महाभारत के युद्ध में कर्ण और अर्जुन आमने-सामने लड़े थे। कर्ण के पास परशुराम द्वारा दिया गया विजय धनुष था, तो अर्जुन के पास मयासुर या अग्निदेव द्वारा दिया गया गाण्डीव धनुष। दोनों के ही तरकश में सभी तरह के दिव्यास्त्र थे। लेकिन कहते हैं कि कर्ण का धनुष अर्जुन के धनुष से कहीं ज्यादा बेहतर था। क्या ऐसा था? जानिए रहस्य...
गाण्डीव धनुष ( gandiva bow) : गाण्डीव धनुष अर्जुन के पास कैसे आया और इसे किस तरह बनाया गया, इस संबंध में दो-तीन तरह की कथाएं प्रचलित हैं। कहते हैं कि दधीचि ऋषि की हड्डी से यह धनुष बनाया गया था जबकि एक अन्य कथा के अनुसार यह कण्व ऋषि की तपस्या के दौरान शरीर पर दीमक द्वारा बांबी बना दिए जाने के बाद उस बांबी में सुंदर और गठीले बांस उग आए थे।
जब कण्व ऋषि की तपस्या पूर्ण हुई तो ब्रह्माजी की सलाह पर उस बांस से तीन धनुष बनाए गए- पिनाक, शार्ङग और गाण्डीव। गाण्डीव धनुष वरुणदेव के पास था जिसे उन्होंने अग्निदेव को दे दिया था। अग्निदेव ने अर्जुन को दे दिया था जबकि एक दूसरी कथा के अनुसार खांडव वन में इन्द्रप्रस्थ बनाने के दौरान यह धनुष मयासुर ने अर्जुन को देते हुए इसका इतिहास बताया था। जो भी हो, यह धनुष और इसका तरकश चमत्कारिक या कहें कि दिव्य था।
अर्जुन के धनुष की टंकार से पूरा युद्ध क्षेत्र गूंज उठता था। रथ पर सवार कृष्ण और अर्जुन को देखने के लिए देवता भी स्वर्ग से उतर गए थे। इस धनुष का तरकश अक्षय था। इस तरकश के बाण कभी समाप्त नहीं होते थे। कुछ बाण तो लक्ष्य को भेदकर वापस लौट आते थे। यह धनुष देव, दानव तथा गंधर्वों से अनंत वर्षों तक पूजित रहा था। वह किसी शस्त्र से नष्ट नहीं हो सकता था तथा अन्य लाख धनुषों का सामना कर सकता था। जो भी इसे धारण करता था उसमें शक्ति का संचार हो जाता था। अर्जुन इस धनुष के बल पर पाशुपतास्त्र, नारायणास्त्र और ब्रह्मास्त्र छोड़ सकते थे।
विजय धनुष (vijay dhanush) : विजय धनुष धारण करने के कारण कर्ण को विजयीधारी कहा जाता था। कर्ण का धनुष अर्जुन के धनुष से इसलिए श्रेष्ठ था, क्योंकि जब वे तीर चलाते थे और उनका तीर अर्जुन के रथ पर लग जाता था तो रथ पीछे कुछ दूरी तक खिसक जाता था। उस वक्त श्रीकृष्ण कर्ण की बहुत तारीफ करते थे। जब अर्जुन तीर चलाते थे तो कर्ण का रथ बहुत दूर तक पीछे खिसक जाता था।
अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा कि मेरे तीर से कर्ण का रथ बहुत दूर तक चला जाता है जबकि उसके तीर से मेरा रथ कुछ कदम ही जाता है फिर भी आप मेरी नहीं, उस कर्ण की क्यूं तारीफ करते हैं? इस सवाल के जवाब में श्रीकृष्ण कहते हैं कि तुम्हारे रथ पर हनुमानजी स्वयं विराजमान हैं और मैं भी बैठा हूं फिर भी कर्ण के तीर में इतनी क्षमता है कि वह हमारे रथ को कुछ कदम पीछे धकेल देता है। सोचो यदि हनुमानजी और मैं इस रथ से उतर जाएं तो क्या होगा? अर्जुन उनकी बात समझ जाता है। कृष्ण ने यह भी कहा था कि जब तक कर्ण के हाथ में उसका विजय धनुष है तब तक तीनों लोकों के योद्धा एकसाथ मिलकर भी कर्ण को नहीं हरा सकते हैं।
कर्ण के धनुष में ऐसी खूबियां थीं, जो अर्जुन के गाण्डीव धनुष में नहीं थी। विजय एक ऐसा धनुष था कि किसी भी प्रकार के अस्त्र या शस्त्र से खंडित नहीं हो सकता था। इससे तीर छुटते ही भयानक ध्वनि उत्पन्न होती थी। कहते हैं कि कर्ण का विजय धनुष मंत्रों से इस प्रकार अभिमंत्रित था कि वह जिस भी योद्धा के हाथ में होता था उस योद्धा के चारों तरफ एक ऐसा अभेद घेरा बना देता था जिसे भगवान शिव का पाशुपतास्त्र भी भेद नहीं सकता था।
मंत्रों से अभिमंत्रित होने के कारण उस विजय धनुष पर जिस भी बाण को रखकर चलाया जाता था, उस बाण की ताकत उसकी वास्तविक ताकत से कई गुना बढ़ जाती थी। कहते हैं कि किसी धनुष के प्राण उसके प्रत्यंचा में होती है और विजय धनुष की प्रत्यंचा इतनी मजबूत थी कि उसे दुनिया के किसी भी अस्त्र और शस्त्र से नहीं काटा जा सकता था।
कहते हैं कि इस धनुष का निर्माण विश्वकर्माजी ने तारकासुर राक्षस के तीन पुत्रों की नगरी त्रिपुरा का विनाश करने के लिए किया था। इसी धनुष से भगवान शिव ने अपना पाशुपतास्त्र चलाकर तीन नगरियों का एकसाथ ध्वंस कर दिया था। उन तीनों असुरों की नगरी के विनाश के बाद भगवान शिव ने इस विजय धनुष को देवराज इन्द्र को दे दिया था। देवराज इन्द्र ने इस अद्भुत और शक्तिशाली धनुष से कई बार युद्ध में असुरों और राक्षसों का विनाश किया था।
बाद में परशुराम ने हैहयवंशी क्षत्रियों के विनाश के लिए भगवान शंकर की तपस्या कर उनसे यह धनुष मांगा तो भगवान शंकर ने इस धनुष को इन्द्र से लेकर परशुराम को दिया था। फिर जब कर्ण ने झूठ बोलकर भगवान परशुराम के यहां धनुर्विद्या और ब्रह्मास्त्र चलाने की शिक्षा ली और जब परशुराम को इसका पता चला तो उन्होंने कहा कि जब वक्त पड़ेगा तब तू यह विद्या भूल जाएगा। फिर बाद में परशुराम को दया आई तो उन्होंने यह विजय धनुष देकर आशीर्वाद भी दिया था कि तुम्हारी अमिट प्रसिद्धि रहेगी।
कर्ण को महाभारत में तब तक नहीं मारा जा सकता था, जब तक कि उसके हाथ में वह धनुष था। कहते हैं कि महाभारत युद्ध के 17वें दिन जब कर्ण कौरवों की सेना का सेनापति था तब उसने अर्जुन से युद्ध करने के लिए पहली बार अपना विजय धनुष हाथ में उठाया था। कर्ण और अर्जुन का भयानक युद्ध हुआ लेकिन युद्ध का कोई परिणाम नहीं निकल रहा था बल्कि अर्जुन के सारे प्रयास विफल होते जा रहे थे। ऐसे में श्रीकृष्ण ने एक कीचड़भरे गड्डे की ओर अपना रथ मोड़ दिया। कर्ण के सारथी शल्य ने भी अपना रथ उस रथ के पीछे-पीछे चला दिया। कर्ण के रथी को वह कीचड़ का गड्ढा नहीं दिखाई दिया और उसका रथ उस गड्ढे में फंस गया।
तब कर्ण अपने धनुष को रथ में ही छोड़कर गड्ढे में फंसे रथ के पहिये को निकालने लगे। बस यही वक्त था जबकि श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन ने निहत्थे कर्ण पर तीर चला दिया। भगवान श्रीकृष्ण इस बात को जानते थे कि यदि यह मौका चूके तो फिर अर्जुन को बचाना मुश्किल होगा। इसीलिए उन्होंने यह कठिन फैसला तुरंत ही लिया, जो कि युद्ध के नियमों के विरुद्ध था। वैसे भी सबसे पहले तो युद्ध के नियम कौरवों ने ही तोड़े थे निहत्थे अभिमन्यु को मारकर!