मंगलवार, 8 अप्रैल 2025
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कविता: नदी सदा बहती रही

नदी सदा बहती रही
हमसे भी और तुमसे भी, 
तो बढ़ने को कहती रही।
नदी सदा बहती रही, 
नदी सदा बहती रही।
 
1.
पाषाणों की गोदी हो,
या रेतीली धरती।
अपने दिल का हाल, 
भला कब अपनों को कहती।
 
चोट हृदय में अपने वो,
सदियों से सहती रही।
नदी सदा बहती रही,
नदी सदा बहती रही।
 
2.
उठतीं-गिरतीं लहरें,
हमसे-तुमसे करे इशारे।
उतार-चढ़ाव जीवन के,
दाएं-बाएं किनारे।
 
मुक्तभाव से जीवन में,
सुख-दुःख वो गहती रही।
नदी सदा बहती रही,
नदी सदा बहती रही।
 
3.
जीवन में स्वीकार किया,
कब उसने ठहराव।
हर पल अपने में उसने,
कायम रखा बहाव।
 
संघर्षों की गाथा धूप की,
चादर में लिखती रही।
नदी सदा बहती रही,
नदी सदा बहती रही।
 
4.
अपनी राह बनाने की,
करती कवायद पूरी।
उद्गम स्थल से नापती,
सागर तट की दूरी।
 
मिले शिखर जीवन में,
हरदम वो कहती रही।
नदी सदा बहती रही,
नदी सदा बहती रही।