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अहमद फ़राज़ की ग़ज़लें
हुई है शाम तो आँखों में बस गया फिर तूकहाँ गया है मेरे शहर के मुसाफ़िर तू बहुत उदास है इक शख्स तेरे जाने से जो हो सके तो चला आ उसी की ख़ातिर तूमेरी मिसाल के इक नख़्ल-ए-ख़ुश्क सहरा हूँतेरा ख़्याल के शाख़-ए-चमन का ताइर तूमैं जानता हूँ कि दुनिया तुझे बदल देगीमैं मानता हूँ कि ऎसा नहीं बज़ाहिर तू हँसी-ख़ुशी से बिछड़ जा अगर बिछड़ना है ये हर मुक़ाम पे क्या सोचता है आख़िर तू फ़राज़ तूने उसे मुश्किलों में डाल दियाज़माना साहिब-ए-ज़र और सिर्फ़ शाइर तू 2.
दश्त-ए-नामुरादे में साथ कौन था किस केमर्सिये सुनाती है शहर की हवा किस के हम तो कल नहीं होंगे देखनाके मेहफ़िल में अब सुख़न सुनाता है यार-ए-बेवफ़ा किस के अहदे-हिज्र में यारो सब के हौसले मालूम दिलपे हाथ था किसका, लबपे थी दुआ किस केकल सलीब पर जो था, कल सलीब पर जो थाआज नाम लेवा हैं लोग जाबजा किस केअब फ़राज़ तुझ पर भी ऎतबार क्यों कीजे इंतिज़ार था किसका, साथ चल पड़ा किस के 3.
सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते जाते वरना इतने तो मरासिम थे के आते जातेशिकवा-ए-ज़ुल्मत-ए-शब से तो कहीं बेहतर थाअपने हिस्से की कोई शम्आ जलाते जाते कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जानाँ फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते जाते जश्ने-मक़तल ही न बरपा हुआ वरना हम भी पा बजौलाँ ही सही नाचते गाते जाते उसकी वोजाने उसे पास-ए-वफ़ा था के न थातुम फ़राज़ अपनी तरह से तो निभाते जाते