मंगलवार, 23 अप्रैल 2024
  • Webdunia Deals
  1. समाचार
  2. मुख्य ख़बरें
  3. स्वतंत्रता दिवस
  4. Contribution to the freedom movement of the Saints
Written By अनिरुद्ध जोशी

इन 6 क्रांतिकारी संतों ने बताया था गुलामी से मुक्ति का उपाय

इन 6 क्रांतिकारी संतों ने बताया था गुलामी से मुक्ति का उपाय - Contribution to the freedom movement of the Saints
स्वतंत्रता संग्राम में साधु-संतों के योगदान पर न के बराबर लिखा गया है। इसका कारण भी रहा है, क्योंकि जिन लोगों के हाथों में सत्ता गई थी उनमें से अधिकतर हिन्दू विरोधी थे।...देश में बंगाल में हुए आंदोलन की कड़ी में संन्यासियों के आंदोलन की चर्चा भी प्रमुखता से की जाती है। बंगाल में सबसे ज्यादा अत्याचार हिन्दुओं पर होता था। अंग्रेजों ने हिन्दुओं को उनके तीर्थ स्थानों पर जाने पर प्रतिबंध लगा दिया था जिसके चलते शांत रहने वाले संन्यासियों में असंतोष फैल गया। बंगाल में हिन्दुओं का धर्मांतरण चरम पर था। गरीब जनता की कोई सुनने वाला नहीं था।
अंग्रेजों के विरुद्ध सन् 1763 से 1773 तक चला संन्यासी आंदोलन सबसे प्रबल आंदोलन था। आदिगुरु शंकराचार्य के दसनामी संप्रदाय ने एकजुट होकर भारतीय धर्म और संस्कृति को बचाने के लिए शस्त्र युद्ध का बिगुल बजाया। इतिहास प्रसिद्ध इस विद्रोह की स्पष्ट जानकारी बंकिमचन्द्र चटर्जी के उपन्यास 'आनंद मठ' में मिलती है। इस विद्रोह को कुचलने के लिए वारेन हेस्टिंग्स को कठोर कार्रवाई करनी पड़ी थी। उसने बेरहमी से संन्यासियों और हिन्दू जनता का कत्लेआम किया। इस आंदोलन के बाद देश का संन्यासी जाग्रत हो गया।
 
भारतीय संतों ने देश को स्वतंत्र कराने और यहां के धर्म, संस्कृति और सभ्यता को पुन: जाग्रत करने के लिए देशभर में घूम-घूमकर लोगों को जगाने का कार्य किया था। उन्होंने देश की जनता को एक करने के लिए सबसे पहले बल इस बात पर दिया कि धार्मिक और सांस्कृतिक आधार पर देश के लोगों के विचार एक होना चाहिए। यही सोचकर उन्होंने वैदिक ज्ञान पर बल दिया और भारतीय इतिहास के गौरवपूर्ण पलों को लोगों के सामने रखा।
 
आजादी के बाद देश के वामपंथियों के हाथों में चले जाने से हमारे सभी संतों का योगदान असफल सिद्ध हो गया। सरदार पटेल से जब पूछा गया था कि हमारा शिक्षामंत्री कैसा और कौन हो? तो उन्होंने कहा था कि गुलामी के अंधकार ने हमारी संस्कृति, धर्म और सभ्यता के गौरव को नष्‍ट कर दिया है अत: ऐसी शिक्षा होना चाहिए, जो हमारे धर्म और संस्कृति पर आधारित हो और जो हमारे गौरवपूर्ण इतिहास का बोध कराती हो। 
 
लेकिन नेहरू ने एक ऐसे व्यक्ति को शिक्षामंत्री बनाया जिसका इस देश और यहां के धर्म से कोई संबंध ही नहीं था। ...आओ जानते हैं हम ऐसे 6 संतों के बारे में जिनके बगैर भारत के दिमाग में यह कभी नहीं आता कि हम गुलाम हैं और हमें आजादी की मांग करना चाहिए।

1. दयानंद सरस्वती : गुलामी से मुक्ति का उपाय संपूर्ण भारतीयों की एक ही सोच हो और वह हो वेदों पर आधारित। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती आधुनिक भारत के महान चिंतक, समाज सुधारक और देशभक्त थे। स्वामी दयानंद ने देश के स्वतंत्रता आंदोलन की 1857 में हुई क्रांति में महत्वपूर्ण योगदान दिया। स्वामी दयानंद सरस्वती का मूल नाम मूलशंकर था। स्वामी विवेकानंद के 20-25 वर्ष पहले ही उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन की क्रांति को चिंगारी बता दी थी। भगतसिंह, आजाद भी स्वामीजी से प्रेरित थे। लोकमान्य तिलक ने भी उन्हें स्वराज का पहला संदेशवाहक कहा था। स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 में गुजरात के मोरबी में हुआ और निर्वाण 31 अक्टूबर 1883 को राजस्थान के अरमेर में हुआ था। उनकी मूल रचनाएं सत्यार्थ प्रकाश, आर्योद्देश्यरत्नमाला, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु, स्वीकारपत्र आदि हैं।
 
आर्य समाज की स्थापना का मूल उद्‍येश्य ही समाज सुधार और देश को गुलामी से मुक्त कराना था। उन्होंने धर्मांतरित हो गए हजारों लोगों को पुन: वैदिक धर्म में लौट आने के लिए प्रेरित किया और वेदों का सच्चा ज्ञान बताया। स्वामीजी जानते थे कि वेदों को छोड़ने के कारण ही भारत की यह दुर्दशा हो चली है इसीलिए उन्होंने वैदिक धर्म की पुन:स्थापना की। उन्होंने मुंबई की काकड़बाड़ी में 7 अप्रैल 1875 में आर्य समाज की स्थापना कर हिन्दुओं में जातिवाद, छुआछूत की समस्या मिटाने का भरपूर प्रयास किया। गांधीजी ने भी आर्य समाज का समर्थन किया था। उन्होंने कहा भी था कि मैं जहां-जहां से गुजरता हूं, वहां-वहां से आर्य समाज पहले ही गुजर चुका होता है। आर्य समाज ने लोगों में आजादी की अलख जगा दी थी। आर्य समाज के कारण ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर स्वदेशी आंदोलन का प्रारंभ हुआ था।

2. स्वामी श्रद्धानंद : स्वामी श्रद्धानंद का जन्म 22 फरवरी 1856 को पंजाब के जालंधर में हुआ था और उनका निर्वाण 23 दिसंबर 1926 को दिल्ली के चांदनी चौक में हुआ था। स्वामी श्रद्धानंद का मूल नाम मुंशीराम था। वे भारत के महान राष्ट्रभक्त संन्यासियों में अग्रणी थे।
 
स्वामी श्रद्धानंद ने देश को अंग्रेजों की दासता से छुटकारा दिलाने और दलितों को उनका अधिकार दिलाने के लिए अनेक कार्य किए। पश्चिमी शिक्षा की जगह उन्होंने वैदिक शिक्षा प्रणाली पर जोर दिया। इनके गुरु स्वामी दयानंद सरस्वती थे। उन्हीं से प्रेरणा लेकर स्वामीजी ने आजादी और वैदिक प्रचार का प्रचंड रूप में आंदोलन खड़ा कर दिया था जिसके चलते गोली मारकर उनकी हत्या कर दी गई थी।
 
धर्म, देश, संस्कृति, शिक्षा और दलितों का उत्थान करने वाले युगधर्मी महापुरुष श्रद्धानंद के विचार आज भी लोगों को प्रेरित करते हैं। उनके विचारों के अनुसार स्वदेश, स्व-संस्कृति, स्व-समाज, स्व-भाषा, स्व-शिक्षा, नारी कल्याण, दलितोत्थान, वेदोत्थान, धर्मोत्थान को महत्व दिए जाने की जरूरत है इसीलिए वर्ष 1901 में स्वामी श्रद्धानंद ने अंग्रेजों द्वारा जारी शिक्षा पद्धति के स्थान पर वैदिक धर्म तथा भारतीयता की शिक्षा देने वाले संस्थान 'गुरुकुल' की स्थापना की। हरिद्वार के कांगड़ी गांव में 'गुरुकुल विद्यालय' खोला गया जिसे आज 'गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय' नाम से जाना जाता है।

3. स्वामी विवेकानंद : स्वामी विवेकानंद ने 1892 में अपने भारत भ्रमण के दौरान यह जाना कि कोई भी राष्ट्र किसी गुलाम देश से शिक्षा ग्रहण नहीं कर सकता इसलिए नियति द्वारा भारत के लिए निर्धारित, मानवतावादी भूमिका को निभाने के लिए ‘भारत की स्वतंत्रता’ एक आवश्यकता थी, लेकिन यह स्वतंत्रता तब तक संभव नहीं हो सकती, जब तक कि भारत वैचारिक और आध्यात्मिक रूप से एक नहीं हो जाता। 
स्वामीजी ने अपने भारत भ्रमण के दौरान यह भी जाना कि ब्रिटिश शासन की शोषक नीतियों के कारण हमारे देश के किसानों और व्यापारियों की दशा दयनीय हो गई है इसीलिए उन्होंने भारत का आह्वान करते हुए कहा था- 'भारत जागो! विश्व जगाओ...।'
 
यही कारण था कि स्वामीजी ने सिर्फ 39 वर्ष 5 महीने और 24 दिन के छोटे-से जीवन में अपने अथक प्रयास के माध्यम से भारत ही नहीं, संपूर्ण विश्व में वेदांत के अध्यात्म का परचम लहराकर देश को यह संदेश दिया कि जरूरत है कि हम अपने मूल ज्ञान की ओर अब लौट आएं। दुर्भाग्य है कि भारत की आजादी के बाद आज भी भारत आध्‍यात्मिक रूप से एक नहीं है। ऐसा कोई हिन्दू नहीं है तो वेद के मार्ग पर चलता हो। ब्रह्म को जाने बगैर, उपनिषदों को पढ़े बगैर यह संभव नहीं हो सकता है कि भारत वैचारिक रूप से एक हो। इस अखंडित विचारधारा के कारण ही भारत गुलाम बना था और आज इसी के कारण भारत में ढेर सारी जातिवादी, वामपंथी, तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादी, प्रांतवादी, देशद्रोही समस्याएं खड़ी हुई हैं। 
 
भारत का राष्ट्रवाद ‘आध्यात्मिकता और सनातन धर्म’ ही है। वामपंथ और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के चलते भारत दीनहीन होकर पुन: गड्ढे में गिरने लगा है। सर्वधर्म समभाव और वसुवैध कुटुम्बकम् की विचारधारा जरूरी है। हिन्दुओं के विभिन्न संप्रदायों में भेदभाव निराशाजनक रूप से परस्पर-विरोधी प्रतीत होते थे। जातिवादी व्यवस्था ने देश को लगभग पुन: तोड़ दिया है।
 
भारत में हिन्दुत्व के पुनरुद्धार के बिना कोई राष्ट्रीय आंदोलन संभव नहीं था। स्वामी विवेकानंद ने ठीक यही किया, उन्होंने हिन्दुत्व का पुनरुद्धार किया। उन्होंने कहा, 'प्रत्येक राष्ट्र के जीवन की एक मुख्य धारा होती है, भारत में धर्म ही वह धारा है। इसे शक्तिशाली बनाइए और दोनों ओर का जल स्वत: ही इसके साथ प्रवाहित होने लगेगा। (खंड IV 372)। सच्चा धर्म मनुष्यों की शिक्षाओं से या पुस्तकों के अध्ययन से नहीं आता; यह तो हमारे भीतर स्थित आत्मा को जागृत करने से आता है जिसके परिणामस्वरूप शुद्ध और वीरतापूर्ण कार्य किए जा सकते हैं। इस विश्व में जन्म लेने वाला प्रत्येक शिशु अपने साथ पूर्व जन्मों के संचित अनुभव भी लेकर आता है और इन अनुभवों की झलक उसके मन और शरीर की संरचना में दिखाई देती है। किंतु हम सभी में मौजूद स्वतंत्रता की भावना यह दर्शाती है कि मन व शरीर से परे भी कुछ है। हम पर शासन करने वाली आत्मा स्वतंत्र है और वही हमारे भीतर स्वतंत्रता की इच्छा जगाती है। यदि हम स्वतंत्र न हों, तो हम इस विश्व को बेहतर बनाने की आशा कैसे कर सकते हैं? हम यह मानते हैं कि मनुष्य की प्रगति उसकी आत्मा के कार्यों का परिणाम है। विश्व जैसा भी है और हम आज जो भी हैं, वह आत्मा की स्वतंत्रता के कारण है।' (IV-190)
 
स्वामी विवेकानंद ने देश के नागरिकों को सभी स्तरों पर स्वतंत्रता प्राप्त करने हेतु प्रोत्साहित किया। उन्होंने वह सब कुछ त्यागने का उपदेश दिया, जो उन्हें कमजोर बनाता हो, जैसे जातिवाद, प्रांतवाद, भाषावाद, दलगत राजनीति आदि। सभी को वक्त रहते वेदों की ओर लौट आना चाहिए अन्यथा देश को खंड-खंड होने में समय नहीं लगेगा।

4. महर्षि अरविंद : बंगाल के महान क्रांतिकारियों में से एक महर्षि अरविंद देश की आध्यात्मिक क्रां‍ति की पहली चिंगारी थे। उन्हीं के आह्वान पर हजारों बंगाली युवकों ने देश की स्वतंत्रता के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदों को चूम लिया था। सशस्त्र क्रांति के पीछे उनकी ही प्रेरणा थी। अरविंद ने कहा था कि चाहे सरकार क्रांतिकारियों को जेल में बंद करे, फांसी दे या यातनाएं दे, पर हम यह सब सहन करेंगे और यह स्वतंत्रता का आंदोलन कभी रुकेगा नहीं। एक दिन अवश्य आएगा, जब अंग्रेजों को हिन्दुस्तान छोड़कर जाना होगा। यह इत्तेफाक नहीं है कि 15 अगस्त को भारत की आजादी मिली और इसी दिन उनका जन्मदिन मनाया जाता है।
महर्षि अरविंद पहले एक क्रांतिकारी नेता थे लेकिन बाद में वे अध्यात्म की ओर मुड़ गए, क्योंकि उन्होंने यह जाना कि आध्यात्मिक उत्थान के बगैर भारत की स्वतंत्रता के कोई मायने नहीं इसीलिए उन्होंने भारत को आध्यात्मिक रूप से एक करने के लिए भारतीय ज्ञान की पताका विश्‍वभर में फैलाई ताकि भारतीयों में अपने ज्ञान के प्रति गौरव-बोध जाग्रत हो। गौरव-बोध के बगैर आजादी और स्वतंत्रता की अलख जगाना मुश्‍किल था। हमें अपने धर्म और ज्ञान पर गौरव होना चाहिए। यह गौरव-बोध तब आता है, जब हम वेद, उपनिषद और गीता को पढ़ें। 
 
महर्षि अरविंद के गीता और अवतारवाद के विज्ञान को समझाया। क्रांतिकारी महर्षि अरविंद का जन्म 15 अगस्त 1872 को कोलकाता में हुआ था। उनके पिता केडी घोष एक डॉक्टर तथा अंग्रेजों के प्रशंसक थे। पिता अंग्रेजों के प्रशंसक लेकिन उनके चारों बेटे अंग्रेजों के लिए सिरदर्द बन गए।
 
कोलकाता में उनके भाई बारिन ने उन्हें बाघा जतिन, जतिन बनर्जी और सुरेन्द्रनाथ टैगोर जैसे क्रांतिकारियों से मिलवाया। उन्होंने 1902 में उनशीलन समिति ऑफ कलकत्ता की स्थापना में मदद की। उन्होंने लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के साथ कांग्रेस के गरमपंथी धड़े की विचारधारा को बढ़ावा दिया। 
 
सन् 1906 में जब बंग-भंग का आंदोलन चल रहा था तो उन्होंने बड़ौदा से कलकत्ता की ओर प्रस्थान कर दिया। जनता को जागृत करने के लिए अरविंद ने उत्तेजक भाषण दिए। उन्होंने अपने भाषणों तथा 'वंदे मातरम्' में प्रकाशित लेखों द्वारा अंग्रेज सरकार की दमन नीति की कड़ी निंदा की थी।
 
अरविंद का नाम 1905 के बंगाल विभाजन के बाद हुए क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ा और 1908-09 में उन पर अलीपुर बमकांड मामले में राजद्रोह का मुकदमा चला जिसके फलस्वरूप अंग्रेज सरकार ने उन्हें जेल की सजा सुना दी। जब सजा के लिए उन्हें अलीपुर जेल में रखा गया तो जेल में अरविंद का जीवन ही बदल गया। वे जेल की कोठरी में ज्यादा से ज्यादा समय साधना और तप में लगाने लगे। वे गीता पढ़ा करते और भगवान श्रीकृष्ण की आराधना किया करते। ऐसा कहा जाता है कि अरविंद जब अलीपुर जेल में थे, तब उन्हें साधना के दौरान भगवान कृष्ण के दर्शन हुए। कृष्ण की प्रेरणा से वे क्रांतिकारी आंदोलन छोड़कर योग और अध्यात्म में रम गए।
 
जेल से बाहर आकर वे किसी भी आंदोलन में भाग लेने के इच्छुक नहीं थे। अरविंद गुप्त रूप से पांडिचेरी चले गए। वहीं पर रहते हुए अरविंद ने योग द्वारा सिद्धि प्राप्त की और आज के वैज्ञानिकों को बता दिया कि इस जगत को चलाने के लिए एक अन्य जगत और भी है।
 
अरविंद एक महान योगी और दार्शनिक थे। उनका पूरे विश्व में दर्शनशास्त्र पर बहुत प्रभाव रहा है। उन्होंने जहां वेद, उपनिषद आदि ग्रंथों पर टीका लिखी, वहीं योग साधना पर मौलिक ग्रंथ लिखे। खासकर उन्होंने डार्विन जैसे जीव वैज्ञानिकों के सिद्धांत से आगे चेतना के विकास की एक कहानी लिखी और समझाया कि किस तरह धरती पर जीवन का विकास हुआ। उनकी प्रमुख कृतियां लेटर्स ऑन योगा, सावित्री, योग समन्वय, दिव्य जीवन, फ्यूचर पोयट्री और द मदर हैं।
 
5 दिसंबर 1950 को महर्षि अरविंद का देहांत हुआ। बताया जाता है कि निधन के बाद 4 दिन तक उनके पार्थिव शरीर में दिव्य आभा बने रहने के कारण उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया और अंतत: 9 दिसंबर को उन्हें आश्रम में समाधि दी गई।
 

5. एनी बेसेंट : भारतीय राष्ट्रीय जागरण और स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ीं 3 विदेशी महिलाएं उल्लेखनीय हैं- सिस्टर निवेदिता, मीरा बेन और एनी बेसेंट। तीनों में एनी बेसेंट का नाम इसलिए महत्वपूर्ण है कि उन्होंने भारतीय जनमानस को धार्मिक रूप से एक करने और स्वतंत्रता आंदोलन में प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया था। सिस्टर निवेदिता विवेकानंद एवं मीरा बेन गांधीजी के आदर्शों से प्रेरित होकर भारत आईं, लेकिन एनी बेसेंट भारतीय दर्शन एवं हिन्दू धर्म के आकर्षण से थियोसॉफी के प्रसार हेतु भारत आई थीं।
एनी बेसेंट का जन्म 1 अक्टूबर 1847 को लंदन के वुड परिवार में हुआ। एनी बेसेंट के पिता एक कुशल चिकित्सक एवं कई भाषाओं के ज्ञाता थे। एनी बेसेंट जब 5 वर्ष की थीं तभी उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। उनका पालन-पोषण उनकी मां द्वारा अभावों की स्थितियों में हुआ। शिक्षाविद् महिला सुश्री मेरियट ने उन्हें उनकी मां से अपने संरक्षण में ले लिया। सुश्री मेरियट के संरक्षण में उन्होंने 16 वर्ष तक विद्यार्जन, यूरोप की यात्रा तथा जर्मन, लैटिन एवं फ्रेंच भाषाओं का गहन अध्ययन किया। एनी बेसेंट का विवाह 22 वर्ष की उम्र में गिरजाघर के पादरी रेवेरेंड फ्रैंक बेसेंट से हुआ। उनके 2 बच्चे हुए किंतु स्वभाव से स्वतंत्र, विचारशील व धार्मिक प्रवृत्ति के कारण उनका अपने पति से अंतरविरोध था और इसी के चलते उन्होंने पति से संबंध विच्छेद कर लिया।
 
सन् 1882 में वे थियोसाफिकल सोसायटी की संस्थापिका मैडम ब्लावत्सकी के संपर्क में आईं एवं पूर्ण रूप से संत संस्कारों वाली महिला बन गईं। सन् 1889 में उन्होंने अपने को थियोसाफिस्ट घोषित किया एवं शेष जीवन भारत की सेवा में अर्पित करने की घोषणा की। 16 नवंबर 1893 को वे एक वृहद कार्यक्रम के साथ भारत आईं और सांस्कृतिक नगर काशी (बनारस) को अपना केंद्र बनाया। काशी के तत्कालीन नरेश महाराजा प्रभु नारायण सिंह से भेंट की और उनकी कृपा स्वरूप कामच्छा स्थित काशी नरेश सभा भवन के आस-पास की भूमि प्राप्त कर 7 जुलाई 1898 को सेंट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना की। सामाजिक बुराइयों, जैसे बाल विवाह, जातीय व्यवस्था, विधवा विवाह, विदेश यात्रा आदि को दूर करने के लिए 'ब्रदर्स ऑफ सर्विस' नामक संस्था बनाई।
 
उस समय महामना पं. मदनमोहन मालवीय एक विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते थे, परंतु नियमानुसार इसके लिए एक कॉलेज का होना अनिवार्य था। मालवीयजी ने एनी बेसेंट के समक्ष सेंट्रल हिन्दू कॉलेज का प्रस्ताव रखा तो एनी बेसेंट ने तत्काल स्वीकार करते हुए कहा, 'मेरे पास जो कुछ भी है वह देश के लिए ही है, यह विद्यालय आपका ही है पंडितजी।' वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की सह-संस्थापिका के रूप में जानी जाती हैं।
 
देशवासियों ने उन्हें 'मां वसंत' कहकर सम्मानित किया तो महात्मा गांधी ने उन्हें ‘वसंत देवी’ की उपाधि से विभूषित किया। भारतीय राजनीति में उन्होंने 1914 में 68 वर्ष की उम्र में प्रवेश किया और आते ही एक अत्यंत प्रभावशाली क्रांतिकारी आंदोलन होम रूल का प्रारंभ किया। यह आंदोलन भारतीय एवं कांग्रेस की राजनीति का एक नया जन्म माना जाता है। उस आंदोलन ने भारत की राजनीति तथा ब्रिटिश सरकार की नीति में आमूल परिवर्तन ला दिया।
 
एनी बेसेंट ने पूरे देश का भ्रमण प्रारंभ कर दिया। उन्होंने जगह-जगह पर होम रूल की शाखाएं खोलीं तथा लोगों को स्वराज्य का अर्थ एवं उपयोगिता को समझाया। 1914 में ही उन्होंने दो पत्रिकाएं ‘न्यू इंडिया दैनिक’ तथा ‘द कॉमन व्हील साप्ताहिक’ प्रकाशित करवाईं। उन पत्रिकाओं में ब्रिटिश शासन के विरोध में लिखने के कारण उन्हें 20 हजार रुपए का दंड भी देना पड़ा। उन्होंने अमेरिका तथा इंग्लैंड में भी होम रूल की शाखाएं खोलीं। वे शाखाएं भारत की स्वतंत्रता के लिए कार्य करती थीं।
 
उन्होंने एक और महत्वपूर्ण कार्य किया था और यह था कि वैचारिक रूप से अलग हो गए लोकमान्य तिलक तथा गोखले को 1907 में अपने प्रयासों से मिलाया। कांग्रेस तथा मुस्लिम लीग में एकता बनाई तथा हिन्दू और मुस्लिम समुदायों में भी एकता स्थापित करने में मुख्य भूमिका निभाई। 1917 में एनी बेसेंट को उनके दो सहयोगियों के साथ नजरबंद कर दिया गया। फलस्वरूप पूरे देश में सभाएं हुईं, जुलूस निकले, महिलाओं ने खुलकर भाग लिया। अंत में ब्रिटिश शासन ने उन्हें मुक्त किया तथा कानून में कई सुधारों की घोषणा भी की। 1917 में ही कलकत्ता में कांग्रेस की सभा में उन्हें राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। 1919 तक वे सक्रिय राजनीति में रहने के पश्चात राजनीति से अलग हो गईं।
 
एनी बेसेंट के जीवन का मूल मंत्र था- कर्म। एनी बेसेंट का भी यही विचार था कि राष्ट्र का विकास एवं निर्माण तभी संभव है, जब उस देश के विभिन्न धर्मों, मान्यताओं एवं संस्कृतियों में एकता स्थापित हो। उनका उद्देश्य था हिन्दू समाज एवं उसकी आध्यात्मिकता में आई विकृतियों को दूर करना।
 
उन्होंने भारतीय धर्म का गंभीर अध्ययन किया। उन्होंने गीता का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया। उन्होंने लगभग 200 पुस्तकें लिखी हैं व कई पत्रिकाओं का प्रकाशन किया। उन्हें 6 जुलाई 1907 में ही थियोसाफिकल सोसायटी का अध्यक्ष चुन लिया गया था, जो वे जीवनपर्यंत रहीं। 1908 में अडयार (चेन्नई) में वसंत प्रेस का शुभारंभ किया। 1918 में इंडियन भारत स्काउट की नींव रखी।
 
एनी बेसेंट ने एक महत्वपूर्ण कार्य भी किया था। उन्होंने विश्व के महान दार्शनिक जे. कृष्णमूर्ति को 1909 में उनके माता-पिता से अपने संरक्षण में ले लिया था। तब जे. कृष्णमूर्ति की आयु 5 वर्ष थी। उन्हीं के संरक्षण में कृष्णमूर्ति ने ज्ञानार्जन किया। आज जे. कृष्णमूर्ति विश्वगुरु के रूप में सम्मानित हैं। एनी बेसेंट ने 20 सितंबर सन् 1933 को अडयार (चेन्नई) में अपना शरीर छोड़ दिया। उनकी इच्छाओं के अनुसार भारतीय पद्धति से उनका दाह-संस्कार हुआ। उनका अस्थि कलश बनारस लाया गया तथा दशाश्वमेध घाट पर उसका विसर्जन हुआ।

6. स्वामी सहजानंद सरस्वती : स्वामी सहजानंद सरस्वती (मूल नाम नौरंग) का जन्म 22 फरवरी 1889 को उत्तरप्रदेश के गाजीपुर में महाशिवरात्रि के दिन हुआ और उनका निर्वाण 25 जून 1950 को पटना में हुआ। 'किसान आंदोलन' के जनक स्वामीजी आदिशंकराचार्य संप्रदाय के 'दसनामी संन्यासी' अखाड़े के दंडी संन्यासी थे। 1909 में उन्होंने काशी में दंडी स्वामी अद्वैतानंद से दीक्षा ग्रहण कर दंड प्राप्त किया और दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती बने। काशी में रहते हुए धार्मिक कुरीतियों और बाह्याडंबरों के खिलाफ मोर्चा खोला। 
 
स्वामीजी को मूल रूप से किसान आंदोलन और जमींदारी प्रथा के खिलाफ किए गए उनके कार्यों के लिए जाना जाता है। महात्मा गांधी ने चंपारण के किसानों को अंग्रेजी शोषण से बचाने के लिए आंदोलन छेड़ा था, लेकिन किसानों को अखिल भारतीय स्तर पर संगठित कर प्रभावी आंदोलन खड़ा करने का काम स्वामी सहजानंद ने ही किया। इस आंदोलन के माध्यम से वे भी भारतमाता को गुलामी से मुक्त कराने के संघर्ष में कूद पड़े।
 
महात्मा गांधी के अनुरोध पर वे कांग्रेस में शामिल हो गए। 1 साल के भीतर ही वे गाजीपुर जिला कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए और कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में शामिल हुए। अगले साल उनकी गिरफ्तारी और 1 साल की कैद हुई। महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू हुए असहयोग आंदोलन के दौरान बिहार में घूम-घूमकर उन्होंने अंग्रेजी राज के खिलाफ लोगों को खड़ा किया। बाद में वे किसानों को लामबंद करने की मुहिम में जुट गए। 
 
17 नवंबर 1928 को सोनपुर (बिहार) में उन्हें बिहार प्रांतीय किसान सभा का अध्यक्ष चुना गया। उन्होंने जमींदारों के शोषण से किसानों को मुक्ति दिलाने और जमीन पर रैयतों का मालिकाना हक दिलाने की मुहिम शुरू की। अप्रैल 1936 में कांग्रेस के लखनऊ सम्मेलन में 'अखिल भारतीय किसान सभा' की स्थापना हुई और स्वामी सहजानंद सरस्वती को उसका पहला अध्यक्ष चुना गया।
 
उनकी बढ़ती सक्रियता से घबराकर अंग्रेजों ने उन्हें जेल में डाल दिया। कारावास के दौरान गांधीजी के कांग्रेसी चेलों की छल और प्रपंच से प्राप्त सुविधाभोगी प्रवृत्ति को देखकर स्वामीजी हैरान रह गए। स्वामीजी का कांग्रेस से मोहभंग हो गया। तब उन्होंने कांग्रेस के समाजवादी धड़े से हाथ मिलाकर किसानों के लिए कार्य किया। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के साथ भी वे अनेक रैलियों में शामिल हुए। आजादी की लड़ाई के दौरान जब उन्हें गिरफ्तार किया गया तो नेताजी ने पूरे देश में 'फॉरवर्ड ब्लॉक' के जरिए हड़ताल करवाई थी।
 
स्वामी सहजानंद ने पटना के समीप बिहटा में सीताराम आश्रम स्थापित किया, जो किसान आंदोलन का केंद्र बना तथा वहीं से वे पूरे आंदोलन को संचालित करते रहे। जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ते हुए स्वामीजी 26 जून1950 को मुजफ्फरपुर (बिहार) में महाप्रयाण कर गए। राष्ट्रकवि 'दिनकर' के शब्दों में- 'दलितों का संन्यासी चला गया।'