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लता दीदी के बहाने : सबको सन्मति दे भगवान...

लता दीदी के बहाने : सबको सन्मति दे भगवान... - lata ji RIP
बात ही ऐसी है। जी-जान जलाने और आंखों में आंसुओं के साथ जहरीला धुंआ भर देने वाली। 'अल्लाह तेरो नाम ईश्वर तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान...' शब्दों को स्वर्गिक सुरों से अर्थ बना देने वाली आवाज ने सोचा भी न होगा कि उसके पार्थिव पर, जब वह पंच तत्व को सुरीला बना रही थी तब इस इस लोक में इस अद्भुत 'दुआ-प्रार्थना' की सड़ांध भरी सोच का शिकार हो रही होंगी।

साथ में उनकी पहचान, श्वेतवस्त्र वो बॉर्डर वाली साड़ी और कभी दो, कभी एक लम्बे बालों वाली चोटी, माथे पर बिंदी व उससे भी उज्जवल उनके हुनर और चरित्र। उसे भी इन जीरो मस्तिष्कों ने न छोड़ा। बदन से लिपटा तिरंगा भी इस कुचक्री सोच से शर्मिंदा तो हुआ होगा।
 
‘इस धरती का रूप न उजड़े, प्यार की ठंडी धूप न उजड़े...’ जब गाया होगा तब इनके मायने अलग थे। आज ये वाकई उजड़ चके हैं। शायद बंजर ही हो चुके हैं।वरना क्या कोई उनके चरित्र, उनकी सादगी, उनकी नैतिकता पर कीचड़ उछालने की सोच भी सकता? जबकि हम उन्हें मां सरस्वती का प्रतिरूप स्वीकार करते हैं। अपनी मां, अपनी देवी पर भला कौन कालिख के छींटे मार उसका शुभ्रत्व दागदार करता है। यदि हम इस इस युग में प्रवेश कर चुके हैं तो केवल इतना ही  के 'ओ सारे जग के रखवाले, निर्बल को बल देने वाले. इन 'मति-मूढों' को दे दो ज्ञान'.
एक इंटरव्यू में लता दीदी ने कहा- 'यदि अगला जन्म होता है तो वे ‘लता मंगेशकर’ नहीं होना चाहेंगी। लता मंगेशकर होने की अपनी तकलीफें हैं' साथ ही उन्होंने स्पष्ट किया कि वे जीवन के किसी संघर्ष या पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण से ऐसा नहीं कहतीं। शायद वे समय की गति से परिचित थीं। सफलता के शिखर के शीर्ष पर पहुंचना, उसे बनाए रखने की जद्दोजहद कौन नहीं करता? विश्व में अपनी आवाज का जादू बिखेरना केवल उनके ही बस में था।वे स्वयं “कंठ-कोकिला” थीं. ‘भारत का अनमोल रत्न’।
 
'मांगों का सिन्दूर न उजड़े, मां बहनों की आस न टूटे...'उनकी वाणी भारत मां की आवाज थी। ऐसी प्रार्थना अपने बच्चों के लिए केवल धरती मां ही कर सकती है। 'सबको मिले सुख का वरदान' की कामना करने वाली कैसे किसी के दुःख का कारण बन सकती है। उसकी प्रेम कहानी को आदर्श मानने की बजाय चटपटी मसालेदार 'डिश' पेश करने वालों शर्म से डूब मरो। क्योंकि तुम वही खोखले दिमाग की उपज हो जो ‘वन नाईट स्टार मेकर’ की जमात हैं।‘ढिन्चक पूजा, रानू मंडल, बसपन का प्यार, काचा बादाम और भी कई बेढब बेसुरों की खेप, बाजारू और कर्कश अश्लील संगीत के नारकीय कीड़े क्या जानें 'जन्मोंजन्म की तपस्या का पुण्य'
 
'सबको मिले सुख का वरदान...' इस 'सेल्फिश सेल्फी' युग में भला ऐसी दुआ कौन करेगा? ये सरस्वती पुत्री ही थीं जो ब्रह्माण्ड के सारे भावों को अपने सुरों में पिरो के दर्द हरने का गुण जानतीं थीं।सदैव चप्पल पैरों से निकल कर गीत गाने वाली सुरों की आराधिका को कठघरे में खड़े करने वाले अपने अंदर झांक भर तो लें। खुद के ही घटिया विचारों के कूड़ों का भपका इनको सांस लेना मुश्किल कर देगा.
 
उनके गीत अमर हैं. वे गीतों में बसतीं हैं। वे भारत की हवा में प्राणवायु की तरह हैं।वे संगीत सुरों में प्रधान सुर बन गईं हैं।वे छोड़ गईं स्वर्ण गीतों के भंडार।जिनमें सबसे परे, सबके लिए है शहदिया मिठास भरा प्यार और आशीर्वाद।विश्व में जितने आदर और आत्मीयता से इन्हें सुना गया वैसा किसी भी अन्य को नहीं। वे अनन्या थीं. तभी तो कहतीं हैं- 'देह बिना भटके ना प्राण'. ईश्वर उनकी मनोकामना पूर्ण करे।अपने जलील हरकतों से उन्हें रुसवा करने वालों 'जरा आँख में भर लो पानी'....
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