शनिवार, 20 अप्रैल 2024
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Written By अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

क्या पार्वती ही है माता दुर्गा, जानिए रहस्य...

क्या पार्वती ही है माता दुर्गा, जानिए रहस्य... - Navratri : Parvati and durga
यदि आप देवी के भक्त है तो आपको यह लेख जरूर अंत तक पढ़ना चाहिए क्योंकि इससे आपके भ्रम का समाधान होगा। तब आप जान सकेंगे कि आप किस देवी की पूजा कर रहे हैं।
हिन्दू धर्म में सैंकड़ों देवियां हैं। उनमें से कुछ प्रजापतियों की पुत्रियां हैं, तो कुछ स्यंभू हैं और कुछ अन्य किसी देवता की पत्नियां हैं। यहां हम जानते हैं माता दुर्गा का रहस्य जिन्हें अम्बे, जगदम्बे, शेरावाली, पहाड़ावाली, चामुंडा, तुलजा आदि कहा जाता है। जिन्हें महिष मर्दिनी और शुम्भ-निशुम्भ, चंड-मुंड और रक्तबीज आदि का वध करने वाली कहा जाता है। लेकिन क्या ये सभी देवियां एक ही है या अलग-अलग?
 
 
यह तो आप जानते ही होंगे कि सरस्वती और लक्ष्मी इन दुर्गा माता से भिन्न हैं, लेकिन अब सवाल यह उठता है कि पार्वती भी क्या दुर्गा या अम्बे ही है? क्या काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला ये सभी एक ही माता हैं? क्या शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री माता सभी एक ही है? जानिए इसका रहस्य... 
 

आदि शक्ति मां जगदम्बे : शिवपुराण के अनुसार उस अविनाशी परब्रह्म (काल) ने कुछ काल के बाद द्वितीय की इच्छा प्रकट की। उसके भीतर एक से अनेक होने का संकल्प उदित हुआ। तब उस निराकार परमात्मा ने अपनी लीला शक्ति से आकार की कल्पना की, जो मूर्तिरहित परम ब्रह्म है। परम ब्रह्म अर्थात एकाक्षर ब्रह्म। परम अक्षर ब्रह्म। वह परम ब्रह्म भगवान सदाशिव है। एकांकी रहकर स्वेच्छा से सभी ओर विहार करने वाले उस सदाशिव ने अपने विग्रह (शरीर) से शक्ति की सृष्टि की, जो उनके अपने श्रीअंग से कभी अलग होने वाली नहीं थी। सदाशिव की उस पराशक्ति को प्रधान प्रकृति, गुणवती माया, बुद्धि तत्व की जननी तथा विकाररहित बताया गया है।
वह शक्ति अम्बिका (पार्वती या सती नहीं) कही गई है। उसको प्रकृति, सर्वेश्वरी, त्रिदेव जननी (ब्रह्मा, विष्णु और महेश की माता), नित्या और मूल कारण भी कहते हैं। सदाशिव द्वारा प्रकट की गई उस शक्ति की 8 भुजाएं हैं।
 
पराशक्ति जगतजननी वह देवी नाना प्रकार की गतियों से संपन्न है और अनेक प्रकार के अस्त्र शक्ति धारण करती है। एकांकिनी होने पर भी वह माया शक्ति संयोगवशात अनेक हो जाती है। उस कालरूप सदाशिव की अर्द्धांगिनी को ही अम्बा जगदम्बा कहते हैं।
 
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नवदुर्गा का रहस्य : नवरात्रि के नौ दिनों में जिन देवियों को पूजा जाता है उनमें से कौन सी देवी का संबंध किससे है यह जानना जरूरी है। पहली देवी शैलपुत्री को सती कहा गया है जो द‍क्ष की पुत्र थीं, जिन्होंने यज्ञ की आग में कूदकर खुद को भस्म कर लिया था। इसके बाद उन्होंने ही ब्रह्मचारिणी के रूप में दूसरा जन्म लिया और वे ही बाद में स्कंद (कार्तिकेय) की माता कहलाई। कठोरतप करने के कारण जब उनका वर्ण काला पड़ गया तब शिव ने प्रसंन्न होकर इनके शरीर को गंगाजी के पवित्र जल से मलकर धोया तब वह विद्युत प्रभा के समान अत्यंत कांतिमान-गौर हो उठा। तभी से इनका नाम महागौरी पड़ा। यही माता हिमालय की पुत्री होने के कारण पार्वती कहलायी।
 
 
 
ये हैं नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्धिदात्री माता सभी एक ही है?

 
इससे यह सिद्ध हुआ की शैलपुत्री, स्कंदमाता और महागौरी तो शिवजी की पत्नियां हैं और बाकी सभी आदि शक्ति जगदम्बा के ही रूप हैं जो शिवजी की माता हैं। कात्यायनी का नाम इसलिए कात्यायनी पड़ा क्योंकि कात्य गोत्र में जन्में प्रसिद्ध महर्षि कात्यायन ने भगवती पराम्बा की कठिन तपस्या की थीं। उनकी इच्छा थी कि उन्हें पुत्री प्राप्त हो। तब मां भगवती ने उनके घर पुत्री के रूप में जन्म लिया। इसलिए यह देवी कात्यायनी कहलाईं। कात्यायनी देवी रावण के राज्य के महल की रक्षा करती थीं। कात्यायन ऋषि की कन्या ने ही महिषासुर का वध किया था। उसका वध करने के बाद वे महिषसुर मर्दिनी कहलाई। कत नमक एक विख्यात महर्षि थे, उनके पुत्र कात्य हुए तथा इन्हीं कात्य के गोत्र में प्रसिद्ध ऋषि कात्यायन उत्पन्न हुए। 
 
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दस महाविद्याओं के नाम और रहस्य : काली, तारा, छिन्नमस्ता, षोडशी, भुवनेश्वरी, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला। कहीं कहीं इनके नाम इस क्रम में मिलते हैं:-1.काली, 2.तारा, 3.त्रिपुरसुंदरी, 4.भुवनेश्वरी, 5.छिन्नमस्ता, 6.त्रिपुरभैरवी, 7.धूमावती, 8.बगलामुखी, 9.मातंगी और 10.कमला।
अब सवाल यह उठता है कि ये सभी माता सती या पार्वती के ही रूप हैं या की माता अम्बिका के रूप हैं या कि से सभी अलग-अलग देवियां हैं।
 
1.काली : इसमें से काली माता को भगवान शंकर की पत्नीं कहा गया है। इन्होंने ही असुर रक्तबीज का वध किया था।
2.तारा : दूसरी माता है तारा जो प्रजापति दक्ष की दूसरी कन्या थी। यह तारा माता 3.शैलपुत्री (सती) की बहिन हैं। तारा देवी को हिन्दू, बौद्ध और जैन तीनों की पूजते हैं। यह तांत्रिकों की प्रमुख देवी तारा।
 
4.त्रिपुरसुंदरी : इनकी चार भुजा और तीन नेत्र हैं। इसे ललिता, राज राजेश्वरी और ‍त्रिपुर सुंदरी भी कहा जाता है। भारतीय राज्य त्रिपुरा में स्थित त्रिपुर सुंदरी का शक्तिपीठ है। यहां वस्त्र और आभूषण गिरे थे। त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर शिव) की जननी होने सेसे जगदम्बा ही त्रिपुरा हैं। उल्लेखनीय है कि महाविद्या समुदाय में त्रिपुरा नाम की अनेक देवियां हैं, जिनमें त्रिपुरा-भैरवी, त्रिपुरा और त्रिपुर सुंदरी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
 
5.भुवनेश्वरी : चौदह भुवनों की स्वामिनी मां भुवनेश्वरी शक्ति सृष्टि क्रम में महालक्ष्मी स्वरूपा हैं। महाविद्याओं में इन्हें चौथा स्थान प्राप्त हैं। सम्पूर्ण जगत के पालन पोषण का दाईत्व इन्हीं भुवनेश्वरी देवी का हैं, परिणाम स्वरूप ये जगन माता तथा जगत धात्री के नाम से भी विख्यात हैं। प्रकृति से सम्बंधित होने के परिणाम स्वरूप, देवी की तुलना मूल प्रकृति से भी की जाती हैं। काली और भुवनेशी प्रकारांतर से अभेद है काली का लाल वर्ण स्वरूप ही भुवनेश्वरी हैं। दुर्गम नमक दैत्य के अत्याचारों से लोगों को निजाद दिलाने वाली के कारर ये शाकम्भरी और दुर्गा नाम से भी प्रसिद्ध हुई।
 
देवी के मस्तक पर चंद्रमा शोभायमान है। तीनों लोकों का तारण करने वाली तथा वर देने की मुद्रा अंकुश पाश और अभय मुद्रा धारण करने वाली मां भुवनेश्वरी अपने तेज एवं तीन नेत्रों से युक्त हैं।
 
अगले पन्ने पर अन्य पांच महाविद्याओं का रहस्य जानिए....
 
 

छिन्नमस्ता : यह देवी माता पार्वती का ही एक रूप है। देवी का मस्तक कटा हुए है इसीलिए उनको छिन्नमस्ता कहा गया है। उनके साथ उनकी सहचरणीं जया व विजया हैं। तीनों मिलकर उनके धड़ से निकली रक्त की तीन धाराओं का स्तवन करते हुए दर्शायी गई है। 
कामाख्या के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में विख्यात मां छिन्नमस्तिके मंदिर काफी लोकप्रिय है। झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 79 किलोमीटर की दूरी रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित मां छिन्नमस्तिके का यह मंदिर है। रजरप्पा की छिन्नमस्ता को 52 शक्तिपीठों में शुमार किया जाता है।
 
‍त्रिपुरभैरवी : नारद-पाञ्चरात्र के अनुसार यह माता काली का ही स्वरूप है। यह महाविद्या के रूप में छठी शक्ति है। ‍त्रिपुर का अर्थ ‍तीनों लोक। दुर्गा सप्तशती के अनुसार देवी त्रिपुर भैरवी, महिषासुर नामक दैत्य के वध के काल से सम्बंधित हैं। त्रिपुरा भैरवी ऊर्ध्वान्वय की देवता हैं। माता की चार भुजाएं और तीन नेत्र हैं। इन्हें षोडशी भी कहा जाता है। षोडशी को श्रीविद्या भी माना जाता है। 
 
देवी अपने अन्य नमो से प्रसिद्ध है तथा ये सभी सिद्ध योगिनिया हैं:-1.त्रिपुर भैरवी 2.कौलेश भैरवी, 3.रूद्र भैरवी, 4.चैतन्य भैरवी, 5.नित्य भैरवी, 6.भद्र भैरवी, 7.श्मशान भैरवी, 8.सकल सिद्धि भैरवी 9.संपत प्रदा भैरवी 10. कामेश्वरी भैरवी इत्यादि। 
 
इसकी साधना से षोडश कला निपुण सन्तान की प्राप्ति होती है। देवी त्रिपुर भैरवी का घनिष्ठ संबंध 'काल भैरव' से है, जो जीवित तथा मृत मानवों को अपने दुष्कर्मो के अनुसार दंड देते हैं तथा अत्यंत भयानक स्वरूप वाले तथा उग्र स्वाभाव वाले हैं। काल भैरव, स्वयं भगवान शिव के ऐसे अवतार है, जिन का घनिष्ठ संबंध विनाश से है।  
 
7.धूमावती : सातवीं महाविद्या धूमावती को पार्वती का ही स्वरूप माना गया है। एक बार देवी पार्वती भगवान शिव के साथ कैलाश पर विराजमान थीं। उन्हें अकस्मात् बहुत भूख लगी और उन्होंने वृषभ-ध्वज पशुपति से कुछ खाने की इच्छा प्रकट की। शिव के द्वारा खाद्य पदार्थ प्रस्तुत करने में विलम्ब होने के कारण क्षुधा पीड़िता पार्वती ने क्रोध से भर कर भगवान शिव को ही निगल लिया। ऐसा करने के फलस्वरूप पार्वती के शरीर से धूम-राशि निस्सृत होने लगी जिस पर भगवान शिव ने अपनी माया द्वारा देवी पार्वती से कहा, धूम्र से व्याप्त शरीर के कारण तुम्हारा एक नाम धूमावती पड़ेगा।
 
एक अन्य कथा के अनुसार महाप्रलय के समय जब सब कुछ नष्ट हो जाता है, स्वयं महाकाल शिव भी अंतर्ध्यान हो जाते हैं, मां धूमावती अकेली खड़ी रहती हैं और काल तथा अंतरिक्ष से परे काल की शक्ति को जताती हैं। उस समय न तो धरती, न ही सूरज, चांद , सितारे रहते हैं। रहता है सिर्फ धुआं और राख- वही चरम ज्ञान है, निराकार- न अच्छा. न बुरा; न शुद्ध, न अशुद्ध; न शुभ, न अशुभ- धुएँ के रूप में अकेली माँ धूमावती. वे अकेली रह जाती हैं, सभी उनका साथ छोड़ जाते हैं. इसलिए अल्प जानकारी रखने वाले लोग उन्हें अशुभ घोषित करते हैं.
 
8.बगलामुखी : बगलामुखी, दो शब्दों के मेल से बना है, पहला 'बगला' तथा दूसरा 'मुखी'। बगला से अभिप्राय हैं 'विरूपण का कारण' और वक या वगुला पक्षी, जिस की क्षमता एक जगह पर अचल खड़े हो शिकार करना है, मुखी से तात्पर्य हैं मुख। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध अलौकिक, पारलौकिक जादुई शक्तिओ से भी हैं, जिसे इंद्रजाल काहा जाता हैं। देवी बगलामुखी, समुद्र के मध्य में स्थित मणिमय द्वीप में अमूल्य रत्नो से सुसज्जित सिंहासन पर विराजमान हैं। देवी त्रिनेत्रा हैं, मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण करती है, पीले शारीरिक वर्ण की है, देवी ने पिला वस्त्र तथा पीले फूलो की माला धारण की हुई है, देवी के अन्य आभूषण भी पीले रंग के ही हैं तथा अमूल्य रत्नो से जड़ित हैं।
 
स्वतंत्र तंत्र के अनुसार, सत्य युग में इस चराचर संपूर्ण जगत को नष्ट करने वाला भयानक वातक्षोम (तूफान, घोर अंधी) आया। समस्त प्राणिओ तथा स्थूल वस्तुओं के अस्तित्व पर संकट गहरा रहा था तथा सब काल का ग्रास बनने जा रहे थे। संपूर्ण जगत पर संकट को ए हुआ देख, जगत के पालन कर्ता भगवान विष्णु अत्यंत चिंतित हो गए। तदनंतर, भगवान विष्णु सौराष्ट्र प्रान्त में गए तथा हरिद्रा सरोवर के समीप जाकर, अपनी सहायतार्थ देवी श्री विद्या महा त्रिपुर सुंदरी को प्रसन्न करने हेतु तप करने लगे। उस समय देवी श्री विद्या, सौराष्ट्र के एक हरिद्रा सरोवर में वास करती थी। भगवान विष्णु के तप से संतुष्ट हो देवी आद्या शक्ति, बगलामुखी स्वरूप में, भगवान विष्णु के सन्मुख अवतरित हुई तथा उनसे तप करने का कारण ज्ञात किया। तुरंत ही अपनी शक्तिओ का प्रयोग कर, देवी बगलामुखी ने विनाशकारी तूफान को शांत किया तथा इस सम्पूर्ण चराचर जगत की रक्षा की।
 
भारत में मां बगलामुखी के तीन ही प्रमुख ऐतिहासिक मंदिर माने गए हैं जो क्रमश: दतिया (मध्यप्रदेश), कांगड़ा (हिमाचल) तथा नलखेड़ा जिला शाजापुर (मध्यप्रदेश) में हैं। तीनों का अपना अलग-अलग महत्व है।
 
देवी मातंगी : दस महाविद्याओं में नौवीं देवी मातंगी हैं। हनुमानजी के गुरु मातंग मुनि थे जो मातंग समाज से संबंध रखते थे। देवी का सम्बन्ध प्रकृति, पशु, पक्षियों, जंगलों, वनों, शिकार इत्यादि से हैं तथा जंगल में वास करने वाले आदिवासियों, जनजातियों कि देवी पूजिता हैं। देवी मातंग मुनि के पुत्री के रूप से भी जानी जाती हैं।
 
एक बार मातंग मुनि ने, सभी जीवों को वश में करने हेतु, नाना प्रकार के वृक्षों से परिपूर्ण वन में देवी श्रीविद्या त्रिपुरा की आराधना की। मातंग मुनि के कठिन साधना से संतुष्ट हो देवी त्रिपुर सुंदरी ने अपने नेत्रों से एक श्याम वर्ण की सुन्दर कन्या का रूप धारण किया। इन्हें राज मातंगी कहा गया तथा ये भी देवी मातंगी का ही एक स्वरूप हैं। तभी देवी मतंग कन्या के नाम से भी जानी जाती हैं।
 
देवी की उत्पत्ति शिव तथा पार्वती के उच्छिष्ट भोजन से हुई थी। इसीलिए देवी का एक अन्य विख्यात नाम उच्छिष्ट चांडालिनी भी हैं तथा देवी का सम्बन्ध नाना प्रकार के तंत्र क्रियाओं से हैं। शक्ति संगम तंत्र के अनुसार, एक बार भगवान विष्णु और उनकी पत्नी लक्ष्मी जी, भगवान शिव तथा सती से मिलने हेतु कैलाश पर्वत गये, पर जहां शिव तथा सती जी का निवास स्थान है। भगवान विष्णु, अपने साथ खाने की कुछ सामग्री अपने साथ ले गए तथा शिव जी को भेट की।
 
शिव तथा सतीजी ने, उपहार स्वरूप प्राप्त हुए वस्तुओं को खाया, भोजन करते हुए खाने का कुछ भाग नीचे धरती पर गिरा। परिणामस्वरूप, उन गिरे हुए भोजन के भागों से एक श्याम वर्ण वाली दासी ने जन्म लिया, जो मातंगी नाम से विख्यात हुई। देवी की आराधना सर्वप्रथम भगवान विष्णु द्वारा की गई थी, तभी भगवान विष्णु सुखी, सम्पन्न, श्रीयुक्त तथा उच्च पद पर विराजित हैं। 
 
देवी की अराधना बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं, किन्तु बौद्ध धर्म के प्रारंभ में देवी का कोई अस्तित्व नहीं था। कालांतर में देवी बौद्ध धर्मं में मातागिरी नाम से जनि जाने लगी। नारदपंचरात्र के अनुसार, कैलाशपति भगवान शिव को चांडाल तथा देवी शिवा को ही उछिष्ट चांडालिनी कहा गया हैं। देवी मातंगी चौसठ प्रकार के ललित कलाओं से संबंधित विद्याओं से निपुण हैं तथा तोता पक्षी इनके बहुत निकट हैं।
 
देवी कमला : श्रीमद भागवत के आठवें स्कन्द में देवी कमला की उत्पत्ति कथा है। दस महाविद्याओं में अंतिम देवी कमला तांत्रिक लक्ष्मी के नाम से भी जानी जाती हैं। देवी कमला, जगत पालन कर्ता भगवान विष्णु की पत्नी हैं।
 
देवताओं तथा दानवों ने मिलकर, अधिक संपन्न होने हेतु समुद्र का मंथन किया, समुद्र मंथन से 18 रत्न प्राप्त हुए, जिनमें देवी लक्ष्मी भी थी, जिन्हें भगवान विष्णु को प्रदान किया गया तथा उन्होंने देवी का पानिग्रहण किया। देवी का घनिष्ठ संबंध देवराज इन्द्र तथा कुबेर से हैं, इन्द्र देवताओं तथा स्वर्ग के राजा हैं तथा कुबेर देवताओं के खजाने के रक्षक के पद पर आसीन हैं। देवी लक्ष्मी ही इंद्र तथा कुबेर को इस प्रकार का वैभव, राजसी सत्ता प्रदान करती हैं। उल्लेखनीय है कि श्रीविष्णु ने भृगु की पुत्रीं लक्ष्मी से विवाह किया था।
 
दीवावली के दिन देवी काली और कमला की पूजा की जाती है। शैव लोग काली की और वैष्णव लोग कमला की पूजा करते हैं। कमला को ही महालक्ष्मी कहा गया है।
 
प्रवृति के अनुसार दस महाविद्या के तीन समूह हैं। पहला:- सौम्य कोटि (त्रिपुर सुंदरी, भुवनेश्वरी, मातंगी, कमला), दूसरा:- उग्र कोटि (काली, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी), तीसरा:- सौम्य-उग्र कोटि (तारा और त्रिपुर भैरवी)।
 
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देवी दुर्गा : सामान्यतः देवी दुर्गा दो रूपों में जानी जाती हैं, एक में वे दस भुजा वाली तथा दूसरे में अष्ट भुजा रूप में हैं। देवी का वाहन सिंह या बाघ हैं तथा असुर या दैत्य का वध कर रही हैं। 
 
हिरण्याक्ष के वंश में उत्पन्न एक महा शक्तिशाली दैत्य हुआ, जो रुरु का पुत्र था जिसका नाम दुर्गमासुर था। इसने शक्तिशाली होने तथा देवताओं को पराजित करने के लिए ब्रह्माजी की गठिन तपस्या की फलस्वरूप त्रिलोक में सभी संतप्त होने लगे। उसने समस्त मंत्र और वेदों को भी ब्रह्माजी से मांग लिया।
वर प्रदान करने के कारण ऋषियों और देवताओं के समस्त वेद तथा मंत्र लुप्त हो गए तथा स्नान, होम, पूजा, संध्या, जप इत्यादि का लोप हो गया। इस प्रकार जगत में एक अत्यंत ही घोर अनर्थ उत्पन्न हो गया तथा हविभाग न मिले के परिणामस्वरूप देवता जरा ग्रस्त हो, निर्बल हो गए। देवताओं की यह दशा देखकर दुर्गमासुर दैत्य ने इंद्र की अमरावती पुरी को घेर लिया।
 
देवता शक्ति से हीन हो गए थे, फलस्वरूप उन्होंने स्वर्ग से भाग जाना ही श्रेष्ठ समझा। भागकर वे पर्वतों की कंदरा और गुफाओं में जाकर छिप गए और सहायता हेतु आदि शक्ति अम्बिका की आराधना करने लगे।
 
हवन-होम आदि न होने के परिणामस्वरूप, जगत में वर्षा का अभाव हो गया तथा वर्षा के अभाव में भूमि शुष्क तथा जल विहीन हो गया और ऐसे स्थिति सौ वर्षों तक बनी रही। बहुत से जीव जल के बिना मारे गए, घर घर में शव का ढेर लगने लगा। इस प्रकार अनर्थ की स्थिति को देख, जीवित मानुष, देवता इत्यादि हिमालय में जा कर ध्यान, पूजा तथा समाधी के द्वारा आदि शक्ति जगदम्बा की आराधना कर उन्हें प्रसन्न करने का प्रयास करने लगे।
 
इस प्रकार बारंबार स्तुति करने पर, समस्त भुवन पर शासन करने वाली भुवनेश्वरी, नील कमल के समान अनंत नेत्रों से युक्त स्वरूप में प्रकट हुई। काजल के समान देह, नील कमल के समान विशाल नेत्रों से युक्त देवी अपने हाथों में मुट्ठी भर बाण, विशाल धनुष, कमल पुष्प, पुष्प-पल्लव, जड़ तथा फल, बुढ़ापे को दूर करने वाली शाक आदि धारण की हुई थी। दिव्य तथा प्रकाशमान, अत्यंत नेत्रों के साथ वे जगद्धात्री, भुवनेश्वरी, समस्त लोको में, अपने सहस्त्रों नेत्रों से जलधाराएं गिराने लगी तथा नौ रातों तक घोर वर्षा होती रही। फलस्वरूप समस्त प्राणी तथा वनस्पतियां तृप्त हुई, समस्त नदियां तथा समुद्र जल से भर गई। इस अवतार में देवी शताक्षी नाम से जानी जाने लगी। देवी शताक्षी ने सभी को खाने के लिए शाक तथा फल-मूल प्रदान किए, साथ ही नाना प्रकार के अन्न तथा पशुओं के खाने योग्य पदार्थ भी। उसी काल से उनका एक नाम शाकम्भरी भी हुआ।
 
एक दूत ने दुर्गमासुर यह सभी गाथा बताई और देवताओं की रक्षक के अवतार लेने की बात कहीं। तक्षण ही दुर्गमासुर क्रोधित होकर अपने समस्त अस्त्र-शस्त्र और अपनी सेना को साथ ले युद्ध के लिए चल पड़ा। 
 
दैत्यराज दुर्गमासुर ने देवता और मनुष्यों आदि पर प्रहार किया परिणामस्वरूप देवी ने चारो ओर तेजोमय चक्र बना दिया तथा स्वयं बहार आ खड़ी हुई। दुर्गम दैत्य तथा देवी के मध्य घोर युद्ध छिङ गया, तदनंतर देवी के शारीर से उनकी उग्र शक्तियां, देवी की सहायता हेतु प्रकट हुई। 
 
काली, तारिणी या तारा, बाला, त्रिपुरा, भैरवी, रमा, बगला, मातंगी, कामाक्षी, तुलजादेवी, जम्भिनी, मोहिनी, छिन्नमस्ता, गुह्यकाली, त्रिपुरसुन्दरी तथा स्वयं दस हजार हाथों वाली, प्रथम ये सोलह, तदनंतर बत्तीस, पुनः चौंसठ और फिर अनंत देवियाँ हाथों में अस्त्र शस्त्र धारण किये हुए प्रकट हुई। दस दिन में दैत्यराज की सभी सेनाएं नष्ट हो गई तथा ग्यारहवे दिन देवी तथा दुर्गमासुर में भीषण युद्ध होने लगा। देवी के बाणों के प्रहार से आहात हो, दुर्गमासुर रुधिर का वामन करते हुए, देवी के सन्मुख मृत्यु को प्राप्त हुआ तथा उसके शरीर से तेज निकल कर देवी के शरीर में प्रविष्ट हुआ।
 
इसके पश्चात् ब्रह्मा आदि सभी देवता, भगवान् शिव तथा विष्णु को आगे कर, भक्ति भाव से देवी की स्तुति करने लगे। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्णु, शिव, अन्य देवताओ के स्तुति करने तथा विविध द्रव्यों से पूजन करने पर देवी संतुष्ट हो गई तथा दुर्गा नाम से जानी जाने लगी। देवता द्वारा किये हुए स्तवन में, देवी दुर्गा को तीनो लोकों की रक्षा करने वाली, मोक्ष प्रदान करने वाली, उत्पत्ति, स्थिति तथा संहार करने वाली कहा गया हैं। यह यह आदि शक्ति अम्बिका की शक्ति है।
 
अगले पन्ने पर कौन थीं देवी महिषासुर मर्दिनी...

आदि शक्ति महिषासुर मर्दिनी : एक बार महिषी के गर्भ से उत्पन्न शक्तिशाली महिषासुर ने देवताओं को परस्त कर तीनों लोकों पर आधिपत्य स्थापित कर लिया था। उसने सभी लोकपालों को हटा दिया और स्वर्ग से देवताओं को भी भगा दिया। सभी देवता घबराकर ब्रह्मा, विष्णु और शिव की शरण में गए। सभी ने महिषासुर का सब वृत्तांत कहा सुनाया तथा उसके वध के निमित्त कोई उपाय करने की प्रार्थना की।
तब भगवान् विष्णु के मुख से हजारों सूर्यों के समान कांतिमय दिव्य तेज उत्पन्न हुआ। इसके पश्चात, नाना देवताओं के शरीर से तेज पुंज निकले का क्रम प्रारंभ हुआ, इन्द्रादि सभी देवताओं के शरीर से देवाधिपतियों को प्रसन्न करने वाला तेज निकला, भगवान् शिव के शरीर से जो तेज निकला, उससे मुख बना, यमराज के तेज से केश बने तथा भगवान् विष्णु के तेज से भुजाएं बनी, चन्द्रमा के तेज से दोनों स्तन, इंद्र के तेज से कटि प्रदेश, वरुण के तेज से जंघा और उरु उत्पन्न हुए, पृथ्वी के तेज से दोनों नितम्ब, ब्रह्माजी के तेज से दोनों चरण, सूर्य के तेज से पैरों की अंगुलियां तथा वसुओं के तेज से हाथों की अंगुलियों का निर्माण हुआ। कुबेर के तेज से नासिका, प्रजापति के तेज से दन्त पंक्ति, अग्नि के तेज से तीनों नेत्र, संध्या के तेज से भृकुटियां, वायु के तेज से दोनों कान उत्पन्न हुए।
 
इसके बाद शिवजी ने उन्हें अपना शूल, विष्णुजी ने चक्र, अग्नि ने शक्ति, वायु ने धनुष तथा बाण, वरुण ने शंख, इंद्र ने वजरास्त्र तथा अपने श्रेष्ठ हाथी का घंटा, काल ने तलवार तथा ढाल, समुद्र ने हार तथा कभी जीर्ण न होने वाले दो वस्त्र, चूड़ामणि, कुंडल, कटक, बाजूबंद, अर्ध चन्द्र, नूपुर इत्यादि आभूषण तथा ब्रह्माजी ने अक्षर माला तथा कमंडल, उन शक्ति को प्रदान की। विश्वकर्मा ने देवी को अंगुठियां, हिमालय राज ने देवी को वहां स्वरूप सिंह तथा नाना प्रकार के रत्न, धनपति कुबेर ने उन्हें उत्तम सुरा से भरा एक पात्र तथा शेष नागजी ने देवी को नाग हार सहर्ष प्रदान किया। सभी देवताओं ने भी जगन्माता आद्या शक्ति को सम्मानित किया।
 
इसके बाद समस्त देवों ने मिलकर जगत उत्पत्ति की कारणस्वरूपा देवी की नाना स्तोत्रों से उत्तम स्तुति की। उन देवताओं की स्तुति सुन कर देवी ने घोर गर्जना की, वो विकराल गर्जन महिषासुर को भी चकित कर गया तथा तक्षण ही वो अपनी सेना के साथ देवी से युद्ध करने हेतु पहुंचा। देवी तथा महिषासुर के मध्य युद्ध छिड़ गया।
 
महिषासुर अपने प्रधान सेनापति चिक्षुर तथा दुर्धर, दुर्मुख, बाश्कल, ताम्र तथा विडालवदन जैसे यम-राज के समान भयंकर योद्धाओं से घिरा हुआ था। देवी क्रोध से आंखें लाल कर, सभी योद्धाओं को मार डाला। इसके बाद महिषासुर क्रोध और भय से ग्रस्त होकर देवी की दौर दौड़ा और महिषासुर नाना प्रकार के मायावी रूप धर देवी से युद्ध करने लगा तथा देवी ने भी उन सभी मायावी रूपों को नष्ट कर दिया तथा अंत में अपने खड़ग से महिषासुर का सर काट दिया। इस प्रकार वह महिषासुर मर्दिनी नाम से प्रसिद्ध हुई।
 
अगले पन्ने पर शुम्भ-निशुम्भ, चंड-मुंड और ध्रूम्रक्ष एवं रक्तबीज का वध करने वाली देवी...
 

शुम्भ-निशुम्भ, चंड-मुंड और धूम्रक्ष एवं रक्त बीज का वध करने वाली देवी : शुम्भ तथा निशुम्भ नाम के दो असुर भाई भंयकर अत्याचारी थे। अपने अपार बल से उन्होंने ‍तीनों लोक पर अपना राज स्थापित कर देवताओं को अमरावती पुरी से निकाल दिया। उनकी सेना में ही धूम्रक्ष, चंड, मुंड और रक्तबीज जैसे महाबलशाली असुर थे।
शुम्भ-निशुम्भ के आतंक से भयभित होकर समस्त देवताओं ने हिमालय पर जाकर शरण ली। वहां पर उन्होंने सर्व मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली आदिशक्ति देवी की स्तुति की।
देवताओं की स्तुति करने पर माता गौरी देवी अत्यंत प्रसन्न हुई तथा देवताओं से पूछा कि अप लोग किसकी स्तुति कर रहे हैं? देखते ही देखते शिवा देवी के शरीर से एक कुमारी कन्या का प्राकट्य हुआ तथा कुमारी कन्या ने देवी शिवा को कहा कि शुम्भ तथा निशुम्भ नमक दैत्यों से प्रताड़ित ये सब आप की ही स्तुति कर रहे हैं।
 
उस कन्या का प्रादुर्भाव शिवा से हुआ तथा वो कौशिकी नाम से विख्यात हुई। कौशिकी ही साक्षात् शुम्भ का वध करने वाली सरस्वती हैं तथा उन्हें ही उग्र तारा या महोग्रतारा कहा गया हैं। देवी कौशिकी ने देवताओं से कहा, तुम लोग निर्भय हो जाओं। मैं स्वतंत्र हूं, बिना किसी सहारे के मैं तुम लोगों का कार्य सिद्ध कर दूंगी तथा तक्षण ही वहां से वह अंर्तध्यान हो गई।
 
तदनंतर एक दिन शुम्भ तथा निशुम्भ के सेवक चण्ड तथा मुंड ने देवी के स्वरूप को देखा, उनका मनोहर रूप को देख कर वो चकित हो कर सुध-बुध खो बैठे। दोनों ने जाकर अपने स्वामी को कहा, एक अपूर्व सुंदरी हिमालय पर रहती हैं तथा सिंह पर सवारी करती हैं। यह सुन कर शुम्भ ने अपने दूत सुग्रीव को देवी के पास प्रस्ताव देकर भेजा तथा प्रयत्न पूर्वक देवी को ले आने की आज्ञा दी।
 
दूत देवी के पास गया तथा कहा कि देवी! दैत्यराज शुम्भ, अपने महानबल तथा विक्रम के लिए तीनों लोकों में विख्यात हैं तथा उनका छोटा भाई निशुम्भ भी समान प्रतापी हैं। शुम्भ ने मुझे तुम्हारे पास दूत बना कर भेजा हैं। शुम्भ ने जो सन्देश दिया हैं उसे सुनो! मैंने युद्ध में इंद्र आदि देवताओं को पराजित कर, उनसे समस्त रत्नों का हरण कर लिया हैं, यज्ञ में दिया हुआ देव भाग में स्वयं ही भोगता हूं। तुम स्त्रियों में रत्न हो तथा सब रत्नों की शिरोमणि हो, तुम कामजनित रस के साथ मुझे या मेरे भाई को अंगीकार करो।

यह सुनकर कौशिकी देवी ने कहा, 'तुम्हारा कथन असत्य नहीं हैं, परन्तु मैंने पूर्व में एक प्राण लिया हैं उसे सुनो! जो मेरा घमंड चूर कर, मुझे युद्ध में जीत लेगा, उसी को में अपने स्वामी रूप में वरण कर सकती हूं, यह मेरा दृढ़ प्रण हैं। तुम शुम्भ तथा निशुम्भ को मेरी यह प्रतिज्ञा बता दो, तदनंतर इस विषय में वो जैसा उचित समझें करें।
 
देवी का ऐसा वचन सुन कर, दूत सुग्रीव वापस शुम्भ के पास चला आया तथा उसने देवी का संदेश सुना दिया। दूत की बातें सुन कर शुम्भ कुपित हो उठा तथा अपने श्रेष्ठ सेनापति धूम्राक्ष को हिमालय पर जा कर, देवी जिस भी अवस्था पर हो ले आने के लिए कहा। दैत्य धूम्राक्ष हिमालय पर जा, भगवती भुवनेश्वरी से कहां- मेरे स्वामी के पास चलो नहीं तो में तुम्हें मार डालूइगा। देवी ने कहा- युद्ध के बिना मेरा शुम्भ के पास जाना असंभव हैं, यह सुनकर धूम्राक्ष देवी को पकड़ने के लिए दौड़ा, लेकिन देवी ने 'हूं' के उच्चारण मात्र से उसे भस्म कर दिया। धूम्राक्ष को मस्म करने के आरण देवी धूम्रलोचन और धूमावती कहलाई।
 
धूम्रक्ष की मृत्यु का  समाचार पा कर शुम्भ बड़ा ही कुपित हुआ तथा उसने चण्ड एवं मुंड तथा रक्तबीज नामक असुरों को देवी के पास भेजा। दानव गणों ने, देवी के सन्मुख जा शीघ्र ही शुम्भ के पास जा कर उसे पति बनाने का आदेश दिया, अन्यथा गणों सहित मार डालने का भय दिखाया। 
 
देवी ने कहा कि में सदाशिव के सूक्ष्म प्रकृति हूं, फिर किसी दूसरे की पत्नी कैसे बन सकती हूं। दैत्यों या तो तुम अपने अपने स्थानों को लौट जाओ अन्यथा मेरे साथ युद्ध करो। तब युद्ध हुआ चण्ड तथा मुंड का वध करने पर देवी चामुंडा नाम से विख्‍यात हुई और रक्तबीज का वध देवी कालीका ने किया।
 
इस प्रकार शुम्भ को जब ये समाचार प्राप्त हुआ तो उसने दुर्जय गणों को युद्ध के लिए भेजा। कालक, कालकेय, मौर्य, दौर्ह्रद तथा अन्य असुरगण भरी सेना को साथ ले कर, दोनों भाई शुम्भ तथा निशुम्भ रथ पर आरूढ़ हो देवी से युद्ध करने के लिए निकले। हिमालय पर्वत पर खड़ी हुई देवी को देख कर सभी उनकी और दौड़ें और युद्ध करने लगे।
 
देवी कालिका तथा उनकी सहचरियों ने दैत्यों को मरना शुरू कर दिया तथा देवी के वाहन सिंह ने भी कई दैत्यों का भक्षण कर लिया। दैत्यों के मारे जाने के कारण, रण-भूमि में रक्त की धार, नदिया बहने लगी। घोर युद्ध छिड जाने पर, दैत्यों का महान संहार होने लगा, देवी ने विष में बुझे हुए तीखे बाणों से निशुम्भ को मार कर धराशायी कर दिया।
 
अपने भाई निशुम्भ के मारे जाने पर शुम्भ क्रोध से भर गया तथा अष्ट भुजाओं से युक्त हो देवी के पास आकर युद्ध करने लगा। बड़ा भयंकर दृश्य उपस्थित हुआ। चंडिका ने त्रिशूल से शुम्भ पर प्रहार किया, जिससे वो पृथ्वी पर गिर गया। शूल के आघात से होने वाली व्यथा को सहकर, शुम्भ ने 10 हजार भुजाएं धारण कर ली तथा चक्र द्वारा देवी के वाहन सिंह तथा देवी पर आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया तथा देवी ने खेल-खेल में उन चक्रों को विदीर्ण कर दिया। तदनंतर, देवी ने त्रिशूल के प्रहार से असुर शुम्भ को मार गिराया।
 
इस युद्ध की रोचक कहानी अगले पन्ने पर पढ़ने से और स्पष्ट होगा की क्या यह एक ही देवी ने युद्ध किया था या‍ कि अन्य देवियां भी इस युद्ध में शामिल थी।
 
 

रक्तबीज का वध : ब्रह्माजी के शरीर से ब्राह्मी, विष्णु से वैष्णवी, महेश से महेश्वरी और अम्बिका से चंडिका प्रकट हुईं। पलभर में सारा आकाश असंख्य देवियों से आच्छादित हो उठा। ब्राह्मणी ने अपने कमंडल से जल छिड़का जिससे राक्षस तेजहीन होने लगे, वैष्णवी अपने चक्र, महेश्वरी अपने त्रिशूल से, इन्द्राणी वज्र से और सभी देवियां अपने अपने आयुधों से आक्रमण कर रही थीं। राक्षस सेना भागने लगीं।
तब रक्तबीज ने राक्षसों को धिक्कारा कि वे स्त्रियों से डरकर भाग रहे हैं? रक्तबीज हमला करने आया, तो इन्द्राणी ने उस पर शक्ति चलाई जिससे उसका सर कट गया और रक्त भूमि पर गिरा। किंतु पूर्व वरदान के प्रभाव से उस रक्त से फिर एक रक्तबीज उठ खड़ा हुआ और अट्टहास करने लगा। जैसे ही शक्तियां उसे मारतीं, उसके रक्त से और असुर उठ खड़े होते। जल्द ही असंख्य रक्तबीज सब और दिखने लगे।
 
मां चंडिका ने श्रीकाली से कहा कि इसका रक्त भूमि पर गिरने से रोकना होगा जिससे और रक्तबीज न जन्में। देवी काली ने कहा कि आप सब इन्हें मारें, मैं एक बूंद रक्त भी भूमि पर न पड़ने दूंगी। और ऐसा ही हुआ भी, जल्द ही सारे नए रक्तबीज युद्ध में मारे गए। तब रक्तबीज समझ गया कि काली उसे पुनर्जीवित नहीं होने दे रही हैं, तो वह चंडिका को मारने दौड़ा। तब चंडिका ने उसे मार दिया और काली ने रक्त को भूमि पर न गिरने दिया। देवता चंडिका की जय-जयकार करने लगे।
 
महाकाली की उत्पत्ति कथा : श्रीमार्कण्डेय पुराण एवं श्रीदुर्गा सप्तशती के अनुसार महाकाली मां की उत्पत्ति जगत जननी मां अम्बा के ललाट से हुई थी।
 
कथा के अनुसार शुम्भ-निशुम्भ दैत्यों के आतंक का प्रकोप इस कदर बढ़ चुका था कि उन्होंने अपने बल, छल एवं महाबली असुरों द्वारा देवराज इन्द्र सहित अन्य समस्त देवतागणों को निष्कासित कर स्वयं उनके स्थान पर आकर उन्हें प्राणरक्षा हेतु भटकने के लिए छोड़ दिया। दैत्यों द्वारा आतंकित देवों को ध्यान आया कि महिषासुर के इन्द्रपुरी पर अधिकार कर लिया है, तब दुर्गा ने ही उनकी मदद की थी। तब वे सभी दुर्गा का आह्वान करने लगे।
 
उनके इस प्रकार आह्वान से देवी प्रकट हुईं एवं शुम्भ-निशुम्भ के अति शक्तिशाली असुर चंड तथा मुंड दोनों का एक घमासान युद्ध में नाश कर दिया। चंड-मुंड के इस प्रकार मारे जाने एवं अपनी बहुत सारी सेना का संहार हो जाने पर दैत्यराज शुम्भ ने अत्यधिक क्रोधित होकर अपनी संपूर्ण सेना को युद्ध में जाने की आज्ञा दी तथा कहा कि आज छियासी उदायुद्ध नामक दैत्य सेनापति एवं कम्बु दैत्य के चौरासी सेनानायक अपनी वाहिनी से घिरे युद्ध के लिए प्रस्थान करें। कोटिवीर्य कुल के पचास, धौम्र कुल के सौ असुर सेनापति मेरे आदेश पर सेना एवं कालक, दौर्हृद, मौर्य व कालकेय असुरों सहित युद्ध के लिए कूच करें। अत्यंत क्रूर दुष्टाचारी असुर राज शुंभ अपने साथ सहस्र असुरों वाली महासेना लेकर चल पड़ा।
 
उसकी भयानक दैत्यसेना को युद्धस्थल में आता देखकर देवी ने अपने धनुष से ऐसी टंकार दी कि उसकी आवाज से आकाश व समस्त पृथ्वी गूंज उठी। पहाड़ों में दरारें पड़ गईं। देवी के सिंह ने भी दहाड़ना प्रारंभ किया, फिर जगदम्बिका ने घंटे के स्वर से उस आवाज को दुगना बढ़ा दिया। धनुष, सिंह एवं घंटे की ध्वनि से समस्त दिशाएं गूंज उठीं। भयंकर नाद को सुनकर असुर सेना ने देवी के सिंह को और मां काली को चारों ओर से घेर लिया। तदनंतर असुरों के संहार एवं देवगणों के कष्ट निवारण हेतु परमपिता ब्रह्माजी, विष्णु, महेश, कार्तिकेय, इन्द्रादि देवों की शक्तियों ने रूप धारण कर लिए एवं समस्त देवों के शरीर से अनंत शक्तियां निकलकर अपने पराक्रम एवं बल के साथ मां दुर्गा के पास पहुंचीं।
 
तत्पश्चात समस्त शक्तियों से घिरे शिवजी ने देवी जगदम्बा से कहा- ‘मेरी प्रसन्नता हेतु तुम इस समस्त दानव दलों का सर्वनाश करो।’ तब देवी जगदम्बा के शरीर से भयानक उग्र रूप धारण किए चंडिका देवी शक्ति रूप में प्रकट हुईं। उनके स्वर में सैकड़ों गीदड़ों की भांति आवाज आती थी।
 
असुरराज शुम्भ-निशुम्भ क्रोध से भर उठे। वे देवी कात्यायनी की ओर युद्ध हेतु बढ़े। अत्यंत क्रोध में चूर उन्होंने देवी पर बाण, शक्ति, शूल, फरसा, ऋषि आदि अस्त्रों-शस्त्रों द्वारा प्रहार प्रारंभ किया। देवी ने अपने धनुष से टंकार की एवं अपने बाणों द्वारा उनके समस्त अस्त्रों-शस्त्रों को काट डाला, जो उनकी ओर बढ़ रहे थे। मां महाकाली फिर उनके आगे-आगे शत्रुओं को अपने शूलादि के प्रहार द्वारा विदीर्ण करती हुई व खट्वांग से कुचलती हुईं समस्त युद्धभूमि में विचरने लगीं। सभी राक्षसों चंड मुंडादि को मारने के बाद उसने रक्तबीज को भी मार दिया।
 
शक्ति का यह अवतार एक रक्तबीज नामक राक्षस को मारने के लिए हुआ था। फिर शुम्भ-निशुंभ का वध करने के बाद भी जब महाकाली मां का गुस्सा शांत नहीं हुआ, तब उनके गुस्से को शांत करने के लिए भगवान शिव उनके रास्ते में लेट गए और काली मां का पैर उनके सीने पर पड़ गया। शिव पर पैर रखते ही माता का क्रोध शांत होने लगा।
 
अगले पन्ने पर मधु और कैटभ का वध करने वाली...
 

मधु और कैटभ की देवी : जब धरती पर जल की अधिकता थी। सब और जल ही जल था और भगवान विष्णु शेषनाग की शैय्या पर सोए हुए थे। तब उनके कान की मैल से मधु और कैटभ नाम के दो महापराक्रमी दानव उत्पन्न हुए। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार उमा ने कैटभ को मारा था, जिससे वे 'कैटभा' कहलाईं। महाभारत और हरिवंश पुराण का मत है कि इन असुरों के मेदा के ढेर के कारण पृथ्वी का नाम 'मेदिनी' पड़ा था। पद्मपुराण के अनुसार देवासुर संग्राम में ये हिरण्याक्ष की ओर थे।
कथा : मधु और कैटभ दोनों भाईयों ने देवी भगवती महाशक्ति की कठिन तपस्या की। देव जब प्रकट हुई तो उन्होंने कहा वर मांगों। दोनों के कहा देवि! तुम हमें स्वेच्छामरण का वर देने की कृपा करो।' देवी ने कहा- 'दैत्यो! मेरी कृपा से इच्छा करने पर ही मौत तुम्हें मार सकेगी। देवता और दानव कोई भी तुम दोनों भाइयों को पराजित नहीं कर सकेंगे।' 
 
देवी के वर देने पर मधु और कैटभ को अत्यन्त अभिमान हो गया और वे देवी और देवताओं पर सहित अन्य प्राणियों पर भी अत्याचार करने लगे। एक दिन अचानक उनकी नजर प्रजापति ब्रह्माजी पर पड़ी। ब्रह्माजी कमल के आसन पर विराजमान थे। उन दैत्यों ने ब्रह्माजी से कहा- 'सुव्रत! तुम हमारे साथ युद्ध करो। यदि लड़ना नहीं चाहते तो इसी क्षण यहां से चले जाओ, क्योंकि यदि तुम्हारे अन्दर शक्ति नहीं है तो इस उत्तम आसन पर बैठने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है।' मधु और कैटभ की बात सुनकर ब्रह्माजी चिंतित होकर वहां से पलायन कर विष्णु की शरण में चले गए। उस समय श्रीहरि विष्णु योगनिद्रा में निमग्न थे। तब उन्होंने भगवती योगनिद्रा की स्तुति करते हुए कहा- 'भगवती! मैं मधु और कैटभ के भय से भयभीत होकर तुम्हारी शरण में आया हूं। कुछ करो तुम सम्पूर्ण जगत की माता हो। यदि मैं दैत्यों के हाथ से मारा गया तो तुम्हारी बड़ी अपकीर्ति होगी। अत: तुम भगवान विष्णु को जगाकर मेरी रक्षा करो।'
 
ब्रह्माजी की प्रार्थना सुनकर भगवती भगवान विष्णु के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु और हृदय से निकल कर आकाश में स्थित हो गईं और भगवान उठकर बैठ गए। तब श्रीविष्णु ने मधु और कैटभ से घोर युद्ध किया, लेकिन वे किसी भी तरह से उन्हें परास्त करने में असफल रहे। फिर विचार करने पर भगवान को ज्ञात हुआ कि इन दोनों दैत्यों को भगवती ने इच्छामृत्यु का वरदान दे रखा है। 
 
भगवती की कृपा के बिना इनको मारना असम्भव हैं इतने में ही उन्हें भगवती योगनिद्रा के दर्शन हुए। भगवान ने रहस्यपूर्ण शब्दों में भगवती की स्तुति की। भगवती ने प्रसन्न होकर कहा- 'विष्णु! तुम देवताओं के स्वामी हो। मैं इन दैत्यों को माया से मोहित कर दूंगी, तब तुम इन्हें मार डालना।' भगवती का अभिप्राय समझकर भगवान ने दैत्यों से कहा कि तुम दोनों के युद्ध से मैं परम प्रसन्न हूं। अत: मुझसे इच्छानुसार वर मांगो। दैत्य भगवती की माया से मोहित हो चुके थे। उन्होंने कहा- 'विष्णो! हम याचक नहीं हैं, दाता हैं। तुम्हें जो मांगना हो हम से प्रार्थना करो। हम देने के लिए तैयार हैं।' भगवान बोले- 'यदि देना ही चाहते हो तो मेरे हाथों से मृत्यु स्वीकार करो।' योगमाया से मोहित होकर मधु और कैटभ अपनी ही बातों में उलझ गए। तब भगवान विष्णु ने दैत्यों के मस्तकों को अपनी जांघों पर रखवाकर सुदर्शन चक्र से काट डाला। इस प्रकार मधु और कैटभ का अन्त हुआ।