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रूह में उतरा अहसास : लता जी की आवाज

रूह में उतरा अहसास : लता जी की आवाज - Lata ji smriti shesh
आजादी की मीठी धूप जब भारत के आँगन में उतरी थी तो किसी दैवीय संयोग से एक कोयल भी मुंडेर पर आकर बैठ गई थी। उसकी तान सुनकर करोड़ों लोगों ने जीवन में उजाला महसूस किया था। वह रूह में अहसास बनकर उतर गई थी। उसकी आवाज चार पीढ़ियों का हमसाया बनी रही।
 
वह लता मंगेशकर थी, ईश्वर का विशेष उपहार जो भारत की गोद में हौले से रखा गया था। हजार साल की दासता और दशकों के संघर्ष के बाद टूट-फूटकर आजाद हुए देश की घायल चेतना में वह रुई का मुलायम फाहा बनकर आई थी। लोग जिसके सहारे नए सिरे से अपने सपने बुन रहे थे। उसके सुरों में आशा की किरणें फूटती थीं। प्रेम का झरना। दुखों पर मरहम। सराबोर खुशियाँ। क्या नहीं था, उसकी तान में।
 
उस अलौकिक आवाज के बिना हमारे रिश्ते कितने अधूरे थे। हमारे उत्सव बिल्कुल नीरस थे। तीज-त्यौहार बेरौनक थे। लोरियाँ कंठों में अटकी थीं। शिशुओं की नींदे उचाट थीं। प्रेमियों के इंतजार खाली थे। राखियों के रंग नदारद थे। देश प्रेम का ज्वार ध्वनिहीन था। जिंदगी एक ब्लैक एंड व्हाइट मूक फिल्म सरीखी ही थी। लता बाई इन सबको ऐसा लबालब भरा जैसे अरुणाचल के पहाड़ों में सुबह का सूरज सफेद बर्फ को पिघलते सोने सा बना देता है। देखते ही देखते घाटी की शीतल सफेदी स्वर्ण मंडित हो जाती है।
खाली गागर लिए गाँव की किसी पगडंडी से निकलकर कुएँ की तरफ गई एक साधारण सी कन्या जैसी लता ने अपने समय की सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्रियों को थिरकन का वरदान दिया था। वह मीना कुमारी की चिर अवसादग्रस्त मुद्रा में परदे पर स्थिर थीं तो मुमताज जैसी अल्हड़ अदाकारा के चेहरे पर उतरा उल्लास थीं। हमारी सिनेमाई स्मृतियों में कितनी तरह से वह समाई हुई हैं, कहना कठिन है। साठ के दशक में जब परदे पर गतिमान छवियों में रँग भरे तो लगा कि दिवाली ही आ गई और लता की आवाज में भी जैसे रंग भर गए थे। वहीदा रहमान, वैजयंती माला, साधना, आशा पारेख, शर्मिला टैगोर, हेमा मालिनी, रेखा, जया, श्रीदेवी कौन सा ऐसा नाम है, जो पचास साल तक परदे पर बिना लता की आवाज के चमका और दमका हो?
 
 भारत के भाग्य को क्या कहिए कि अपने समय के सर्वश्रेष्ठ संगीतज्ञों ने गीतों के बेजान शब्दों को संगीत के व्याकरण में ढालकर लता के कंठ में उतार दिया था। क्या सचिनदेव बर्मन, मदनमोहन और शंकर-जयकिशन के बिना वह बात पूरी हो सकती थी, जो लता की आवाज में नैसर्गिक रूप से थी? कल्याणजी-आनंदजी और लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने तो उस आवाज को दिवाली की रात आँगन में रोशनी बिखेरती एक चकरी में बदल दिया था, जिसके इर्दगिर्द थिरकना हम सबकी मजबूरी थी।
 
और झूठ बोलने वालों को कौए से कटवाने वाले नए नवेले सागर के विट्‌ठलभाई पटेल से लेकर आज के नौजवान  रचनाकार अमेठी के मनोज मुंतशिर तक बेहद दूर की दो अलग पीढ़ियों के गीतकारों के बारे में क्या, जिनकी पहली ही रचना किसी रिकॉर्डिंग स्टुडियो में लता की आवाज में सुरों के खजाने में जमा हो रही थी? हसरत, शैलेंद्र, गुलजार, आनंद बक्षी जैसे सिनेमा के सुपरहिट गीतकारों की हजारों रचनाएँ लता की आवाज में ही तो याद हैं। वर्ना तो वे मुर्दा कागज पर स्याही की बेजान इबारतें ही थे। मगर वे लता का स्पर्श पाकर ज्योति कलश की तरह छलके।
अभिनय के शौकीन मेरे एक सीनियर "आँधी' फिल्म के गीतों की रिकॉर्डिंग के समय आरडी बर्मन के स्टुडियो में मौजूद थे। लता और किशोर का युगल गीत था-"तेरे बिना जिंदगी से कोई शिकवा तो नहीं।' किशोर दा गीत पूरा करके नैपकिन से माथा पौंछते हुए बाहर निकल गए थे और यही उनकी आदत थी। मगर लता बाई शांति से ठहरी थीं और पूरा गीत एक बार फिर से सुना था। यह उनकी आदत थी और अपने गीतों पर मिलने वाली वाहवाही पर विनम्र लता ने कई बार कहा कि हर गीत को सुनकर उन्हें लगता था कि और बेहतर गा सकती थी!
 
 लता के यशस्वी गायन के संदर्भ में खूब बताया जाता है कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू उनके गीत को सुनकर रो दिए थे और वो गीत बताया जाता है कि ये था-"जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी!'
 
मुझे लगता है कि वो गीत ये रहा होगा-"दे दी हमें आजादी, बिना खड्ग बिना ढाल।' नेहरू इसे सुनकर ही रोए होंगे। जरूर नेहरू को इलाहाबाद के आनंद भवन से सटे अल्फ्रेड पार्क में गोली खाने वाले चंद्रशेखर आजाद और लाहौर में फाँसी पर चढ़ते सरदार भगतसिंह याद आ गए होंगे, जिन्हें इस हालत में परलोक प्रस्थान का शौक बेवक्त नहीं चर्राया था और नेहरू को पल भर के लिए लगा होगा कि वो जो जलियांवाला बाग में बेमौत मारे गए थे, उनका क्या। चार आँसू तो इन पर बनते ही हैं!
 
अगर वो गीत "याद करो कुर्बानी' ही था तो जरूर नेहरू को "फिरंगियों के युद्ध अपराधी' सुभाष बाबू का चेहरा याद आ गया होगा और उनकी आंखों से बरबस आँसू निकल गए होंगे। मगर पल भर की भावुकता से बाहर आकर वे वापस भारत रत्न नेहरू ही थे, जिनके योग्य वारिसों ने अनगिनत सरकारी योजनाओं, स्मारकों, सड़कों और इमारतों पर अपने खानदान के रूमाल और तौलिए देश के हर कोने में डाल दिए थे।
जो भी हो, वो लता की ही आवाज थी, जिसने पल भर के लिए नेहरू के जेहन में हजारों प्रसिद्ध और लाखों गुमनाम शहीदों के चेहरे ताजा कर दिए होंगे, जिनमें फाँसी पर चढ़ा या गोली खाने वाला या काले पानी में कैद दूर-दूर तक नेहरू का कोई परिजन नहीं था। नेहरू ने भी जेलें काटी थीं मगर वे अपने समय की फाइव न सही, थ्री स्टार सुविधाओं से लैस कमरे थे, जहाँ बैठकर वे अखबारों में अपने सत्याग्रह के कवरेज देख-पढ़ सकते थे और अपनी बेटी को खतों के साथ शानदार किताबें लिख सकते थे। वो वैसी काले पानी की कैद तो कतई नहीं थी, जिसे एक लंबी उम्र तक भोगकर निकले वीर सावरकर। स्वतंत्र भारत में उपेक्षित संघर्ष का एक ऐसा महानायक, जो लताजी के लिए पितातुल्य था और दिलजलों का दिल राख करने के लिए लताजी के साथ जिसकी एक पुरानी तस्वीर अचानक ही सबके सामने आ गई।
 
लता के जीवन के एक छोर पर आँसू पौंछते हुए अपने समय के सबसे ताकतवर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू हैं और दूसरे छोर पर उनकी अंतिम विदाई में उपस्थित हमारे समय के शक्तिशाली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। भारत रत्न की सूची में तो बहुत सारे नाम हैं मगर लता मंगेशकर वाकई भारत की कोख से किसी शुभ मुहूर्त में जन्म लेने वाली वास्तविक रत्न ही थीं, जो सरकारों द्वारा तय किए जाने वाले रत्नों में से एक बिल्कुल नहीं थीं।
 
लता की आवाज में बेटियों ने अपने बाबुल को याद किया है। बच्चे झूला झूलते हुए सोए हैं। कॉलेज के चार-पाँच सालों का अंतराल अजीब बेचैनी में कटा है और दादा-दादियों की उम्र में आने तक लता के सुर वैसे ही गूंजते रहे हैं। अपने बूते पर उभरते जिस अभावग्रस्त भारत में सिनेमा हॉल बड़े शहरों तक ही रहे, वहां रेडियो ने लता के छायागीत घर-घर पहुंचाए। वह बिनाका की गीतमाला में गुँथा सुर्ख गुलाब थी, जो सिबाका तक सुर्ख ही रहा। विविध भारती पर फौजी भाइयों के लिए हर हफ्ते के नामी-गिरामी मेहमानों में शायद ही ऐसा कोई होगा, जिसने लताजी के बिना पैंतालीस मिनट का प्रोग्राम पूरा किया होगा।
अपने बचपन में मैंने सिलबट्‌टे पर दाल पीसती माँ के मरफी रेडियो से आती आवाज में लता का पहला परिचय पाया था। ये उन गानों का दौर था जब बरेली वाले अपने बाजार में गिरे हुए झुमके पर झूमते थे, जब लता की आवाज इठला-इठलाकर पूछती थी कि किस-किस को सुनाऊँ अपनी प्रेम कहानियाँ, जब गोरे रंग के गुमान से बचने की नसीहतें सुनाई देती थीं, जो दो दिन में ढल जाने वाला था या एक ऐसे जीवन की पुकार, जिसमें कोई रंग नहीं था और जो कटी पतंग जैसा था मगर किसी नुक्कड़ पर महकते रजनीगंधा सरीखा भी।
 
मेरे लिए भी स्कूल से निकलकर कॉलेज होकर गाँव से शहरों तक दीन-दुनिया के चक्करों में उलझते हुए धीरे-धीरे वह आवाज अपना ही हिस्सा हो गई। पलटकर जब भी याद करता हूं तो किसी गहन मौन में अचानक एक साथ कई सितार बज उठते हैं। एक साथ कई दीप जल उठते हैं। रंगीन परदों से दमकते महल में एक खूबसूरत परछाईं उभरती है। ढाई हजार साल पहले की वह वैशाली की आम्रपाली है। वह गा रही है-"तुम ले गए हो अपने संग नींद फिर हमारी।' समय के उस छोर पर छलका वह अमृत अतीत से आकर हमारे आसपास छलक जाता है।
 
वह कोई और नहीं, भारत की आजादी के अमृतकाल तक हमारे आसपास अपनी देह में रहीं लता मंगेशकर ही हैं...
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