विंस्टन चर्चिल, ब्रिटेन के बहुत प्रसिद्ध प्रधानमंत्री हुए हैं, जो ब्रिटेन की कंजरवेटिव (रूढ़िवादी) दल के सदस्य थे। उन्होंने विपक्ष में भी अपनी भूमिका बखूबी निभाई, जब उनके विरोधी दल लेबर पार्टी का शासन था। चर्चिल ने एक बार कहा था कि जब भी वे विदेश में होते हैं, तो उन्होंने नियम बना रखा है कि वे कभी अपने देश या अपनी सरकार की आलोचना नहीं करेंगे। यहां तक कि विरोधी विचारधारा वाली समाजवादी सरकार की नीतियों का बचाव करने में भी वे नहीं चूकते।
वे कहते थे कि मैं बड़े विश्वास के साथ अपने देश के उज्ज्वल भविष्य के बारे में विदेशी लोगों को बताता हूं। किंतु हां, जितना समय मैं विदेश में दूसरे पक्ष की सरकार का बचाव करने में लगाता हूं, उतने समय की पूर्ति अपने देश में आकर उसकी आलोचना कर लेता हूं, क्योंकि यहां पर मेरा कर्तव्य है कि मैं सरकार को उसकी गलत नीतियों के खतरनाक परिणामों के बारे में आगाह करूं और सही दिशा-दर्शन दूं ताकि राष्ट्र को किसी अनहोनी से बचाया जा सके।
सीधी बात है कि यदि आप अपने घर में किसी विषय को लेकर असहमत हैं और उस मुद्दे को बाजार में उछालेंगे तो फजीहत आपके घर की ही होनी है। गत 25 वर्षों से विदेश में रहते हुए मैंने अनुभव किया है कि विदेश में बसे प्रवासी भारतीय, फिर वे किसी भी विचारधारा के हों, बहुत ही गरिमा के साथ अपने देश और उसकी सरकार की प्रशंसा करते नहीं थकते, क्योंकि वे जानते हैं कि विदेश में उनकी इज्जत उनके देश की साख के साथ जुड़ी हुई है। यदि वे अपने ही देश की आलोचना शुरू कर दें तो उन्हें मदद तो नहीं मिलेगी, उलटे वे हीनभाव से ही देखे जाएंगे।
भारत की साख को विदेशों में ऊंचा करने का श्रेय भारत के श्रमिकों, इंजीनियरों, डॉक्टरों और व्यवसायियों के परिश्रम को जाता है। प्रवासी भारतीय भली-भांति जानते हैं कि कुछ वर्षों पहले भारत के पासपोर्ट को विदेशों में कितनी हल्की नजरों से देखा जाता था और आज उसे कैसे इज्जत के साथ देखा जाता है। यद्यपि अपना उचित स्थान पाने के लिए अभी बहुत परिश्रम बाकी है इसलिए कोई भारतीय अपने देश की बुराई बाहर किसी देश में नहीं करता।
किंतु अपने ही देश पर कीचड़ उछालने का काम यदि अपने देश का कोई शीर्ष नेता करे तो प्रवासी भारतियों के मन में खीज आना स्वाभाविक है। प्रवासी भारतीय एक ऐसा वर्ग है, जो भारत को उन्नत देखना चाहता है, उसकी साख बढ़ती देखना चाहता है, वह परिपक्व होते प्रजातंत्र और बढ़ती आर्थिक समृद्धि पर गर्व करता है। किंतु आलोचना के बेसुरे स्वर जब विदेशी धरती पर सुनाई पड़ते हैं तो मन क्षुब्ध हो जाता है जिसका अनुमान भारत में बैठे लोगों को शायद नहीं हो।
हमारे ध्यान में भारत के मात्र एक ही नेता का नाम आता है जिन्होंने विदेशी मदद मांगी थी और वे थे सुभाषचन्द्र बोस। उन्होंने मदद मांगकर भी भारत का नाम रोशन किया था, क्योंकि उस समय भारत गुलाम था। उनकी एक आवाज पर विदेशी हों या प्रवासी भारतीय, तन-मन और धन से सहयोग के लिए तैयार हो गए थे, क्योंकि जनता को विश्वास था कि वे अपनी मातृभूमि की आन के लिए अपनी जान पर खेल रहे हैं।
लेकिन आज ऐसा क्या हो गया है कि हमारे कतिपय नेताओं को विदेशों में जाकर मदद की गुहार लगाना पड़ रही है? अपनी ही चुनी हुई सरकार की आलोचना करनी पड़ रही है? क्या उन्हें स्वयं पर विश्वास नहीं है या प्रजातंत्र में विश्वास नहीं है या फिर अंतरराष्ट्रीय व्यवहार की समझ नहीं है? सरकार चाहे कोई भी हो, वह विदेशों से तकनीक और पूंजी निवेश आकर्षित करना चाहती है। यदि कोई नेता स्वहित के लिए अपने ही देश की आलोचना कर रहा है, तो वह न केवल प्रवासी भारतीयों के हितों के विरुद्ध काम कर रहा है बल्कि अपने देश के हितों के विरुद्ध भी।
कांग्रेस के शीर्ष नेता को ध्यान रखना चाहिए कि वे एक ऐसे दल के अध्यक्ष हैं जिन पर कभी सुभाष चन्द्र बोस, नेहरू और गांधीजी जैसे नेता पदासीन हुए थे। कांग्रेस का गरिमामय इतिहास रहा है। नरसिंहराव द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में विरोधी दल के नेता अटलजी के नेतृत्व में भारतीय प्रतिनिधिमंडल को भेजना एक उदाहरण बन चुका है। ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे प्रतिभाशाली और कमलनाथ जैसे परिपक्व नेता कांग्रेस में हैं, तो क्यों न ऐसे लोगों से राहुल विचार-विमर्श करें।