जैसा निर्भीक योद्धा कौरव पक्ष में और कोई नहीं था।
अगले पन्ने पर छठा रहस्य...
अश्वत्थामा का भय : जब राक्षसों की सेना ने घटोत्कच के नेतृत्व में भयानक आक्रमण किया तो सभी कौरव वीर भाग खड़े, तब अकेले ही अश्वत्थामा वहां अड़े रहे। उन्होंने घटोत्कच के पुत्र अंजनपर्वा को मार डाला। साथ ही उन्होंने पांडवों की एक अक्षौहिणी सेना को भी मार डाला और घटोत्कच को घायल कर दिया।
अश्वत्थामा कौरव सेना के प्रधान महारथी थे। कुरुराज ने अपने पक्ष की ग्यारह अक्षौहिणी सेना को ग्यारह महारथियों के सेनापतित्व में संगठित किया था। ये थे- द्रोण, कृप, शल्य, जयद्रथ, सुदक्षिण, कृतवर्मा, अश्वत्थामा, कर्ण, भूरिश्रवा, शकुनि और बाह्लीक। अतः अश्वत्थामा ग्यारह सेनापतियों में एक प्रमुख स्थान रखता है।
इधर युद्ध में अर्जुन, कृष्ण, युधिष्ठिर, भीम, नकुल, सहदेव, द्रुपद, धृष्टद्युम्न तथा घटोत्कच आदि लड़ रहे थे। उनके रहते हुए भी उनके देखते ही देखते अश्वत्थामा ने द्रुपद, सुत सुरथ और शत्रुंजय, कुंतीभोज के 90 पुत्रों तथा बलानीक, शतानीक, जयाश्व, श्रुताह्य, हेममाली, पृषध्र तथा चन्द्रसेन जैसे वीरों को रण में मार डाला और युधिष्ठिर की सेना को भगा दिया था।
अश्वत्थामा द्वारा किए जा रहे इस विध्वंस को देखते हुए पांडव पक्ष में भय और आतंक व्याप्त हो गया था। अब अश्वत्थामा को रोका जाना बहुत जरूरी हो गया था। सभी इस पर विचार करने लगे थे अन्यथा अगले दिन हार निश्चित थी।
अगले पन्ने पर सातवां रहस्य...
अश्वत्थामा गज मारा गया : भीष्म के शरशय्या पर लेटने के बाद ग्यारहवें दिन के युद्ध में कर्ण के कहने पर द्रोण सेनापति बनाए जाते हैं। दुर्योधन और शकुनि द्रोण से कहते हैं कि वे युधिष्ठिर को बंदी बना लें तो युद्ध अपने आप खत्म हो जाएगा, तो जब दिन के अंत में द्रोण युधिष्ठिर को युद्ध में हराकर उसे बंदी बनाने के लिए आगे बढ़ते ही हैं कि अर्जुन आकर अपने बाणों की वर्षा से उन्हें रोक देता है। नकुल, युधिष्ठिर के साथ थे व अर्जुन भी वापस युधिष्ठिर के पास आ गए। इस प्रकार कौरव युधिष्ठिर को नहीं पकड़ सके।
लेकिन द्रोण की संहारक शक्ति के बढ़ते जाने से पांडवों के खेमे में दहशत फैल जाती है। पिता-पुत्र ने मिलकर महाभारत युद्ध में पांडवों की हार सुनिश्चित कर दी थी। पांडवों की हार को देखकर श्रीकृष्ण ने युधिष्ठिर से छल का सहारा लेने को कहा। इस योजना के तहत युद्ध में यह बात फैला दी गई कि 'अश्वत्थामा मारा गया', लेकिन युधिष्ठिर झूठ बोलने को तैयार नहीं थे। तब अवंतिराज के अश्वत्थामा नामक हाथी का भीम द्वारा वध कर दिया गया। इसके बाद युद्ध में यह बाद फैला दी गई कि 'अश्वत्थामा मारा गया'।
जब गुरु द्रोणाचार्य ने धर्मराज युधिष्ठिर से अश्वत्थामा की सत्यता जानना चाही तो उन्होंने जवाब दिया- 'अश्वत्थामा मारा गया, परंतु हाथी।' श्रीकृष्ण ने उसी समय शंखनाद किया जिसके शोर के चलते गुरु द्रोणाचार्य आखिरी शब्द 'हाथी' नहीं सुन पाए और उन्होंने समझा कि मेरा पुत्र मारा गया। यह सुनकर उन्होंने शस्त्र त्याग दिए और युद्ध भूमि में आंखें बंद कर शोक में डूब गए। यही मौका था जबकि द्रोणाचार्य को निहत्था जानकर द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न ने तलवार से उनका सिर काट डाला। यह समाचार अश्वत्थामा के लिए भयंकर रूप से दुखद था। पिता की छलपूर्वक हत्या के बाद अश्वत्थामा युद्ध के सभी नियमों को तोड़कर ताक में रख देता है।
अगले पन्ने पर आठवां रहस्य...
नारायणास्त्र का प्रयोग : पिता की छलपूर्वक मृत्यु से दुखी होकर अश्वत्थामा मजबूर होकर नारायणास्त्र का प्रयोग करता है जिसके चलते एक ही झटके में पांडवों सहित उनकी संपूर्ण सेना नष्ट हो जाती।
सभी नारायणास्त्र से नष्ट हो जाते लेकिन पांडवों को इस अस्त्र से बचने के लिए तुरंत ही कृष्ण उनसे अपने-अपने अस्त्र त्यागकर रथ से नीचे उतरने का आदेश देते हैं और कहते हैं कि सभी नारायणास्त्र के सामने आत्मसमर्पण कर लो अन्यथा मारे जाओगे।
सभी पांडव और सेना ऐसा ही करती है। समर्पण से ही वे सभी बच सके। जब अश्वत्थामा यह देखता है कि सभी पांडव बच गए हैं तो उसे उस अस्त्र पर संदेह होता है। तब वह अर्जुन पर आग्नेयास्त्र का प्रयोग करता है लेकिन श्रीकृष्ण के कारण अर्जुन फिर बच जाता है। तब अश्वत्थामा को बड़ा क्रोध आता है वह अपना धनुष फेंक देता है और अपनी विद्या पर संदेह करने लगता है।
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अंत में ब्रह्मास्त्र का प्रयोग : अठारहवें दिन कौरवों के तीन योद्धा शेष बचते हैं- अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा। इसी दिन अश्वत्थामा द्वारा पांडवों के वध की प्रतिज्ञा ली गई। लेकिन समझ में नहीं आता कि कैसे पांडवों को मारा जाए।
एक उल्लू द्वारा रात्रि को कौवे पर आक्रमण करने पर एक उल्लू उन सभी को मार देता है। यह घटना देखकर अश्वत्थामा के मन में भी यही विचार आता है और वह घोर कालरात्रि में कृपाचार्य तथा कृतवर्मा की सहायता से पांडवों के शिविर में पहुंचकर सोते हुए पांडवों के 5 पुत्रों को पांडव समझकर उनका सिर काट देता है। इस घटना से धृष्टद्युम्न जाग जाता है तो अश्वत्थामा उसका भी वध कर देता है।
अश्वत्थामा के इस कुकर्म की सभी निंदा करते हैं। अपने पुत्रों की हत्या से दुखी द्रौपदी विलाप करने लगती है। उसके विलाप को सुनकर अर्जुन उस नीच-कर्म हत्यारे ब्राह्मण पुत्र अश्वत्थामा के सिर को काट डालने की प्रतिज्ञा लेते हैं। अर्जुन की प्रतिज्ञा सुन अश्वत्थामा भाग निकलता है, तब श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर एवं अपना गाण्डीव-धनुष लेकर अर्जुन उसका पीछा करता है। अश्वत्थामा को कहीं भी सुरक्षा नहीं मिली तो भय के कारण वह अर्जुन पर ब्रह्मास्त्र का प्रयोग कर देता है।
मजबूरी में अर्जुन को भी ब्रह्मास्त्र चलाना पड़ता है। ऋषियों की प्रार्थना पर अर्जुन तो अपना अस्त्र वापस ले लेता है लेकिन अश्वत्थामा अपना ब्रह्मास्त्र अभिमन्यु की विधवा उत्तरा की कोख की तरफ मोड़ देता है। कृष्ण अपनी शक्ति से उत्तरा के गर्भ को बचा लेते हैं।
अंत में श्रीकृष्ण बोलते हैं, 'हे अर्जुन! धर्मात्मा, सोए हुए, असावधान, मतवाले, पागल, अज्ञानी, रथहीन, स्त्री तथा बालक को मारना धर्म के अनुसार वर्जित है। इसने धर्म के विरुद्ध आचरण किया है, सोए हुए निरपराध बालकों की हत्या की है। जीवित रहेगा तो पुनः पाप करेगा अतः तत्काल इसका वध करके और इसका कटा हुआ सिर द्रौपदी के सामने रखकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।'
श्रीकृष्ण के इन वचनों को सुनने के बाद भी अर्जुन को अपने गुरुपुत्र पर दया आ गई और उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित ही शिविर में ले जाकर द्रौपदी के समक्ष खड़ा कर दिया। पशु की तरह बंधे हुए गुरुपुत्र को देखकर द्रौपदी ने कहा, 'हे आर्यपुत्र! ये गुरुपुत्र तथा ब्राह्मण हैं। ब्राह्मण सदा पूजनीय होता है और उसकी हत्या करना पाप है। आपने इनके पिता से इन अपूर्व शस्त्रास्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया है। पुत्र के रूप में आचार्य द्रोण ही आपके सम्मुख बंदी रूप में खड़े हैं। इनका वध करने से इनकी माता कृपी मेरी तरह ही कातर होकर पुत्रशोक में विलाप करेगी। पुत्र से विशेष मोह होने के कारण ही वह द्रोणाचार्य के साथ सती नहीं हुई। कृपी की आत्मा निरंतर मुझे कोसेगी। इनके वध करने से मेरे मृत पुत्र लौटकर तो नहीं आ सकते अतः आप इन्हें मुक्त कर दीजिए।'
द्रौपदी के इन धर्मयुक्त वचनों को सुनकर सभी ने उसकी प्रशंसा की। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा, 'हे अर्जुन! शास्त्रों के अनुसार पतित ब्राह्मण का वध भी पाप है और आततायी को दंड न देना भी पाप है अतः तुम वही करो जो उचित है।'
उनकी बात को समझकर अर्जुन ने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के सिर के केश काट डाले और उसके मस्तक की मणि निकाल ली। मणि निकल जाने से वह श्रीहीन हो गया। बाद में श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को 6 हजार साल तक भटकने का शाप दिया। अंत में अर्जुन ने उसे उसी अपमानित अवस्था में शिविर से बाहर निकाल दिया।
अगले पन्ने पर 10वां रहस्य...
कहां चले गए अश्वत्थामा : इस प्रकार हिंसा और अभिशाप में क्रोध और विषाद में इस महान विद्वान और दुर्धर्ष वीर की कथा का समापन होता है। युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण के सामने प्रश्न रखा था कि अकेले अश्वत्थामा ने इतना भयानक कांड कैसे कर दिया-
कथं नु कृष्ण पापेन क्षुद्रणाकृत कर्मणा।
द्रौणिना निहताः सर्वे मम पुत्रा महारथः।।
किन्नु तेन कृतं कर्म तथा युक्तं नरर्षभ।
यदेकः समरे सर्वानवधीन्नो गुरोः सुतः।।
कृष्ण कहते हैं कि यह कर्म अश्वत्थामा ने शिवजी से प्राप्त शक्ति से किया:-
न तन्मनसि कर्तव्यं न च तद् द्रौणिना कृतम्।
महादेव प्रसादेन कुरू कार्यमनन्तरम्।।
नूनं स देव देवानामीश्वरेश्वरमव्ययम्।
जगाम शरणं द्रौणिरेकस्तेन बधीद् बहून्।।
कृप, हार्दिक्य तथा अश्वत्थामा (द्रौणि) तीनों ने महाविनाश कर यह संवाद दुर्योधन से कहा फिर राजा धृतराष्ट्र को बताया और कहा कि हम तीन हैं और पाण्डव पांच हैं और कोई नहीं बचा।
फिर वे तीनों दिशाओं में चले गए। कृप हस्तिनापुर गए। कृतवर्मा द्वारिका तथा द्रौणि (अश्वत्थामा) व्यास के साथ वन चले गए। आज भी भारत के जंगलों में अश्वत्थामा को देखे जाने की घटनाएं दर्ज की जाती है। कभी उसे मध्यप्रदेश के जंगलों में देखा गया तो कभी उड़ीसा के और कभी उत्तराखंड के जंगलों में। अश्वत्थामा आज भी जीवित है और वह कल्प के अंत तक जीवित रहेंगे।
अंत में अश्वत्थामा की मस्तक मणि का रहस्य जानिए..
अश्वत्थामा द्रोणाचार्य के पुत्र थे। द्रोणाचार्य ने शिव को अपनी तपस्या से प्रसन्न करके उन्हीं के अंश से अश्वत्थामा नामक पुत्र को प्राप्त किया। अश्वत्थामा के पास शिवजी के द्वारा दी गई कई शक्तियां थी। वे स्वयं शिव का अंश थे।
जन्म से ही अश्वत्थामा के मस्तक में एक अमूल्य मणि विद्यमान थी, जोकि उसे दैत्य, दानव, शस्त्र, व्याधि, देवता, नाग आदि से निर्भय रखती थी। इस मणि के कारण ही उस पर किसी भी अस्त्र-शस्त्र का असर नहीं हो पाता था।
द्रौपदी ने अश्वत्थामा को जीवनदान देत हुए अर्जुन से उसकी मणि उतार लेने का सुझाव दिया। अत: अर्जुन ने इनकी मुकुट मणि लेकर प्राणदान दे दिया। अर्जुन ने यह मणि द्रौपदी को दे दी जिसे द्रौपदी ने युधिष्ठिर के अधिकार में दे दी।
शिव महापुराण (शतरुद्रसंहिता -37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।
संकलन : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'