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Last Modified: शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015 (14:34 IST)

नेट न्यूट्रलिटी : शिकारी पूंजी से इंटरनेट-आजादी की रक्षा

नेट न्यूट्रलिटी :  शिकारी पूंजी से इंटरनेट-आजादी की रक्षा - what is Net Neutrality
- सुशांत झा

नेट न्यूट्रलिटी का मतलब है इंटरनेट पर अपनी मर्जी से और बिना भेदभाव की सामग्रियों को देखना और उपयोग करना। मान लीजिए कि आपने किसी टेलीकॉम कंपनी से एक निश्चित डाटा पैक लिया है तो आप उसे अपनी मर्जी से इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र है। चाहें आप उससे कोई न्यूज साइट देखें या स्काइपे के लिए इस्तेमाल करें या फेसबुक देखें। लेकिन अगर कोई कंपनी ये कहे कि आप उसके हिसाब से डाटा का इस्तेमाल करें और अलग-अलग साइट के लिए आपको अलग चार्ज करना होगा तो ये आपकी इंटरनेट इस्तेमाल करने की आजादी में हस्तक्षेप है और आपकी वहीं आजादी नेट न्यूट्रलिटी कहलाती है।


इस शब्द का पहले-पहल इस्तेमाल कोलंबिया विश्वविद्यालय में मीडिया लॉ विभाग के प्रोफेसर टिम वू ने 2003 में किया था। हिन्दी में इसके लिए अभी कोई उपयुक्त शब्द नहीं है लेकिन कुछ लोग नेट निरपेक्षता, नेट निष्पक्षता या नेट आजादी शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं।

हाल ही में यह शब्द उस समय चर्चा में आया जब एयरटेल ने एयरटेल जीरो नामसे एक स्कीम शुरू की जिसमें उपभोक्ताओं के बजाय कोई और कंपनी डाटा का शुल्क अदा कर रही थी और उसमें उन कंपनियों के वेबसाइट को वरीयता दी जा रही थी। जाहिर है, ऐसा अन्य वेबसाइटों या सर्च इंजनों की कीमत पर होता और लोगों की इंटरनेट आजादी में ये हस्तक्षेप था। लेकिन जब इसका विरोध हुआ तो फ्लिपकार्ट ने उससे हाथ खींच लिया।

इसका डिजिटल जगत में काफी विरोध हुआ और सरकार को भी ज्ञापन भेजे गए लेकिन ऐसा कोई संकेत नहीं है कि एयरटेल भी इससे अपना हाथ खींच लेगा। उससे पहले ही एयरटेल गूगल के साथ एक इसी तरह का करार कर चुका था लेकिन उस समय किसी ने उस पर ध्यान नहीं दिया। दरअसल, यह समस्या जितनी सरल दिख रही है उतनी है नहीं।

दूसरी बात यह कि सरकार ने इस बीच एक कंस्लटेशन पेपर पेश किया है जिसमें 118 पन्नों में जनता से बीस सवालों पर ईमेल से 24 अप्रैल 2015 तक उनकी राय मांगी गई है। उस कंसल्टेशन पेपर पर भी विवाद हो रहा है क्योंकि नेट न्यूट्रलिटि के समर्थकों की राय में वह बड़ी कंपनियों के हितों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है। हालांकि सरकार ने इस बाबत मई तक रिपोर्ट मांगी है और वह सैद्धातिक रूप से नेट न्यूट्रलिटी में हस्तक्षेप के खिलाफ है।

हालांकि ऐसा नहीं है कि नेट न्यूट्रलिटी का उल्लंघन नहीं हो रहा है। ऐसा करार भारत में वोडाफोन और फेसबुक के बीच भी है। दरअसल, यह सारी लड़ाई अपने वेबसाइट पर लोगों को खींचकर लाने और उन्हें वहीं टिकाए रखने की है।

हॉवर्ड के विजिटिंग लॉ प्रोफेसर सुशान क्रॉफोर्ड इसे एक ‘बड़ी चिंता’ की बात मानते हैं  कि बहुत सारे नए-नए इंटरनेट इस्तेमालकर्ताओं के लिए गूगल और फेसबुक पहली बार इंटरनेट के माध्यम बन रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि यह समस्या सिर्फ भारत में है। अमेरिका में भी यहीं हाल था और वहां के फेडरल कम्यूनिकेशन कमीशन ने इसी साल फरवरी में नेट न्यूट्रिलिटी को जारी करने की बात कही। हालांकि यूरोपियन यूनियन में अलग मत हैं। उसका मानना है कि नेट न्यूट्रिलिटी बुनियादी सुविधाओं में निवेश को बाधित करती है, लेकिन अमेरिका में भी इस समस्या से पार पाने में वहां की सरकार को पसीने छूट रहे हैं।

दरअसल टेलीकॉम कंपनियों ने इसका एक अन्य काट निकाल लिया है। उन्होंने कुछ खास पेड सेवाओं/वेबसाइटों को अब मुफ्त में दिखाना शुरू कर दिया है-जो अन्यथा एक अच्छे शुल्क के बाद ही देखी जा सकती है। टेलीकॉम कंपनियां किसी वेबसाइट की स्पीड बढा देती हैं। यह एक अन्य तरीके से किसी साइट का पक्ष लेने जैसा है और नेट न्यूट्रिलीटी का दूसरे तरीके से उल्लंघन है।

लेकिन मूल बात यह है कि नेट न्यूट्रिलिटी अगर न हो तो बड़ी कंपनियों का इंटरनेट की दुनिया पर एकाधिकार हो जाएगा। ये नेट न्यूट्रिलिटी ही थी जिस वजह से गूगल,फेसबुक या अन्य छोटी कंपनियों का फैलाव हुआ और अब उसी किस्म की बड़ी कंपनियां अपने संसाधनों के बल पर दूसरों को पनपने नहीं देना चाहती।

हालांकि भारत में एक और पेंच है। एक तो यहां पर इंटरनेट की स्पीड ठीक नहीं है, उस पर से कंपनियां अलग चार्ज ठोक रही है। ये जले पर नमक छिड़कने जैसा है। टेलीकॉम एक्सपर्ट दिनेश भट्ट कहते हैं कि यह ग्राहकों पर अपनी पसंद थोपने जैसा है और फ्री इंटरनेट कंसेप्ट पर ही प्रहार है।

भारत की आधी से अधिक जनसंख्या अभी भी इंटरनेट पर नहीं है और ऐसे में इन कंपनियों का कहना है कि अगर वे मुफ्त में इंटरनेट प्रदान कर उन्हें नेट शिक्षित कर रहे हैं तो इसमें बुरा क्या है? लेकिन यह बात व्यावसायिक तौर पर तो सही दिखती है लेकिन सैद्धांतिक तौर पर गलत है क्योंकि यह बड़ी कंपिनयों को एकाधिकार का मौका देती है जिकने पास संसाधन हैं। वे एक शिकारी की तरह गरीब उपभोक्ताओं का शिकार करने निकले हैं-जो मूलभूत आजादी के सिद्धांत के खिलाफ है।

लेकिन अहम बात यह है कि न तो एयरटेल ने अपने जीरो प्लान से तौबा किया है और न अन्य कंपनियों ने। अभी तो सिर्फ फ्लिपकार्ड जीरो प्लान से हटी है। असली चिंता की वजह तो गूगल और फेसबुक जैसी कंपनियां हैं जिसको रोकना संसाधन के बल पर मुश्किल है और ट्राई के कंस्लेटेशन पेपर के बारे में भी लोगों को नहीं पता कि क्या निकलकर आएगा।